
एक बालगीत
ऊँचे पर्वत पर हम आए ।
मन में हैं ख़ुशियाँ भर लाए।
पाइन के हैं वृक्ष बड़े।
सीधे प्रहरी से हैं खड़े ।।
देखो कैसी झरती झर झर।
गिरती जाती बर्फ़ निरन्तर।।
बरस रही है सभी तरफ़ ।
दुग्ध धवल सी दिखे बरफ़ ।।
आज हुआ कैसा हिमपात।
ढक गई धरा, ढके तरुपात।।
ऐसा लगे शीत के भय से।
सूरज भी न निकला घर से ।।
बादल की वह ओढ़ रज़ाई।
बिस्तर में छिप लेटा भाई ।।
हैं मकान सब ढके बर्फ़ से।
बन्द रास्ते हुए बर्फ़ से ।।
देखो ज़रा निकल कर बाहर।
चलो बर्फ़ में सँभल सँभल कर।।
बर्फ़ थपेड़े दे गालों पर ।
जूतों में गल जाए पिघलकर।।
ऊँचे कोमल बर्फ़ के गद्दे ।
बिछे हुए सब कहीं हैं भू पर।।
मन करता है उन पर लोटें ।
बच्चों के संग मिल मिलकर।।
बर्फ़ के लड्डू बना बना कर।
बच्चे खेलें ख़ुश हो हो कर।।
मारें इक दूजे को हँस कर।
फिर भागें किलकारी भरकर।।
और कभी मन होता ऐसा।
बचपन में खाया था जैसा।।
बर्फ़ का चूरा कप में लेकर।
उस पर शर्बत लाल डालकर।।
चुस्की लेकर उसको खाएँ।
घिसी बरफ़ का लुत्फ़ उठाएँ।।
दृश्य मनोरम बड़ा यहाँ है ।
अपना मन खो गया यहाँ है।।
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- शकुन्तला बहादुर
ऋतुओं के वर्णन पर आपकी पकड सराहनीय है. गीत की पंक्ति पंक्ति में आपने ऋतु की विशेषता सहित बाललीलाओं को भी सजीव कर दिया है. धन्यवाद. प्रवक्ता को भी इस स्फॄर्तिदायक रचना के प्रकाशन के लिए.धन्यवाद करना चाहूँगा. प्रवक्ता आज कल टिप्पणियों पर ध्यान दे नहीं पाता क्या? ३ ३ दिन तक टिप्पणी अनदेखी रहती है.
ऋतुओं के वर्णन पर आपकी पकड सराहनीय है. गीत की पंक्ति पंक्ति में आपने ऋतु की विशेषता सहित बाललीलाओं को भी सजीव कर दिया है. धन्यवाद. प्रवक्ता को भी इस स्फॄर्तिदायक रचना के प्रकाशन के लिए.धन्यवाद करना चाहूँगा.