कलियुग में दैहिक नहीं, चारित्रिक रूप में करें श्रीकृष्ण की पहचान

   केवल कृष्ण पनगोत्रा

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(गीता: अध्याय 4, श्लोक 7)
इस श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं, “जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूँ
सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, दुर्जनो और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूँ”
कलियुग में धर्म पर अधर्म भारी पड़ रहा है। इस धारणा से कोई असहमत है क्या? द्वापर युग में धर्म की स्थापना हेतु श्री कृष्ण अवतरित हुए और त्रेतायुग में श्रीराम ने असुरों का संहार किया ताकि ऋषि-मुनि मानव कल्याण हेतु निर्भय होकर वैज्ञानिक अनुष्ठान एवं अन्वेषण कर सकें। सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में कलियुग की अपेक्षा अधर्म के क्षितिज इतने विस्तृत नहीं रहे होंगे। मनिषियों का मत है कि कलियुग क्लेश का युग है और जिस युग में सभी के मन में असंतोष हो, मानसिक रूप से दुखी हों वही कलियुग है। हिंदू धर्म ग्रंथो में चार युग बताए गए हैं। सतयुग में लोगों में छल, कपट और दंभ नहीं होता है। त्रेतायुग में अधर्म आंशिक यानि थोड़ा सा पैर जमा लेता है। द्वापर युग में धर्म आधा ही रह जाता है। कलियुग के आने पर तीन अंशों से इस जगत पर अधर्म का आक्रमण हो जाता है। इस युग में धर्म का सिर्फ एक चौथाई अंश ही रह जाता है। तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कलियुग में क्या अधर्म का प्रकोप द्वापर या त्रेतायुग के अधर्म से कम है जो कि धर्म की स्थापना हेतु कोई अवतरित नहीं हो रहा? शास्त्रों में कल्कि अवतार का वर्णन तो मिलता है परन्तु क्या धर्म का चौथाई भाग बचा है क्या? क्या कोई बता सकता है कि कल्कि अवतार की प्रतीक्षा हम कब तक करते रहेंगे और कल्कि भगवान कब अवतरित होंगे? इसका कोई तार्किक उत्तर हमें नहीं मिलता।
तो फिर  कल्कि अवतरण के रूप में श्री कृष्ण को कहां ढूँढें? कैसे धर्म की पुनर्स्थापना होगी? इस घोर कलयुग में यदि श्री कृष्ण या कल्कि भगवान का अवतरण होने वाला होगा तो उनकी पहचान कैसे होगी?
बताया यह भी गया है कि भगवान कल्कि काले घोड़े पे सवार होंगे और हाथ में खड्डग होगा। मगर यह तो उस काल की परिकल्पना होगी जब युग ही घोड़ों और तलवारों का रहा होगा। आज के युग में हमें टैंक या लड़ाकू विमान की परिकल्पना करनी चाहिए। क्या कल्कि भगवान कोई बड़े सैन्य अधिकारी होंगे, कोई संत-महात्मा होंगे, या फिर चुनाव जीत कर धर्म की स्थापना करेंगे? चुनाव जीतेंगे तो कैसे? प्रजा का धार्मिक विखंडन करवा कर, अर्थ या मदिरा का लोभ देकर, या मिथ्या बातों से या पाखंडों आदि कुकर्मों-कथनों से। यदि इस प्रकार चुनावी विजय पाएंगे तो क्या ऐसे मनुष्य कल्कि जी होंगे? अवतरित पुरुष ऐसे तो नहीं हो सकते! तो फिर प्रतीक्षा करते कई सदियां समाप्त हो जाएंगी?
एक मान्यता यह भी है कि कलियुग महाभारत युद्ध के पश्चात अभिमन्यु के पुत्र पांडव परिवार के राजा परिक्षत के समय में आरम्भ हुआ था। महाभारत कुरुक्षेत्र में कब हुआ था इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं।पौराणिक साहित्य के अनुसार यह पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इतिहासकार डी.एस त्रिवेदी ने विभिन्न ऐतिहासिक एवं ज्योतिष संबंधी आधारों पर बल देते हुए युद्ध का समय 3137 ईसा पूर्व निश्चित किया है। पीसी सेनगुप्ता के अनुसार महाभारत में आए कुछ ज्योतिषीय संबंधी प्रमाण युद्ध का समय 2449 ईसा पूर्व निश्चित करते हैं। मोटे तौर पर पांच हजार साल से हम कल्कि भगवान की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
प्रतीक्षा करने की आवश्यकता ही नहीं है। हमें श्रीकृष्ण पहचाने होंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे हम आज प्रत्येक संगठन में, राजनैतिक दलों में, परिवार एवं समाज में, सगे-संबंधियों आदि में शकुनि जैसे चरित्र पहचान लेते हैं, दुर्योधन और दुशासन पहचान लेते हैं। उसी प्रकार कलियुग में एक चौथाई श्रीकृष्ण भी तो होंगे कहीं।
द्वापर युग के अंतिम काल में जब कलियुग ने राजा परीक्षित से रहने का स्थान मांगा तो राजा ने चार स्थानों पर रहने की अनुमति दी। यह चार स्थान थे – जहां जुआ खेला जाता हो, मदिरापान होता हो, पर स्त्री गमन होता हो और हिंसा होती हो। परन्तु कलियुग ने इन परिस्थितियों को रहने के लिए पर्याप्त नहीं माना और किसी एक और स्थान की मांग की। राजा परीक्षित ने कलियुग को स्वर्ण में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। स्वर्ण लोभ और स्वार्थ का पर्याय है। कलियुग के चरम और धर्म की ग्लानि को हम स्वीकृति दे चुके हैं, तो फिर श्रीकृष्ण हैं कहां?
श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं, वह तो प्रत्येक मनुष्य की चेतना में हैं। गीता के प्रमुख श्लोक (यदा यदा हि धर्मस्य…..) की व्याख्या योगाचार्य सुरक्षित गोस्वामी ने कुछ इस प्रकार की है- ”मनुष्य में धर्म और अधर्म दोनों ही प्रवृत्तियाँ होती है। कभी भीतर धर्म बढ़ता है और कभी अधर्म।। कभी हम धार्मिक जैसा बर्ताव करते हैं और कभी अधार्मिक जैसा। लेकिन जब व्यक्ति के अंदर अधर्म का भाव आता है तब उसके मन में उस अधर्म को न करने की एक लहर भी ज़रूर आती है, भले वो उसको ध्यान दे या न दे और अधर्म करने पर बार-बार दिल यह ज़रूर कहता रहता  है कि जो कर रहे हो, वो गलत है। ऐसा नहीं कि जब कुछ बड़ा अधर्म करेंगे तभी अंदर की आवाज़ आएगी, ये तो किसी का पेन चुरा लेने पर भी आएगी। ये आवाज़ तब-तब आएगी जब-जब आप कोई भी अधर्म करोगे। लोग इसी आवाज़ को नज़रअंदाज़ करके अधर्म करते हैं। ये अंदर की आवाज़ कुछ और नहीं बल्कि हमारी चेतना में बैठे कृष्ण की प्रेरणा है, जो हमें अधर्म न करने की सलाह देती रहती है यही भगवान् कह रहे है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होगी तब-तब मैं प्रकट होता हूँ । यही उनके प्रकट होने की प्रक्रिया है क्योंकि वो तो अपनी प्रेरणाओं से हर व्यक्ति के अंदर अपनी अनुभूति का अहसास कराते ही रहेंगे।”
श्रीकृष्ण हमारी चेतना में भी हैं और बाह्य संसार में भी हैं मगर हम कलियुग के प्रभाव में उसी प्रकार पहचान नहीं कर पा रहे जैसे मुकुट पर बैठे कलियुग के प्रभाव में राजा परीक्षित शमीक ऋषि के गले में सांप डाल बैठे थे। हमें दोनों ओर श्रीकृष्ण की पहचान करनी है, चेतना में भी और बाह्य संसार में भी। हमें श्रीकृष्ण की भौतिक-दैहिक रूप में नहीं अपितु चारित्रिक रूप में पहचान करनी होगी।
घोर कलयुग में श्रीकृष्ण अकेले नजर आएंगे। उनके बहुत से शत्रु होंगे, उनके हर कर्म की आलोचना होगी। उनकी धाराओं और धारणाओं की हंसी उड़ाई जाएगी। वह विजयी होगें मगर उन्हें पराजित कहा जाएगा। वे अनुसरण के बजाए जानलेवा विरोध के पात्र होंगे। श्रीकृष्ण को एक देह के रूप में ढूंढना शुरू करोगे तो ढूंढ नहीं पाओगे, अत: प्राणियों में ही जीवन चरित्र के रूप में ढूंढने के प्रयास करने होंगे। कहने का तात्पर्य यह हो रहा है कि हर अच्छे गुण और कर्म की अवहेलना नहीं करनी है अपितु सराहना करनी है। पाखंड रूपी विष और अमृत रूपी यथार्थ का विवेक रूपी मेरू से मंथन करना होगा। तब जाकर चेतना रूपी श्रीकृष्ण अधर्म का नाश और धर्म की संस्थापना करने हेतु हमारे भीतर अवतरित होंगे।•
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