राजनीति

वैचारिक अस्पृश्यता घातक / नरेश भारतीय

नरेश भारतीय

वैचारिक आदान प्रदान के लिए सहज तत्परता किसी भी सभ्य समाज की बौद्धिक क्षमता और उसकी व्यवहार परिपक्वता का परिचय होती है. इसके विपरीत, जहां ऐसी सहजता उपलब्ध नहीं होती वहाँ किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज और यहाँ तक कि देश के बौद्धिक स्तर का सम्यक मूल्यांकन भी संभव नहीं हो सकता. ऐसे में सामूहिक महत्व के मुद्दों के समाधान की संभावनाएं धूमिल होती चली जाती हैं. सामाजिक एकजुटता के स्थान पर विभाजन एवं विखंडन को बल मिलता है. भिन्न मत के पक्षों में से जिस किसी एक पक्ष के द्वारा वैचारिक दरारें बनाए रखने के प्रयास जितना अधिक प्रखर होते हैं, उसके प्रति सामान्य समाज का उतना ही मोहभंग होने की प्रक्रिया को बल मिलता है.

कोई व्यक्ति या संगठन यदि सिर्फ अपनी ही कहना सुनना चाहता है, अपने से भिन्न विचारधारा के पक्षधर व्यक्तियों और संगठनों के साथ मिल बैठने तक से परहेज़ करता है, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ऐसा वह किसी भयवश करता है अथवा अपनी विचारदृष्टि को सर्वश्रेष्ठ मानने के दम्भवश करता है? हाल के वर्षों में विश्व के आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में गहरा बदलाव आया है. पश्चिम में साम्यवाद के पराभव से रूस और चीन दोनों की सोच और भूमिका में दिशामूलक परिवर्तन आये हैं. पश्चिम निदेशित खुले बाजारवाद को विगत में कितना भी बहस का मुद्दा बनाया जाता रहा है लेकिन उससे अंतत: उसकी स्वीकारिता पर कोई असर नहीं पड़ा. भारत में भी राष्ट्रीय हिताहित चिंतन में वाम और दक्षिण दोनों ने ही अपनी अपनी सोच के अनुरूप इसे जांचा और परखा. राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी की गुहार लगा कर अपनी चिंता को अभिव्यक्ति दी और वामपंथियों ने अमरीकी साम्राज्यवाद के विस्तार के खतरे से सचेत किया. दो अलग दृष्टिकोण थे, इस पर भी कहीं न कहीं वैचारिक विमर्श को प्रोत्साहन के अंश दोनों में विद्यमान थे. लेकिन विमर्श हुआ नहीं. इस बदलते वैश्विक परिवेश की सर्वत्र गतिमान सफलता ने इस विषय पर देश में किसी गंभीर बहस को बल प्राप्त ही नहीं करने दिया. मास्को में जैसी हवा बही भारत के रूस समर्थक वामपंथियों ने यथावत सर झुका दिया और स्वदेशी की गुहार भी कोई सशक्त आंदोलन नहीं बन पाई. आज चीन कथित रूप से कम्युनिस्ट बना रहते हुए भी विश्व का सबसे बड़ा पूंजीवादी देश बन रहा है.

अनेक दशकों से वामपंथ ने देश की वैचारिक दिशा को रूस और चीन की नकल और निर्देश के अनुसार मोड़ने की भरपूर कोशिश की है. लेकिन हाल के वर्षों में वामपंथ टूटा बिखरा है यद्यपि भारत में उनके पूर्वग्रह अभी भी बने हुए हैं. वैचारिक विलगतावाद बढा है. कांग्रेस के शासनकाल में ही वामपंथ को प्रोत्साहन मिला. राजनीति के साथ साथ तथाकथित प्रगतिशीलता के नाम पर देश के साहित्यजगत में भी वामपंथ की पैठ मजबूत हुई. संघ के राष्ट्रवाद से उन्हें चिढ़ है क्योंकि यह राष्ट्रवाद समाज को देश की धरती से जुड़े जीवन मूल्यों के सम्मान का आह्वान करता है. विदेश में जन्में और भिन्न परिवेश में किए गए प्रयोगों पर आधारित साम्यवाद के साथ उसका जोड़ नहीं बैठता. इसीलिए आज भी किसी राष्ट्रवादी लेखक, कवि और पत्रकार को साहित्यकार नहीं माना जाता. अनेक उदाहरण हैं. लेकिन क्या संघ ऐसी वैचारिक अस्पृश्यता में विश्वास करता है? नहीं.

श्री मंगलेश डबराल प्रसंग में जो कुछ हुआ अत्यंत शोचनीय है. सोचने का विषय यह है कि वामपंथी कवि एवं पत्रकार श्री डबराल का दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक श्री राकेश सिन्हा के निमंत्रण पर एक संगोष्ठी की अध्यक्षता करने जाना उनके वामपंथी सहयोगियों और मित्रों की दृष्टि में अपराध क्यों था? क्या इसलिए क्योंकि श्री सिन्हा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के जीवनीकार हैं? यदि सच यही है तो यह न सिर्फ वामपंथियों की घोर संकीर्णता है बल्कि इससे यह आभास भी मिलता है कि देश में वामपंथ की निष्प्रभ होती भूमिका की स्थिति में यह उसके द्वारा अपनी संभ्रमित वैचारिक किलेबंदी को सुरक्षित करने की एक चेष्ठा है?

लोकतंत्र में मत भिन्नता वस्तुत: वैचारिक विमर्श का आधार होता है और उसके लिए एक मंच पर मिल बैठना और मत विवेचन करना एक उत्तम साधन. वैदिक काल में प्रचलित ‘शास्त्रार्थ’ प्रथा का ही यह वर्तमान स्वरूप है. राजा जनक के शासन काल में ‘गार्गी और याज्ञवल्क्य’ दो भिन्न मत विद्वानों के बीच किसी मह्त्वपूर्ण विषय पर आयोजित परस्पर बहस से किसी निष्कर्ष तक पहुँचने का प्रसंग मिलता है. अपने समाज में सदियों से चली आ रही इस स्वस्थ परम्परा का यह अनेक में से एक प्रमाण है. इस प्राचीन परम्परा और वर्तमान लोकतंत्रीय परिवेश में, भारत नीति प्रतिष्ठान के निदेशक प्रोफेसर सिन्हा के द्वारा स्वयं एक राष्ट्रवादी विचारदृष्टि का होते हुए कवि पत्रकार श्री डबराल को एक संगोष्ठी की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित करना उनकी उदारता एवं निष्पक्षता के कारण स्तुत्य है. इसके विपरीत, श्री डबराल की संगोष्ठी में उपस्थिति का उनके वामपंथी संगठन सहयोगियों को खल जाना और उस पर उनकी तीव्र प्रतिक्रिया निश्चय ही उनकी वैचारिक संकीर्णता और अस्पृश्यता का परिचय देता है. श्री डबराल उनके दबाव में झुक गए और उन्होंने अपनी इस चूक के लिए उनसे क्षमा माँगी यह शोचनीय स्थिति दर्शाता है. लोकतंत्रीय परिवेश में ऐसी प्रवृत्ति का पनपना सुखद सन्देश नहीं है.

इससे एक सहज निष्कर्ष तो यह निकलता है कि वामपंथी अपने से भिन्न वैचारिकता से इसलिए दूर भागते है कि कहीं राष्ट्रवादियों के बीच जाने से उनकी अपनी हठधर्मी विचार दृष्टि को कोई आंच न आ जाये? यहाँ तक कि उस यज्ञाग्नि से मिलने वाली उर्जा से भी परहेज़ करते हैं जिसमें अनेक प्रकार की सामग्री का उपयोग किया जाता है ताकि आस पास की वायु शुद्ध सुगन्धित रहे. लेकिन यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने देश में समाज अलग खेमों में निरंतर बंटता चला जा रहा है और परस्पर दुराव के अखाड़े भी खोदता है. स्वस्थ बहस का आधार कमजोर पड़ता जा रहा है. टेलिविज़न पर बहसों का आयोजन आम होने लगा है लेकिन जब वहाँ भिन्न मत के राजनीतिक प्रवक्ताओं और उनके साथ पत्रकारों को भाग लेते देखता हूँ तो भले सही लगता है लेकिन जब किसी पार्टी प्रवक्ता को मात्र अपनी ही बात कहने और लगातार दोहराते चले जाते देखता हूँ या एक साथ दो या दो से अधिक को परस्पर लड़ने समान बहस करते पाता हूँ, तो लगता है कोई किसी की सुनना नहीं चाहता. ऐसे में लगता है कि वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तंग सोच की जंजीरों में बांध कर कुछ लोग एक विशिष्ट किस्म की अस्पृश्यता को बढ़ावा दे रहे हैं जो किसी के लिए भी हितकर नहीं है. इसे राके जाने की आवश्यकता है क्योंकि यह घातक है.