यदि भारत आजाद है तो, ये गुलामी के प्रतीक किसलिए?

-अखिलेश आर्येन्दु

पर्यावरण और वनमंत्री जयराम रमेश ने जब पटना के एक दीक्षांत समारोह में अंग्रेजी गुलामी के प्रतीक चोगे को उतार फेंका तो पद्रह वर्ष पहले की एक याद ताजा हो आई। 1995 में इलाहाबाद में अनेक नवयुवक बहुराष्‍ट्रीय कम्पनियों की गुलामी और इससे बढ़ते देश समाज के खतरों पर एक समारोह में सिरकत कर रहे थे। तभी बहुत से नौजवानों ने अंग्रेजी गुलामी के प्रतीक पोशाक पैंट-शर्ट को उतार फेंका था, इस संकल्प के साथ कि आगे गुलामी के सभी प्रतीकों को किसी भी हालात में नहीं अपनाएंगे। इसकी चर्चा क्षेत्रीय अखबारों में भी हुई। गौरतलब आजादी बचाओ आंदोलन ने इसके बाद देश के अनेक स्थानों पर आंदोलन के जरिए स्वदेशी वस्तुओं, स्वदेशी भाषा और स्वदेशी संस्कृति को पुर्नस्थापित करने का आंदोलन छेड़ दिया था। तब ऐसा लगता था आने वाले दिनों में गुलामी के प्रतीक- सभी कानूनों, वस्त्रों, वस्तुओं, चिन्हों, नामों और भाषा को जनजागृति के जरिए हमेषा के लिए खत्म करने में एक न एक दिन कामयाबी मिल सकती है। क्योंकि जैसा संकल्प, जोश, धैर्य, कार्यक्रम और विचार उस वक्त युवकों और आंदोलन के संचालकों में था, उससे भारत का पुनरोद्धार सुनिश्चित लगता था। लेकिन बहुराष्‍ट्रीय साम्राज्यवादी ताकतें इतनी मजबूत हो चुकी थी कि आंदोलन उस मकसद में कामयाब न हो सका जिसके लिए कृतसंकल्पित था। इसकी वजह थी कि केंद्र, राज्य सरकारें और मीडिया, सभी नरसिंहाराव के विकास के नए मॉडल के एक तरह से पिछलग्गू बन चुके थे। कुछ अखबारों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश मीडिया नरसिंहाराव के उदारीकरण, वैश्‍वीकरण और निजीकरण का किसी न किसी रूप में समर्थन करने में ही लगे थे या तटस्थ की भूमिका में थे।

जयराम रमेश ने चोगा उतार कर जिस साहस का परिचय दिया वह भारत के इतिहास में आजादी के बाद इने-गिने लोगों के जरिए ही दिया गया। जिसे कांग्रेस के वे केंद्र में मंत्री हैं वह गांधी की कांग्रेस तो हैं नहीं। जो स्वदेशी के लिए ही बनी थी और स्वदेशी के लिए ही कुर्बान हो गई। ऐसा साहस तो खुद को भारतीय संस्कृति की पैरोकार बताने वाली भाजपा के किसी राजनेता में आज तक नहीं दिखाई दिया। वाकई में यह प्रखर राष्‍ट्रभक्ति का ही परिचायक नहीं है बल्कि अंग्रेजी दासता के प्रतीकों के पति खुला विद्रोह भी है। काश ऐसा विद्रोह सभी राजनेताओं और प्रशासकों में आ जाए तो इण्डिया महज चौबीस घंटे में भारत बन जाए। सबसे अफसोस की बात यह है कि जयराम रमेश के इस राष्‍ट्रचेतना का वंदन मीडिया ने एक भी दिन नहीं किया जैसे वह क्रिकेट और अंग्रेजी वंदना के लिए करता रहता है। यह तो ऐसा अवसर था, जब अंग्रेजी सहित अंग्रेजो की गुलामी के प्रतीक सभी चिन्हों को उखाड़ फेंकने के बारे में देशव्यापी चर्चा और चिंतन होता। बकायदे संसद में इसी बहाने चर्चाएं-परिचर्चाएं होतीं। क्यों, कोई भी सांसद गुलामी के प्रतीकों को बनाए रखने के पक्ष में नहीं है? यदि कोई है तो उसका भी इसी बहाने पता चल जाता। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे राष्‍ट्रचेतना के मामलों पर न मीडिया के लिए जगह है और न ही संसद में ही। अफसोस तो सपा, भाजपा, बसपा और कम्युनिस्ट पार्टियों पर भी होता है। वैसे तो ये गुलामी के प्रतीकों को खत्म करने की बात अपने निहित स्वार्थ में तो उठाती रहती हैं लेकिन जब सत्ता पक्ष से यह पहल हुई तो उनके मुंह बंद हो गए। यह स्वार्थ की पराकाष्‍ठा नहीं तो क्या है?

अंग्रेजी गुलामी के प्रतीक के रूप में एक चोगा ही नहीं है बल्कि अनेक ऐसे प्रतीक हैं जो हमें गुलामी की याद हमेशा दिलाते रहते हैं। मसलन वकील का पहनावा- काला पैंट और काली कोट। बहस के वक्त वकीलों द्वारा न्यायाधीश को :माई लार्ड’ का सम्बोधन, पुलिस का पैंट, शर्ट, टोपी, डंडा और हथकड़ी, सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता, संसद में नए कानून का अंग्रेजी में ही बनाया जाना,, 1935 में डोमिनीयन स्टेट के लिए जो कानून बनाए गए थे, उनको ही भारत के संविधान के कानून के रूप में स्वीकार करना, अंग्रेजी खेल क्रिकेट, सम्बोधन शिष्‍टाचार का भारतीय शब्द श्रीमान, महोदय और आदरणीय की जगह :सर’ और ‘मेडम’ का इस्तेमाल, परिवार में माता-पिता को मम्मी और डैडी का सम्बोधन, अंकल शब्द का सामान्य प्रयोग, सारे रिश्‍तों को महज एक ‘अकंल’ शब्द में समेटना, वसंतोत्सव की जगह ‘वैलेंटाइन डे’ का मनाना, सुबह उठने पर चाय के साथ दिनचर्या की शुरुआत, स्वागत में मट्ठा, गन्ने और बेल के शरबत की जगह चाय, काफी या कोल्डड्रिक देना, पैर के जूते के रूप में एडीडास ही पहली पसंद बनना जन्मदिन पर हवन की जगह केक काटना, दातून की जगह विदेशी टूथपेस्ट और मंजनों का इस्तेमाल जैसे सैकड़ों गुलामी के प्रतीक आजाद भारत को गुलामी की याद दिलाने के लिए क्या कम है?

विदेशी वस्तुओं पर जान छिड़कना और स्वदेशी की निंदा करना जैसे अनेक और देश का गौरव नष्‍ट करने वाले कृत्य रोजाना होते रहते हैं। ये विनाशकरी खेल शासन और प्रशासन ही नहीं खेलते हैं बल्कि व्यापारी, बुद्धिजीवी, खिलाड़ी, फिल्मी-सितारें, राजनेता, कर्मचारी और नौकरशाह मिलकर खेलते हैं। देश आजाद होने के बाद महत्मा गांधी ने कहा था-गुलामी के जितने भी प्रतीक हैं सबसे पहले उन्हें खत्म करना जरूरी है। इसी क्रम में उन्होंने कहा था- ‘दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है’। इतना ही नहीं जिस सांसद में अंग्रेजी बोलने वालों की तादाद आज सबसे ज्यादा या यह कहें कि कुछ अपवादों को छोड़कर सभी अंग्रेजी में बोलना गर्व की बात मानते हैं। गांधी जी आजाद भारत में एक भी प्रतीक विदेशी यानी अंग्रेजी नहीं देखना चाहते थे। लेकिन उन्हीं के नाम पर सत्ता सुख भोग रहीं पार्टियां अंग्रेजी और दूसरे गुलामी के प्रतीकों की पैरोकार बन गई हैं। कलेजा तो तब फटता है जब दक्षिण की कुछ पार्टियां विदेशी गुलामी की प्रतीक भाषा अंग्रेजी की समर्थक और हिंदी की विरोधी बनकर हिंसक आंदोलन जैसे राष्‍ट्र विरोधी कदम उठाने में गुरेज नहीं करतीं हैं।

जिस भारतीय संविधान के जरिए देश को चलाया जा रहा है उसमें 98वें संशोधन हो चुके हैं। इसके बावजूद लगभग 150 धाराएं ऐसी हैं जो अंग्रेजों की वक्त की हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने भारत को अनंत काल तक गुलाम बनाए रखने के लिए बनाया था। इस पर खुद को प्रखर राष्‍ट्रभक्त कहलाने वाली भाजपा न कभी बोलती है और न ही दूसरे दल, जो अंग्रेजी-कानूनों और अंग्रेजी गुलामी के प्रतीकों के खिलाफत करती रहीं हैं। ऐसे में जयराम रमेश जैसे सांसद और जनता के सच्चे प्रतिनिधियों की अहमियत अपने आप बहुत बढ़ जाती है। आज संसद में ऐसे सांसदों की ही जरूरत है, जो भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषा और भारतीय जीवनषैली को पुन:जीवंत करके भारतीयता की बुझती लौ को पुन: दीप्तमान कर सके।

देश के लिए कितनी त्रासदी और शर्म की बात है कि भारत के राजनेताओं की अपनी कोई पहचान नहीं है। वह न तो वेशभूषा के रूप में है, न तो भाषा के रूप में है और न तो आहार-विहार के रूप में है। देश के राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री, गुहमंत्री और विदेशमंत्री सभी की भाशा अंग्रेजी है। विदेश दौरे के वक्त तो अंग्रेजी की प्रतिष्‍ठा देते ही हैं, संसद में भी अंग्रेजी सिर चढ़कर बोलती है। ऐसा लगता है जैसे आज भी हम इग्लैंड के एक उपनिवेश-मात्र हैं, हमारी कोई अपनी अहमियत नहीं है। सोचिए, क्या यह आजादी के लिए खुद को कुर्बान कर देने वाले अमर शहीदों को भारत है या लार्ड मैकाले का गुलाम भारत या तथाकथित आजाद भारत, जो भारत नहीं इण्डिया है।

आज कहने के तो भारत राजनीतिक और भौगोलिक रूप से आजाद है, लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या वाकई में भारत आजाद है? हमारी संस्कृति, स्वधर्म, रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, भाषा, चिंतन, शिक्षा, सेहत, चिकित्सा ही नहीं, बहुराष्‍ट्रीय साम्राज्यवाद की प्रतीक बहुराष्‍ट्रीय कम्पनियों में कार्य करना, विदेश जाकर अपनी प्रतिभा को बेचना, विदेशी वस्तुओं को ही खरीदेने में गर्व महसूस करना और क्या-क्या गिनाया जाए……………………। हर वस्तु विदेशी, हर कार्य विदेशी और हर विचार विदेशी। ऐसा दूर-दूर तक कुछ भी दिखाई नहीं देता, जो स्वदेशी हो। जो भारत वालों का और भारत वालों से निर्मित हो,। जिसे खरीद कर हम गर्व का अनुभव कर सकें। ऐसे में लार्ड मैकाले याद आते हैं। माई लार्ड ने एक बार एक पत्र में कहा था-मैं भारत में अंग्रेजी के जरिए ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर रहा हूं जो शरीर से देखने में तो भारतीय लगेगी लेकिन विचार से पूरी तरह विदेशी यानी अंग्रेजी होगी। जयराम रमेश ने चोगा उतार कर एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। उनका यह संदेश यदि हम वक्त के साथ समझ सकें तो कथित आजाद भारत को सच्ची आजादी दिलाने की दिशा में हम संकल्पित हों जाएं। वरना आने वाला वक्त हमें नई आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक, वैचारिक और भाशाई गुलामी में पूरी तरह गुलाम बनाने के लिए तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। जो अत्यंत त्रासदीपूर्ण और अमानवीय होगा।

7 COMMENTS

  1. देखिए यह वन्दना सही नहीं लग रही है क्योंकि अगर जयराम रमेश को चोगा उतारना ही था फिर इसे पहना क्यों? यह आलेख ईमानदारी से नहीं लिखा गया है।

  2. जयराम जी ने एक एतिहाषिक कदम उठाया है. हर बुद्धिजीवी वर्ग गुलाम नीतियों का विरोध करता है किन्तु एक राजनातिक खासकर कांग्रेस के बड़े नेता द्वारा आशचर्य के बात है.

  3. बंधुओं यदि आप site:gujaratuniversity.org.in gujarat university इस जाल पते पर जाएं तो पीछे गुजराती लिपिमें “पदवी/પદવી, दान/દાન) समारोह /સમારોહ)” (२००९/૨૦૦૯) पढें। और साथमें देखे कि पदवी देनेवालोने और ग्रहण करने वालोने भी “चोगा” नहीं पहना है। मेरी स्मृतिमें गुजरातमें यह पहल(?) कबकी{२०-२५(?) वर्ष पहलेही} हो चुकी है। गुजराती लिपि अक्षरोंपर रेखा नहीं लगाती।

  4. शुभ शुरुआत के लिए शुभ कामनाएं. परिवर्तन सुनिश्चित है, एक भी प्रयास व्यर्थ नहीं जानेवाला. बस दो साल और !

  5. आप किस दुनिया मे जी रहे है मालूम नहीं,जो भी गिनती आपने गिनी है व्हो सब अब भारतीय ही है.चाहे टूथपेस्ट हो या कपडे.सवाल जयराम रमेश का है व्हो पटना मे गर्मी जायदा है इसलिए मंत्री जी ने चोला उतर दिया था.

  6. आपके लेख से पूर्ण सहमति , किन्तु क्या अब देर नहीं हो गई !!
    आपका अन्तिम पैरा एकदम सटीक है, किन्तु यह कितना प्रभाव डालेगा, इन गुलामों पर!!
    तारीफ़ तो करना ही चाहिये, किन्तु वह तो क्षुद्रताओं में डूबे लोगों पर कोई असर नहीं करेगी।
    मेरी समझ में अभी भी बहुत देर नहीं हुई है, बस एक आन्दोलन चलाने की आवश्यकता है, भारतीय संस्कृति, भाषाएं तथा अस्मिता बचाने के लिये।

  7. चलिए कम से कम शुरुआत तो की जयराम ने…..निश्चय ही एक अच्छी पहल और इस तरह के प्रयासों की तारीफ़ की ही जानी चाहिए.

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