“पं0 लेखराम न होते तो हम ऋषि दयानन्द के खोजपूर्ण जीवन चरित से वंचित रहते”

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महर्षि दयानन्द जी का जन्म सन् 1825 में गुजरात राज्य के टंकारा नामक ग्राम में हुआ था। आपने अपनी आयु के
चौदहवें वर्ष में शिवरात्रि का व्रत रखा था। इससे आपको मूर्तिपूजा की अनुपयोगिता
का रहस्य ज्ञात हुआ था। आपको सच्चे शिव की तलाश थी। इसके बाद चाचा तथा
बहिन की मृत्यु ने आपमें वैराग्य के भाव उत्पन्न किये थे और मृत्यु पर विजय पाने
के लिये आप प्रयत्नशील हुए थे। इन कारणों से आपने अपनी आयु के 22वें वर्ष में गृह
त्याग किया और उसके कुछ समय बाद संन्यास लिया था। आपने अपना पूरा समय
सत्य व ज्ञान की खोज सहित ईश्वर की प्राप्ति में लगाया था। आप योग्य गुरुओं के
मिलने पर योग के अन्तिम लक्ष्य ‘‘समाधि” को प्राप्त हुए थे। इसके बाद भी आपको
ईश्वर, जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान की प्राप्ति की अपेक्षा थी। आपकी यह अभिलाषा
मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का तीन वर्ष 1860-1863
का सान्निध्य प्राप्त कर पूरी हुई थी। गुरु विरजानन्द जी की प्रेरणा से ही आपने देश,
समाज व संसार से अविद्या को दूर कर सर्वत्र विद्या व ज्ञान के प्रकाश का व्रत लिया
था। इसके लिये उन मनुष्यकृत ग्रन्थों का खण्डन आवश्यक था जिसमें ईश्वर का
साक्षात्कार किये हुए सच्चे व प्राणीमात्र के हितैषी ऋषियों की स्वार्थी लोगों द्वारा निन्दा विद्यमान थी। ऋषि दयानन्द ने यह
काम देश भर में घूम कर मौखिक उपदेशों व प्रवचनों के द्वारा किया। इसके साथ ही उन्होंने मत-मतान्तरों के आचार्यों के साथ
अनेक विषयों पर चर्चा व शास्त्रार्थ आदि करके अपने विद्या के प्रचार के उद्देश्य की पूर्ति में प्रयत्न किये थे। ऋषि दयानन्द ने
सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया था। उनके जीवन का एक महान उद्देश्य
विलुप्त वेदों को प्राप्त करना, उनकी सत्यता की परीक्षा करना तथा उनका संस्कृत व हिन्दी में भाष्य करना भी था। ऋषि
दयानन्द ने अपने समय का एक बहुत बड़ा भाग वेदों का भाष्य करने तथा उसका मुद्रण करा कर उसे देश विदेश के सुप्रसिद्ध
विद्वानों तक पहुंचाने में भी किया। देश की आजादी का मूल मन्त्र भी आपने ही अपने आचार-विचार-व्यवहार सहित स्वरचित
ग्रन्थों के द्वारा दिया था। इसके साथ समाज में प्रचलित सभी अन्धविश्वासों एवं कुप्रथाओं का भी आपने खण्डन किया तथा
सत्य, सनातन एवं निर्भ्रान्त वैदिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से देशवासियों को परिचित कराया। यह बता दें कि वेदों का
ज्ञान सभी प्रकार के अंधविश्वासों, मिथ्यापरम्पराओं, सभी प्रकार के पक्षपातों तथा भेदभावों से मुक्त है। ऋषि दयानन्द ने
ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप सहित ईश्वर की उपासना पद्धति से भी देशवासियों को परिचित कराया था। उन्होंने
बौद्धकाल में बन्द हो चुके आर्यों के नित्य कर्म देवयज्ञ अग्निहोत्र को भी पुनः प्रवर्तित किया। आज भी आर्यसमाजों सहित
आर्य परिवारों में दैनिक अग्निहोत्र देवयज्ञ का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये भी आपने
आर्यसमाज के आठवें नियम तथा अपने लघु ग्रन्थ व्यवहारभानु में प्रकाश डाला था। इसके परिणामस्वरूप आपके जीवन काल
व उसके बाद भी आपके अनुयायियों ने इस कार्य को पूरे उत्साह से किया। आपके अनुयायियों व आर्यसमाज ने डी0ए0वी0
स्कूल व कालेज सहित गुरुकुल कांगड़ी आदि अनेक गुरुकुलों की स्थापना कर देश से अविद्या व अज्ञान को दूर करने का
महनीय कार्य किया जिसका स्वर्णिम इतिहास हमारे समाने है।
महर्षि दयानन्द की मृत्यु दीपावली 30 अक्टूबर, 1883 को अजमेर में हुई थी। मृत्यु से पूर्व स्वामी जी पूना में सन्
1875 में अपने जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डाल चुके थे। उन्होंने थ्योसोफिकल सोसायटी की पत्रिका के कहने पर उन्हें भी अपना

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जीवन परिचय प्रेषित किया था जो अंग्रेजी में अनुदित होकर उसमें छपा था। यह परिचय पुस्तक रूप मे उपलब्ध है। स्वामी जी
ने धर्म एवं देशोपकार के जो महनीय कार्य किये थे उससे न केवल देशवासी अपितु विश्व के अनेक महापुरुष प्रभावित थे। ऐसे
महापुरुष के विस्तृत जीवन चरित की आवश्यकता निर्विवाद थी। इस ओर सबसे पहले पंजाब के आर्य नेताओं का ध्यान गया
था। उन्होंने स्वामी जी की मृत्यु के कई वर्ष बाद ऋषि दयानन्द का विस्तृत जीवन चरित लिखे जाने के प्रस्ताव पर विचार
किया और इस कार्य के लिये अपने एक ऋषिभक्त योग्यतम आर्य प्रचारक पं0 लेखराम, आर्य मुसाफिर जी को नियुक्त किया।
पं0 लेखराम जी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर शीघ्र ही उसके अनुरूप कार्य करना आरम्भ कर दिया था। उनके सामने अनेक
चुनौतियां थी। उन्हें उन सभी स्थानों पर जाना था जहां-जहां स्वामी दयानन्द अपने जीवनकाल में गये थे। वहां जाकर पं0
लेखराम जी को स्वामी दयानन्द जी के सम्पर्क में आये व्यक्तियों से मिलकर उनसे स्वामी जी विषयक जानकारी एकत्र करनी
थी। उन दिनों यह कार्य कितना कठिन था इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। उन दिनों आजकल की तरह न सड़के थी, न
वाहन और न रेल यात्रा की सुविधायें। पंडित लेखराम जी पंजाब में जन्में थे, उनकी भाषा उर्दू शब्दों से युक्त होती थी और वस्त्र
भी पंजाब के निवासियों के अनुरूप थे। ऐसे में जब उन्हें भारत के विभिन्न प्रान्तों में जाना पड़ा, तो उनके सामने भाषा आदि
कारणों से अपेक समस्यायें एवं कठिनाईयां आईं होंगी। इन कठिनाईयों से दो चार होने पर भी पंडित लेखराम जी ने स्वामी
दयानन्द जी के जीवन चरित्र के लेखन का असम्भव सा दीखने वाला महनीय कार्य बहुत ही उत्तमता से किया। हमारा सौभाग्य
है कि आज हमें उनके द्वारा संग्रहीत खोजपूर्ण जीवन चरित्र हिन्दी भाषा में उपलब्ध है। इसके लिये समूचा आर्यजगत स्वामी
श्रद्धानन्द जी का आभारी है।
पं0 लेखराम जी ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन की सामग्री एकत्रित कर व जीवन चरित का अधिकांश भाग लिखकर
एक महनीय कार्य किया है। ईश्वर की यह महती कृपा थी कि पं0 लेखराम जी के रूप में एक महान ऋषि भक्त एवं वैदिक धर्म
एवं संस्कृति का प्रेमी आर्यसमाज व देश को मिला जिसने दिग्विजयी ऋषि दयानन्द की जीवन विजय गाथा अपने हृदय के
भावों को प्रस्तुत कर लिखी। पं0 लेखराम जी का जन्म चैत्र महीने की अष्टमी सवंत् 1915 विक्रमी व सन् 1858 को सैदपुर,
जिला झेलम (पंश्चिमी पाकिस्तान) में हुआ था। उनकी मृत्यु 6 मार्च सन् 1897 को लाहौर में हुई। इस प्रकार उन्हें लगभग 39
वर्ष का ही जीवन प्राप्त हुआ। इस अल्प अवधि में उन्होंने ऋषि दयानन्द के जीवन चरित की रचना सहित वेद प्रचार एवं शुद्धि
का आदर्श एवं अनुकरणीय कार्य किया। पं0 लेखराम स्वयं में एक महापुरुष थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उनका जीवन चरित्र
लिखा है। वर्तमान में पं0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने भी उनके छोटे व बड़े कई जीवन चरित्र लिखे हैं। पं0 लेखराम जी का जीवन
वस्तुतः एक वैदिक विद्वान, वेद प्रचारक तथा आदर्श वैदिक धर्मानुयायी का जीवन है। पं0 जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन की
समस्त उपलब्ध सामग्री का प्रायः संचय कर लिया था। फरवरी-मार्च, 1897 में वह ऋषि जीवन को उर्दू में लिख रहे थे। जिस
दिन एक मुस्लिम युवक ने लाहौर में उनकी हत्या की, उस दिन वह ऋषि दयानन्द के महाप्रयाण की घटना का वर्णन लिख रहे
थे। पंडित जी के अल्प आयु में वीरगति को प्राप्त होने से वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार सहित उनके द्वारा लिखे जाने वाले
धार्मिक साहित्य की अपार हानि हुई। उनका अधिकांश साहित्य उर्दू में है जो वर्तमान में हिन्दी में अनुदित होकर ‘‘कुलियात
आर्यमुसाफिर” नाम से प्रकाशित ग्रन्थावली के रूप में प्राप्त होता है। इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। एक नया
संस्करण दो खण्डों में प्रा0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी के सम्पादन में परोपकारिणी सभा अजमेर से कुछ माह पूर्व ही प्रकाशित हुआ है।
हम समझते हैं कि जो आर्यबन्धु इसे पढ़ सकते हैं वह इस इस ग्रन्था ‘कुलियात आर्य-मुसाफिर’ का अध्ययन अवश्य करें और
जो किसी कारण नहीं भी कर सकते, वह श्रद्धावश ही इस ग्रन्थ को मंगाकर इसे अपने संग्रह में सुरक्षित कर लें। इससे हमारे
लेखकों, सम्पादकों एवं प्रकाशकों को उत्साह मिलता है।
पं0 लेखराम जी रचित ऋषि दयानन्द के जीवन चरित्र का प्रकाशन वर्तमान में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली
द्वारा किया जाता है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण उर्दू में सन् 1897 में स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा हुआ था। इस उर्दू ग्रन्थ का
हिन्दी अनुवाद स्व0 कविराज रघुनन्दनसिंह ‘निर्मल’ जी ने बहुत ही उत्तम किया है। यही अनुवाद आजकल ट्रस्ट से डॉ0

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भवानीलाल भारतीय द्वारा सम्पादित किया हुआ प्रकाशित किया जाता है। ट्रस्ट से इस ग्रन्थ के अब तक 6 संस्करण
प्रकाशित हो चुके हैं। अन्तिम संस्करण सन् 2007 में प्रकाशित हुआ था। सम्प्रति यह ग्रन्थ अप्राप्य है, ऐसा हमारा अनुमान है।
इस ग्रन्थ के आरम्भ में डॉ0 भवानीलाल भारतीय लिखित चार पृष्ठों का सम्पादकीय वक्तव्य प्रकाशित हुआ है। इसके बाद 14
पृष्ठों की विस्तृत विषय-सूची है। विषय-सूची के बाद ट्रस्ट के संस्थापक कीर्तिशेष ऋषिभक्त लाला दीपचन्द आर्य जी द्वारा
लिखित प्राक्कथन है। प्राक्कथन के बाद 14 पृष्ठों का महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी) का दिनांक 25-10-1887
का लिखा हुआ ‘(प्रकाशन की) तैयारी तथा सम्पादन का संक्षिप्त इतिहास’ है। कुलियात-आर्यमुसाफिर एक ऐतिहासिक
दस्तावेज है जिसे सभी ऋषि भक्तों को पढ़ना चाहिये। पुस्तक 986 से कुछ अधिक पृष्ठों की है। ऐसे विशालकाय ग्रन्थ का
प्रकाशन एक कठिन कार्य होता है। जो पाठक इस ग्रन्थ का आद्योपान्त अध्ययन करेंगे उन्हें ऋषि जीवन की महत्ता का
वास्तविक महत्व ज्ञात हो सकेगा। हमारा सौभाग्य है कि हमने इसे आद्योपान्त पढ़ा है।
सम्भवतः पं0 लेखराम जी की मृत्यु पर किसी कवि ने एक बहुत मार्मिक कविता लिखी थी जो निम्न प्रकार हैः
साहसी को बल दिया है, मृत्यु ने मारा नहीं है।
राह ही हारी सदा, राही कभी हारा नहीं है।।
बिजलियां काली घटाओं से कहां रोके रुकी हैं।
डूबते देखे भंवर ही डूबती धारा नहीं है।।
जो व्यथायें प्रेरणा दें उन व्यथाओं को दुलारो।
जूझकर कठिनाइयों से रंग जीवन का निखारो।।
दीप बुझ-बुझ कर जला है, वृक्ष कट-कट कर बढ़ा है।
मृत्यु से जीवन मिले, तो आरती उसकी उतारों।।
हम अनुभव करते हैं कि पंडित लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द जी का जीवन चरित्र लिखकर एक महान् कार्य किया है।
यदि वह यह कार्य न करते तो शायद हमें उनके द्वारा तैयार जीवन चरित्र जैसा जीवन चरित्र प्राप्त न होता। धन्य है ऋषि
दयानन्द और उनके शिष्य पं0 लेखराम और स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज। हम इन सभी को सादर नमन करते हैं। हम इनके
ऋणी हैं और सदा रहेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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