इमेज युद्ध था नाइन इलेवन

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

नाइन इलेवन इमेज त्रासदी है। सुनियोजित हत्याकाण्ड है। इस त्रासदी में मारे गए लोगों का कोई कसूर नहीं था। वे निर्दोष थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मौत का बदला मौत से लेंगे के नारे के तहत सारी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ जंग का एलान कर दिया गया और इस जंग का पहला बड़ा पड़ाव था अफगानिस्तान और बाद में सारी दुनिया में अमेरिकी आतंकी हस्तक्षेप की खूनी कार्रवाईयां तेज कर दी गयीं।

आतंक के खिलाफ मुहिम तेज होते ही आतंकी हमलों की दुनिया के अनेक देशों में आंधी चल निकली। आतंक की ऐसी बयार विगत 50 सालों में पहले कभी नहीं देखी गयी। आतंक विरोधी मुहिम और आतंकी हमलों में गहरा संबंध है। दो हमलावर ( पक्ष-विपक्ष) एक ही संगठन के संचालन में काम कर रहे हैं। जिसका नाम है अमेरिकी साम्राज्यवाद।

विलक्षण बात यह है कि अमेरिका की जो संस्थाएं प्रत्यक्षतः आतंक विरोधी विश्व व्यापी मुहिम का फैसला लेती रही हैं उनके द्वारा ही आतंकियों को आर्थिक-नैतिक-राजनीतिक मदद मिलती रही है। एक तरफ अमेरिकी और नाटो सेनाएं और दूसरी ओर आतंकी संगठनों की हमलावर गतिविधियां। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मुश्किल यह है कि बहुराष्ट्रीय मीडिया के अंधाधुंध कवरेज ने इस संबंध को छिपाया है।

नाइन इलेवन पर लाखों पन्नों की सामग्री सामने आ चुकी है। आज जितने पन्ने हैं पढ़ने और देखने वाले उतने नहीं हैं। आश्चर्य की बात है अमेरिका -ब्रिटेन का महातंत्र आज तक असली अपराधी और कारणों की खोज नहीं कर पाया है। नाइन इलेवन की घटना क्यों ,कैसे और किनके द्वारा घटी हम आज तक नहीं जान पाए हैं। आज तक किसी भी हादसे के बारे में इतना विभ्रम नहीं था जितना नाइन इलेवन को लेकर है। आखिर इस हादसे के तथ्यों को अमेरिकी प्रशासन छिपा क्यों रहा है? पारदर्शिता और खोजी पत्रकारिता में सिद्धहस्त अमेरिकी -ब्रिटिश मीडिया इतने बड़े हादसे पर अभी तक कोई सुनिश्चित रिपोर्ट तैयार क्यों नहीं कर पाया?

नाइन इलेवन के बारे में जितने भी ठोस सबूत आए हैं वे बहुराष्ट्रीय मीडिया ने नहीं दिए हैं बल्कि गैर कारपोरेट मीडिया के जरिए आए हैं। असल में नाइन इलेवन को जो हुआ उसका खाका बहुत पहले ही बनाया जा चुका था और इस खाके को तैयार पेंटागन के विशेषज्ञों ने किया था।

उल्लेखनीय है आतंक के खिलाफ विश्वव्यापी अमेरिकी जंग नाइन इलेवन से आरंभ नहीं होती बल्कि इराक पर अगस्त 1990 में हमले के साथ आरंभ होती है। इस जंग के मध्यकालीन चरण के रूप में नाइन इलेवन को नियोजित किया गया जिससे अफगानिस्तान और इराक पर दोबारा हमला किया जा सके।

नाइन इलेवन की घटना को आतंक के खिलाफ जारी विश्वव्यापी अमेरिकी मुहिम के रूप में देखना चाहिए। इस मुहिम का आरंभ अगस्त 1990 से होता है न कि नाइन इलेवन से। आतंक की विश्वव्यापी अमेरिकी मुहिम ने सारी दुनिया में नए सिरे से ध्रुवीकरण किया है। नई विश्व व्यवस्था को पैदा किया है। इस मुहिम के पीछे अमेरिका का लक्ष्य आतंक को खत्म करना नहीं है बल्कि आतंक और नई विश्व व्यवस्था की सृष्टि करना है और इस काम में उसे पूरी सफलता मिली है।

इस मुहिम के असली कर्णधार हैं अमरीकी शस्त्र उद्योग के मालिक। उनके ही इशारे पर अमेरिका के विदेश विभाग ने आतंक विरोधी मुहिम का ब्लू प्रिंट तैयार किया और उसे सारी दुनिया पर थोप दिया।

आतंक के खिलाफ मुहिम टीवी के जरिए देखते रहे हैं। यह टीवी नजारों की मुहिम है। आप अपनी आंखों से जो देखते हैं उस पर एकक्षण विश्वास करते हैं फिर तुरंत ही भूल जाते हैं। इस मुहिम में दूरी बनी रहती है।

इस आतंकी मुहिम को क्या कहा जाए? क्या यह चालाकी है? स्पीड है? या साहस का खेल है? आतंकी मुहिम का बुनियादी निर्धारक तत्व है इमेज और स्पीड। इसके सारे एक्शन इमेज और स्पीड से संचालित हैं। इसमें भी स्पीड प्रथमिक है। स्पीड के वर्चस्व को अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व के अंग के रूप में विकसित किया गया है। स्पीड के कारण अस्त्र-शस्त्र की जंग की जगह अब नजरों के सामने ध्वनि और छबियों ने ले ली है। अब आप आतंकी हमले की साउण्ड और पिक्चरों को देखते हैं और उसके आधार पर उसकी पुष्टि करते हैं। वैध बनाते हैं। इसमें दुर्घटना या विस्मय का तत्व नहीं है। पहले युद्ध देखकर ,आतंकी हमले की खबर देखकर विस्मित होते थे अब विस्मित नहीं होते। अब आप हर चीज घटते हुए देखते हैं। नाइन इलेवन का लाइव प्रसारण या बुम्बई बम विस्फोट का लाइव कवरेज हो,आप सब कुछ अपनी आंखों से देखते हैं। आप इस भ्रम में रहते हैं कि हमला देखा और आप सब जानते हैं। सच यह है कि आपने कम देखा और कम जानते हैं।

आज मीडिया सूचना और मनोरंजन का माध्यम नहीं है बल्कि औद्योगिक सेना की भूमिका अदा कर रहा है। वह प्रचार के जरिए बिना युद्ध के युद्ध का माहौल बनाता रहता है। इस फिनोमिना को आप हिन्दू आतंकवाद से लेकर अलकायदा के आतंकी कवरेज तक देख सकते हैं।

इस प्रचार कौशल का लक्ष्य है विभ्रम पैदा करना, प्रचार करना और प्रसारित करना। उपग्रह की तकनीक ने सारे तकनीकी तामझाम को इसने नई ऊँचाईयों पर पहुँचा दिया है। अब कोई भी घटना तुरंत ही उपग्रह कनेक्शन से जुड़ती है। इसका रीयल टाइम में संप्रेषण होता है। इसे हाई रिजोल्यूशन वीडियो के जरिए फीड किया जाता है। जब यह सारी प्रक्रिया टेलीविजन के जरिए संपन्न होती है तो हमें यह देखना चाहिए कि टीवी क्या करता है? टीवी घटना के समूचे यथार्थ, समय और स्थान को बदल देता है। अब उसके प्रसारण ग्लोबल होते हैं। इस प्रक्रिया में दर्शक के निजी नजरिए का अपहरण हो जाता है। वह तत्क्षण जो दिखाया जा रहा है उसमें व्यस्त रहता है अब हमारी आंखों और कैमरे के लैंस में कोई अंतर नहीं रह जाता। इसके कारण दर्शक का आलोचनात्मक विवेक और शरीर पूरी तरह गायब हो जाता है।

अब हर चीज इमेज के जरिए ही हम तक पहुँच रही है। इमेज ने सभी चीजों के ऊपर अपनी जगह बना ली है। कभी कभी तो इमेज के कारण हम शारीरिक तौर पर मौजूद यथार्थ को भी अस्वीकार करने लगते हैं। रीयल टाइम और स्वतःसंचालित का स्पेस के ऊपर स्थान बन गया है। एक वाक्य में कहें तो हम इमेजों के युद्ध में फंसे हैं और उससे ही उलझे हुए हैं। आतंकी, अलकायदा, मुस्लिम आतंकी,हिन्दी आतंकी आदि जितने भी नाम और प्रसंग हम देख रहे हैं उनका आधार है इमेज युद्ध। इस युद्ध में हथियार बनाने वालों के अलावा और किसी की जीत होने वाली नहीं है। जिनके हथियार के कारखाने हैं उनके पास बड़े मीडिया घरानों का भी स्वामित्व है। वे इमेज और युद्ध दोनों के ही मालिक और उत्पादक हैं।

नाइन इलेवन की घटना इमेज युद्ध की देन है। इसने इमेजों की जंग में वृद्धि की है। सूचना और खबर को सूचनायुद्ध में बदला है। इसने संगीत को संगीत नहीं रहने दिया बल्कि संगीत को भी महासंग्राम बना ड़ाला है। अब प्रतियोगिता नहीं होती बल्कि इमेजों का युद्ध हो रहा है। सामान्य बोलचाल तक की भाषा में युद्ध की भाषा घुस आई है। अब युद्ध की प्रकृति मंत्रियों के बयानों से नहीं इमेजों से तय हो रही है। इमेज और स्पीड अब महान हैं। बाकी सब चीजें इनके मातहत हैं।

इमेजों के युद्ध में स्थान का लोप हो जाता है। नाइन इलेवन हम जब देख रहे थे या 1990-91 का इराक युद्ध देख रहे थे तो यही लग रहा था युद्ध हमारे घर में चल रहा है। इमेजों का युद्ध फुसलाता है और दिशाभ्रम पैदा करता है। यह एक तरह से राष्ट्रीय और पराराष्ट्रीय सीमा क्षेत्रों के नियंत्रण और नियमन का काम करता है। नाइन इलेवन या ऐसे ही किसी भी लाइव प्रसारण के जरिए वस्तुतः प्रसारण के जरिए जनता के नियमन का काम राष्ट्र की सीमाओं के परे जाकर किया जाता है। यह इमेजों के जरिए अनुशासित और नियंत्रित करने की कला है। इस काम में सेना,साइबर तकनीक, मीडिया, विशेषज्ञ और नेता का संयुक्त मोर्चा मिलकर काम करता है। इमेज युद्ध के जरिए वे आम जनता में भय की सृष्टि करते हैं और भय को नियंत्रित करते हैं। नाइन इलेवन भय का चरमोत्कर्ष था।

3 COMMENTS

  1. ख़ैर गोडसे और उसके प्रशंसकों का इस देश में कोई भविष्य नहीं है। आतंकवादियों को प्रशिक्षण और हथियार देने वाले देश तक से कोई आता है तो कोई नहीं पूछता कि गोडसे हमारे विचार का था, कहां है उसकी समाधि ?
    अब ओबामा ही आये तो वे भी गांधी-गांधी ही करते रहे या फिर हुमायूं को याद करते रहे।
    मुसलमान की बात का ऐतबार इस मुल्क में ज़रा कम ही किया जाता है, तो क्यों न कोई ग़ैर मुस्लिम ढूंढा जाए। ग़ैर मुस्लिमों में भी अगर कोई भूदेव मिल जाए यानि जिसे हिन्दू भाई भूमि पर साक्षात ईश्वर मानते हैं यानि कि ब्राह्मण तो क्या ही कहने ?
    ख़ुशनसीबी मेरी कि मुझे यह दौलत भी सय्यद साहब के दरे दौलत पर ही नसीब हो गई।
    श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी एक ऐसे ही इन्सान हैं जो अच्छी ख़ासी पढ़ाई लिखाई के बावजूद सच बोलने लगे और बुढ़ापे में बदनाम हो गए। लोग तो यह सोचते हैं कि अगर ब्राह्मण हैं तो कथा सुनाएं, उसे ही सच मान लिया जाएगा लेकिन ऐसी बातें क्यों करते हैं जिनसे देश में सच बोलने की परंपरा चल पड़े और उसका फ़ायदा मुसलमान ले भागें।
    ख़बरदार ! इस देश में सच केवल तब बोला जाए जबकि उसका फ़ायदा सवर्ण हिन्दुओं को मिलता हो या कम से कम मुसलमानों को फ़ायदा हरगिज़ न मिंलता हो।

  2. यदि यह इमेज युद्ध भी था तो भी मानवीय मूल्यों को ध्वशावषेशों men chinhit karne ke pryas nakafi rahe hain .nine/eleven ke pratidanswroop na keval ameriki janta ,afganistan or itr dunia ne bahut kuchh khoya hai .ab log poonchh rahe hain ki tel ke kuon par ameriki aadhipaty ka kya hoga ?
    imejon ke युद्ध को यदि sbhytaon ka sanghrash kaha gaya तो usmen भी kuchh तो sachai ho sakti hai .

Leave a Reply to mohd. Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here