कविता

निहितार्थों का समुद्र

बहते संबंधों की जलधार में

कहीं कुछ था जो अछूता सा था

ह्रदय की गहराइयों में नहीं डूब पाया था वो

और न ही छू पाया था उन अंतर्तम जलधाराओं को

जो बहते चल रही थी मन के समानांतर.

मन करता था चर्चाएं तुमसे

पता है.

पता है यह भी कि शिलाओं पर लिखे जा रहे थे लेख

जिन्हें पढ़ना होगा.

भावों के जीवाश्म ले रहे थे आकार

शब्दों का

इन्हें भी पढ़ना समझना होगा.

पढ़ना होगा इस तरह कि भेदना होगा अर्थों के क्षितिज को

लांघना होगा निहितार्थों के समुद्र को

उसकी गुह्यतम गहराईयों के परिचय के साथ.

कुछ स्पंजी सतहों की तलाश में

संबंधों की यह यात्रा

आगत है या अनागत? घोष है या अघोष?

 

अर्थों के क्षितिज पर आकर भी

दिखाई नहीं देता है

संबंधों की इस यात्रा को भी

और

उसमें निहितार्थ से रचे बसे

उन शब्दों के नवजातों को भी

जिनकी आँखें अभी खुलना बाकी है.