दिल्ली में सरपट दौड़ा भाजपा का विजयरथ

सुरेश हिन्दुस्थानी
नई दिल्ली में तीन नगर निगमों के चुनाव परिणाम ने एक बार यह प्रमाणित कर दिया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है और दिल्ली प्रदेश में सत्ता का संचालन करने वाली आम आदमी पार्टी का ग्राफ लगातार नीचे और बहुत नीचे जाता हुआ दिखाई देने लगा है। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद इस बात के संकेत पहले से ही मिल गए थे कि अबकी बार भी दिल्ली नगर निगम के चुनाव में कमल खिलता हुआ दिखाई देगा और हुआ भी वही। यहां पर सबसे बड़ी दुर्गति कांगे्रस और आम आदमी पार्टी की कही जा सकती है। विधानसभा चुनाव के समय राजनीतिक जगत में धमाकेदार प्रवेश करने वाले अरविन्द केजरीवाल की पार्टी की पराजय उनके भविष्य पर बहुत बढ़ा प्रश्नचिन्ह लगाती हुई नजर आ रही है। वास्तव में देखा जाए तो जनता हर सरकार के काम का आंकलन करती है, और उस आंकलन का सार्थक जवाब चुनाव के समय दिया जाता है। दिल्ली की जनता ने इन चुनावों में केजरीवाल की नीतियों को करारा जवाब दिया है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यों का खुलकर समर्थन दिया है।
जहां तक राजनीतिक चुनावों की बात है, तो लोकतांत्रिक प्रणाली में जिसे सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं, वही जनसेवक बनता है। जय और पराजय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जय होने पर जिम्मेदारी मिलती है और पराजय अपने काम की कमी का बोध कराता है। इसके बाद भी कोई बोध न करे तो यह बहुत बड़ी कमी ही कही जाएगी। लगातार पराजय के बाद कांगे्रस में सुधार की गुंजाइश भी नहीं है। लगता है सारे कांगे्रस नेताओं की आंखों पर हरे रंग का चश्मा लगा हुआ है, जिसके कारण उन्हें ऐसी कोई कमी नजर नहीं आती जिस पर मंथन किया जाए। उनके नेताओं को आज भी अपने नेतृत्व में कोई कमी दिखाई नहीं देती, जबकि चुनाव से पहले कई वरिष्ठ नेताओं ने नेतृत्व पर निशाना साधते हुए कांगे्रस से किनारा कर लिया। जिन कांगे्रस के नेताओं के नेताओं ने अपना चश्मा उतार लिया है, उन्हें यह साफ दिखने लगा है कि अब कांगे्रस में कोई भविष्य नहीं है। जनता केवल मोदी के कार्यों को ही पसंद कर रही है।
दिल्ली के चुनाव परिणामों ने भाजपा को स्थानीय निकायों की सत्ता सौंप दी है, साथ आम आदमी पार्टी को बहुत बड़ा संकेत भी दिया है। केजरीवाल की पार्टी की यह हार उनके बड़बोलेपन की हार ही मानी जाएगी। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए दिल्ली में जिस प्रकार से अराजकता भरे वातावरण का निर्माण किया था, वह उनके काम की प्राथमिकता में शामिल नहीं था। वास्तव में जनता काम चाहती है, नौटंकी नहीं। दिल्ली में केजरीवाल ने कितना काम किया, चुनाव परिणाम के रुप में यह हम सभी के सामने आ चुका है। राजनीतिक रुप से अपरिपक्व अरविन्द केजरीवाल सत्ता संभालने के बाद ही नेरन्द्र मोदी से सीधे टकराहट मोल ले ली। केजरीवाल का सारा ध्यान मोदी का विरोध करने पर ही केन्द्रित हो गया, जबकि देश की जनता प्रधानमंत्री मोदी की मुरीद होती हुई दिखाई दे रही है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में जो भी मोदी का विरोध करेगा, उसे जनता के विरोध का सामना करना पड़ेगा। इस सत्य को न तो आम आदमी पार्टी के केजरीवाल ही समझ पा रहे हैं और न ही देश में अपना प्रभाव खोती जा रही कांगे्रस को दिखाई दे रहा है। कहा जा सकता है जो लोकप्रिय के शिखर पर जा रहा हो, उसका विरोध विरोध करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। वास्तव में अब कांगे्रस और आम आदमी पार्टी को विरोध की शैली का त्याग कर अपनी भूमिका पर मंथन करने की दिशा में जाना होगा, जिस पर वह जाना ही नहीं चाहते।
दिल्ली महानगर पालिका के चुनाव परिणाम के बाद जैसी आशंका व्यक्त की जा रही थी, वही दिखाई दे रहा है। चुनाव में उपयोग किए जा रहे विद्युतीय मतदान यंत्रों पर फिर से सवाल खड़े होने लगे हैं। सवाल खड़े करने वाले राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता अपनी हार को हार नहीं मान रहे हैं, बल्कि वह यह बताना चाह रहे हैं कि हमारी हार ईवीएम मशीनों के कारण हुई है। जबकि सत्यता यही है कि जनता ने उन्हें हरा दिया है। इसके अलावा गंभीरता पूर्वक चिन्तन किया जाए तो एक बात और इस हार को प्रमाणित करती हुई दिखाई देती है। अगर हम चुनाव के बाद किए गए सर्वेक्षणों पर दृष्टि डालें तो यह विदित हो जाता है कि सभी सर्वे संस्थाओं ने भारतीय जनता पार्टी को विजय की तरफ जाते हुए बताया था। यह सर्वे संस्थाएं वास्तव जनता की आवाज के आधार पर ही अपना मत व्यक्त करते हैं। इसलिए विद्युतीय मतदान यंत्रों पर सवाल खड़े करना कहीं न कहीं लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर आघात ही कहा जा सकता है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन सर्वे संस्थाओं ने ईवीएम से पूछकर अपना सर्वे नहीं दिया था। यानी जनता ने जो मत व्यक्त किया, वही ईवीएम ने दिखाया।
दिल्ली में मिली हार के बाद तीसरे पायदान पर पहुंची कांगे्रस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से त्याग पत्र देने का निर्णय किया है। क्या आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल भी अजय माकन के कदम से प्रेरणा प्राप्त करेंगे। वास्तव में त्याग पत्र देने का समय तो अरविन्द केजरीवाल का है, क्योंकि उन्होंने दिल्ली की जनता के विश्वास को खोया है। जनता उनसे बहुत दूर हो चुकी है। ऐसे में नैतिकता तो यही कहती है कि केजरीवाल को पद का त्याग कर देना चाहिए। उनका यह कदम एक जिम्मेदार राजनेता होने का अहसास कराएगा, नहीं तो फिर जनता में यही संदेश जाएगा कि उन्हें कुर्सी से चिपके रहने का शौक है, जिसे वह छोड़ना नहीं चाहते।
चुनाव परिणामों ने एक बात तो स्पष्ट कर दी है कि भारतीय जनता पार्टी का विजय रथ पूरे देश में सरपट दौड़ रहा है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि अन्य दलों की लगाम भी भाजपा के हाथ में दिखाई दे रही है। देश में पहले की राजनीतिक का अध्ययन किया जाए तो यही दिखाई देगा कि पहले कांगे्रस को रोकने के लिए सारे दल एकत्रित होने की कवायद करते थे और अब भाजपा और मोदी को रोकने के लिए भी सुगबुगाहट सुनाई देने लगी है। गैर राजग दलों को शायद यही भय सता रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि उनका राजनीतिक अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। खैर आज भाजपा और नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। जिसे सभी को स्वीकार करना होगा।

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