-जगदीश्वर चतुर्वेदी
भारत में इन दिनों एक ऐसा प्रचारकवर्ग पैदा हुआ है जो आए दिन मार्क्स -एंगेल्स और समाजवाद को गाली देता रहता है। मार्क्स की समझ को खारिज करता रहता है। इनमें से ज्यादातर अज्ञान के मारे हैं। वे सुनी-सुनाई बातों के आधार पर मार्क्स-एंगेल्स के बारे में बातें करते हैं। जो शिक्षित हैं और बुद्धिजीवी हैं उनकी भी यही समस्या है। उनमें भी हिन्दी के बुद्धिजीवियों औरर साहित्यकारों में भी मार्क्स-एंगेल्स के मूल लेखन को लेकर कोई गंभीर विमर्श नहीं हो रहा है बल्कि उलटी सीधी बातें ही ज्यादा हो रही हैं। जिन पार्टियों और विचारकों पर मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी है वे भी अपने दैनन्दिन राजनीतिक कार्यों में व्यस्त हैं अथवा इंटरनेट का उपयोग करना नहीं जानते।
इंटरनेट पर आने वाले युवाओं में जो लोग मार्क्सवाद जानते हैं वे इन दिनों फेसबुक और दूसरे संचार माध्यमों में आए नए सोशल नेटवर्कों में गप्प करने में इस कदर उलझे हैं कि देखकर लगता है कि संचारमाध्यमों का गप्पबाजी के अलावा और कोई उपयोग नहीं हो सकता।
जिसके सामाजिक सरोकार हैं और जो समाज को बदलना चाहता है उसके लिए कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। खासकर जब मानवता संकट में हो वैसी अवस्था में तो मार्क्स के विचारों से संकटों का सामना करने की प्रेरणा मिलती है,समाज के लिए कुर्बानी करने का ज़ज्बा पैदा होता है।
यह हम सब जानते हैं कि कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने भारत को जानने और उसकी समस्याओं को देखने की सीमित साधनों के आधार पर कोशिश की थी। कार्ल मार्क्स ने इटली के साथ भारत की तुलना करते हुए लिखा था ‘‘हिंदुस्तान एशियाई आकार का इटली है : एल्प्स की जगह वहां हिमालय है, लोंबार्डी के मैदान की जगह वहां बंगाल का सम-प्रदेश है, ऐपिनाइन के स्थान पर दकन है, और सिसिली के द्वीप की जगह लंका का द्वीप है। भूमि से उपजने वाली वस्तुओं में वहां भी वैसी ही संपन्नतापूर्ण विविधता है और राजनीतिक व्यवस्था की दृष्टि से वहां भी वैसा ही विभाजन है। समय-समय पर विजेता की तलवार इटली को जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के जातीय समूहों में बांटती रही है, उसी प्रकार हम पाते हैं कि, जब उस पर मुसलमानों, मुगलों, अथवा अंग्रेजों का दबाव नहीं होता तो हिंदुस्तान भी उतने ही स्वतंत्र और विरोधी राज्यों में बंट जाता है जितने कि उसमें शहर, या यहां तक कि गांव होते हैं। फिर भी, सामाजिक दृष्टिकोण से, हिंदुस्तान पूर्व का इटली नहीं, बल्कि आयरलैंड है। इटली और आयरलैंड के, विलासिता के संसार और पीडा के संसार के, इस विचित्र सम्मिश्रण का आभास हिंदुस्तान के धर्म की प्राचीन परंपराओं में पहले से मौजूद है। वह धर्म एक ही साथ विपुल वासनाओं का और अपने को यातनाएं देने वाले
वैराग्य का धर्म है। उसमें लिंगम भी है, जगन्नाथ का रथ भी। यह योगी और भोगी दोनों ही का धर्म है।’’ यहां पर सबसे मार्के की बात है ‘‘संपन्नतापूर्ण विविधता’’, और दूसरी महत्वपूर्ण बात है भारत को पूर्व के इटली के रूप में न देखकर मार्क्स ने आयरलैण्ड के साथ तुलना की है। आयरलैण्ड पीड़ाओं -दुखों से भरा देश था, आज भी है। भारत भी वैसा ही देश है और इसमें इटली जैसी विलासिता न तो मार्क्स के जमाने में थी और न आज है। यह देश आज भी पीडाओं का देश है विलासिता का नहीं।
इसके अलावा हिन्दू धर्म के चरित्र के बारे में कार्ल मार्क्स जो कहा है वह गौर करने लायक है ,उनकी नजर में यह धर्म योगी और भोगी दोनों का है। साथ ही जोर देकर लिखा कि ‘‘ वह धर्म एक ही साथ विपुल वासनाओं का और अपने को यातनाएं देने वाले वैराग्य का धर्म है। ’’
कार्ल मार्क्स ने ये बातें ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन’’ ( 10 जून 1853) नामक निबंध में लिखी थीं । मार्क्स ने भारत में स्वर्णयुग की धारणा का खंडन किया है। भारत में प्रतिक्रियावादी इतिहासकार और राजनेता आए दिन भारत के अतीत में स्वर्णयुग के बारे में कपोल-कल्पनाओं का प्रचार करते रहते हैं। ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखकर मार्क्स ने लिखा था ‘‘मैं उन लोगों की राय से सहमत नहीं हूँ जो हिंदुस्तान के किसी स्वर्ण युग में विश्वास करते हैं।’’
आमतौर पर यह बात प्रचारित की जाती है कि मार्क्स ने अंग्रेजों की भारत के संदर्भ में प्रशंसा की है। यह बात अक्षरशः गलत है । मार्क्स ने लिखा है ‘‘इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि हिंदुस्तान पर जो मुसीबतें अंग्रेजों ने ढाई हैं वे हिंदुस्तान ने इससे पहले जितनी मुसीबतें उठाई थीं, उनसे मूलत: भिन्न और अधिक तीव्र किस्म की हैं। मेरा संकेत उस यूरोपीय निरंकुशशाही की ओर नहीं है
जिसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने एशिया की अपनी निरंकुशशाही के ऊपर लाद दिया है और जिसके मेल से एक ऐसी भयानक वस्तु पैदा हो गई है कि उसके सामने सालसेट के मंदिर के दैवी दैत्य भी फीके पड़ जाते हैं। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की कोई अपनी विशेषता नहीं है, बल्कि डचों की महज नकल है।’’
मार्क्स ने ब्रिटिशशासन को ‘यूरोपीय निरंकुशशाही’ कहा है। यह भारत में एशियाई निरंकुशशाही के ऊपर लाद दी गयी। यानी भारत में दो किस्म किस्म की निरंकुशताओं का यहां की जनता सामना कर रही थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी इस मामले में डचों का अनुकरण कर रही थी। पुरानी डच ईस्ट इंडिया कंपनी के बारे में जावा के तत्कालीन गवर्नर सर स्टैमफोर्ड रैफल्स ने जो कहा था उससे डचों की बर्बरता का सही अंदाजा लगाया जा सकता है। रैफल्स ने जो कहा था उसे ही मार्क्स ने अपने निबंध में उद्धृत किया है।
रैफल्स ने कहा था ‘‘डच कंपनी का एक मात्र उद्देश्य लूटना था और अपनी प्रजा की परवाह या उसका खयाल वह उससे भी कम करती थी जितनी कि पश्चिमी भारत के बागानों का गोरा मालिक अपनी जागीर में काम करने वाले गुलामों के दल का किया करता था, क्योंकि बागानों के मालिक ने अपनी मानव संपत्ति को पैसे खर्च करके खरीदा था, लेकिन कंपनी ने उसके लिए एक फूटी कौडी तक खर्च नहीं की थी। इसलिए, जनता से उसकी आखिरी कौड़ी तक छीन लेने के लिए, उसकी श्रमशक्ति की अंतिम बूंद तक चूस लेने के लिए कंपनी ने निरंकुशशाही के तमाम मौजूदा यंत्रों का इस्तेमाल किया था; और, इस तरह, राजनीतिज्ञों की पूरी अभ्यस्त चालबाजी और व्यापारियों की सर्व-भक्षी स्वार्थलिप्सा के साथ उसे चला कर स्वेच्छाचारी और अर्द्ध-बर्बर सरकार के दुर्गुणों को उसने पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया था।’’
अंग्रेजों के शासन ने किस तरह की तबाही मचायी उसका सटीक वर्णन करते हुए मार्क्स ने लिखा – ‘‘ हिंदुस्तान में जितने भी गृहयुद्ध छिड़े हैं, आक्रमण हुए हैं, क्रांतियां हुई हैं, देश को विदेशियों द्वारा जीता गया है, अकाल पड़े हैं, वे सब चीजें ऊपर से देखने में चाहे जितनी विचित्र रूप से जटिल, जल्दी-जल्दी होने वाली और सत्यानाशी मालूम होती हों, लेकिन वे उसकी सतह से नीचे नहीं गई हैं। पर इंग्लैंड ने भारतीय समाज के पूरे ढांचे को ही तोड ड़ाला है और उसके पुनर्निर्माण के कोई लक्षण अभी तक दिखलाई नहीं दे रहे हैं। उसके पुराने संसार के इस तरह उससे छिन जाने और किसी नए संसार के प्राप्त न होने से हिंदुस्तानियों के वर्तमान दु:खों में एक विशेष प्रकार की उदासी जुड़ जाती है, और, ब्रिटेन के शासन के नीचे, हिंदुस्तान अपनी समस्त प्राचीन परंपराओं और अपने संपूर्ण पिछले इतिहास से कट जाता है।’’
अंग्रेजी शासन की केन्द्रीय विशेषता थी कि उसने ‘‘भारतीय समाज के पूरे ढांचे को ही तोड ड़ाला’’, दूसरा परिणाम यह निकला कि ‘‘हिंदुस्तान अपनी समस्त प्राचीन परंपराओं और अपने संपूर्ण पिछले इतिहास’’ से कट गया।
सुनील जी आप जैसे सुलझे हुए युवाओं से देश को बहुत आशाएं हैं ,औरआपको तो उसमें कराहती हुई नितांत शोषित -पीड़ित सत्तर करोड़ आबादी के लिए मुक्ति का कोई ऐसा हल खोजना चाहिए जो इस विदेशी विचारधारा का विकल्प वन सके .चूँकि गांधीवाद .सामंतवाद तो निपट गए अभी पूंजीवाद का दौर है ये मुझे लगता है की भारत के उस नालंदा विश्वविद्यलय का तो कतईनहीं जिसके प्रति आपको और मुझे बड़ी आस्था है ..ये आप किसी भी स्कूली बच्चे से पूंछेंगे तो वो बता देगा की इस पूंजीवाद का जन्म तो यूरोप में हुआ और अमरीका उसका उस्ताद बन बैठा .अब बचा मार्क्सवाद या साम्यवाद तो वो तो विशुध्द भारतीय है .इसमें चार्वाक से लेकर कणाद और जनक से लेकर कृष्ण सभी ने वही कहा जो मार्क्स और एंगेल्स कह रहे थे .
फर्क सिर्फ इतना है की जिस तरह गिरते हुए सफल को देखकर न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत प्रतिपादित किया और चीजों के धरती की ओर गिरने का रहस्य सुलझाया उसी तरह मर्क्स्स ने यह रहस्य सुलझाया की गरीबी अमीरी का कारन वह नहीं जो हमें अब तक बताया गया बल्कि इस का वैज्ञनिक तथ्यों पर आधारित सिद्धांत भी है .मार्क्स से पहले राजनीत शाश्त्र या समाजशाश्त्र ही होते थे .मार्क्स ने राजनीत विज्ञानं ,समाजविज्ञान की खोज क्र बताया की संजो में वर्गीयता
क्यों हुई ?कैसे हुई ?कब हुई ?कैसे ख़त्म होगी ?जिन सवालों का जबाब ऋषि -मुनि पीर पैगम्बर भगवन की आराधना में ढूँढ़ते रहे उसे मार्क्स ने उसी तरह ढूंडा .जैसे आर्कमिडीज ने आपेक्षित घनत्व का सिद्धांत खोजा था .
चीजें पानी पर क्यों तेरतींहैं?आर्कमिडीज ने उसका खुलासा किया ?उससे पहले लोग इसे भगवान की लीला कहते थे .इसी तरह मार्क्स ने बताया की जब एक ओर धन के पहाड़ ऊँचे होते जायेंगे तो दूसरी ओर जहालत और निर्धनता बढ़ती चली जाएगी .इसमें भगवान का या bahrteey विचारधारा का कोई dosh नहीं ..arthshaashtr का poonji और shrm से kya antarsmbandh है यह dunia को मार्क्स ने ही बताया है .
सर्वहारा को
सही है की कम से कम कुछ लोग समाजवाद को समझने तो लगे है. गिने चुने १० – १२ व्यक्तिओ की एक सोच को *समाजवाद* का नाम दे दिया गया है. हमारी देश की विडम्बना ही है की हम हमेशा दुसरे का ही अनुसरण करते है. ये वाही समाज शास्त्री है तो कभी भारत को अच्छा बोलते है कभी गाली दी है. अक्सर कोसते ज्यादा है.
समाजवाद की जड़ तो हमारे देश से ही फैली है. एक समय हमारे देश में हजारो गुरुकुल थे जहाँ विज्ञानं, समाज सास्त्र आदि पर सिक्षा दी जाती थी. नालंदा विद्यापीठ में जब आग लगाईं गई थी तो कहते है वोह महीनो तक धधकती रही थी.
श्री जगदीश्वर जी ने इस आलेख में जो कुछ लिखा वह अक्षरशः सत्य है ,किन्तु एक और बहुत बड़ी घटना का जिक्र करना या तो उचित नहीं समझा या आलेख के कलेवर से उसका सातत्य नहीं हो सका होगा .कार्ल मार्क्स ने इंग्लेंड प्रवास के दौरान ही .फ्रेडरिक एंगेल्स तथा भारत और आयरलैंड के कतिपय तत्कालीन प्रगतिशील बुद्धीजीवियों की मदद से एक रोजनामचा डायरी के रूप में ईस्ट इंडिया कम्पनी की निरंतर आलोचनाएँ प्रकाशित की थी उन्ही साक्ष्यों के आधार पर कार्ल मार्क्स ने
भारत के प्रथम स्वधीनता संग्राम का मानो आखों देखा हाल उन्होंने अपनी पुस्तक “१८५७ की क्रांति “के रूप में भारत को प्रदान किया था .वाद में कतपय लेखकों ने अपनी रचनाओं में prayh iska ullekh avshy किया है .
इस आलेख में aisa कुछ नहीं था jiski aad में peeliya puran या तथा kathit aastha को koi khatra हो .इस आलेख की vishyvstu behtareen और varg chetna से les hone की aor nirdeshit kartee hui prteet hotee है .
मार्क्स के नास्तिक और स्थूल भौतिकवादी आधे- अधूरे दर्शन पर ज्ञान की सीमाएं समाप्त मानने वाले कठमुल्लाओं से संवाद कहाँ संभव है. ? जिन्होंने पश्चिम और पूर्व के दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन बिना पूर्वाग्रहों के इमानदारी से किया है, वे ही कहने के अधिकारी हैं की कौन सा दर्शन कैसा है. मार्क्स की संकुचित व पूर्वाग्रही दृष्टी से सारे संसार को देखने का प्रयास करने वाले तो कूप मंडूक ही कहलायेंगे. मार्क्स ने अपने सीमित ज्ञान के आधार पर जो विचार दिया वह विचारणीय तो हो सकता है पर अंतिम सत्य नहीं.वामपंथी कहलाने वाले हिंदुत्व वादियों को कठमुल्ला मानते हैं पर ये स्वयं भी तो उनसे कहीं आगे हैं अपनी कट्टर पंथी सोच को लेकर.
– इनका भारत विरोध इतना उग्र है की ये भारत के अतीत में कुछ अच्छा भी है, इसपर सोचना तो क्या सुनने तक को तैयार नहीं. yahee इनकी वैज्ञानिक सोच है ? इनकी वैज्ञानिकता आतंकवादी व साम्प्रदायिक ताकतों के अंधे समर्थन और भारतीयता के अंधे विरोध से आगे बढ़ती तो आज तक नज़र नहीं आई.
– एक अविश्वसनीय पर प्रमाणिक सच यहाँ बतला देना उचित होगा. जिस बोल्शेविक क्रान्ते से ये प्रेरणा लेते हैं वह विश्व के सबसे बड़े पूंजीपतियों की योजना का एक अंग थी. उनका कहना है कि साम्यवादी व्यवस्था में जितनी आसानी से संसाधनों का शोषण हो सकता है वैसा लोकतांत्रिक व्यवस्था में संभव नहीं. यानी अमेरिका हो या रूस, वहाँ के शासक पूंजीपतियों के इशारों पर नाचने वाले hee होते हैं. और puunjeepatiyon के बड़े गुलाम होते हैं वामपंथी शासक.
* इन बातों पर विश्वास आना सचमुच संभव नहीं. प्रमाणों के लिए निम्न पुस्तक मंगवा कर पढ़ें. इसमें लेखक ने apanee बात के समर्थन में २-४ नहीं, १९९ प्रमाण उद्धृत किये हैं.
***जागतिक षड्यंत्र, लेखक : निकोला एम्. निकोलोव, अनुवादक : अशोक विराले ; प्राप्ती स्थान : आजादी बचाओ आन्दोलन प्रकाशन, २१-बी., मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहबाद-211002 . फोन : 09235406243, 09415367653,0532 -2466798 . ई-मेल: aazad.bachao.andolan@gmail.com
इस देश में चिंतको की कमी रही है क्या जो हमें विदेशी विचारकों का सहारा लेना पड़े . हमारी संस्कृति और इतिहास किसी भी देश से ज्यादा पुरातन और समृद्ध है. शायद ही कोई देश होगा दुनिया में जो बाहरी विचारको और उनके समर्थकों को अपने देश में प्रश्रय देता हो .
आपके लेख के अनुसार मार्क्स ने दो विपरीत बात कहीं है पहली वे भारत के स्वर्ण युग के इतिहास पर विशवास नहीं करते दूसरा उनका कहना है अंग्रेजो ने ‘‘भारतीय समाज के पूरे ढांचे को ही तोड ड़ाला’’, जिसके परिणाम स्वरुप यह निकला कि ‘‘हिंदुस्तान अपनी समस्त प्राचीन परंपराओं और अपने संपूर्ण पिछले इतिहास’’ से कट गया अर्थात वे यह स्वीकारते है की भारत की कोई प्राचीन परम्पराए थी लेकिन उनके अनुयायी भारतीय वामपंथी इतिहासकार भारत की प्राचीन परम्पराओं को कपोल कल्पित इतिहास बताते है. रामायण और महाभारत कालीन इतिहास को ग्वाल बालो की कथाये बताते है मार्क्स के इन अमर वाक्यों को वामपंथी इतिहासकारों को याद दिलाने की आवश्यकता है