प्रदीप चन्द्र पाण्डेय
यह एक ऐसा समय है जब विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ ही खबरपालिका पर भी उंगलियां उठ रही है। देश में न्यायालय के फैसलों का सम्मान होता रहा है, निर्णय किसी के पक्ष और किसी के विपक्ष में होता ही है। सौभाग्य यह कि न्यायपालिका स्वयं अवसर प्रदान करती है कि यदि किसी जज के निर्णय से कोई पक्ष असहमत है तो वह ऊपर की अदालतों में अपने पक्ष और सबूत शहादत रखने के साथ ही आरोपों से मुक्त भी हो सकता है। फिर मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. विनायक सेन को रायपुर की एक अदालत द्वारा राजद्रोह का दोषी पाये जाने पर इतना शोर शराबा क्यों किया जा रहा है। मानवाधिकार रक्षा के नाम पर असहमति के जो स्वर उठ रहें हैं और न्यायालय के निर्णय को लेकर सड़क पर बहस चलायी जा रही है बेहतर होता निर्णय को सक्षम न्यायालय में चुनौती दी जाती। संभव है डॉ. विनायक सेन स्वयं को निर्दोष होने का सबूत प्रस्तुत करें और वे आरोपों से मुक्त हो जाय किन्तु जितना शोर शराबा विनायक प्रकरण पर हो रहा है वे मानवाधिकार कार्यकर्ता उस समय मौन क्यों हो जाते हैं जब पुलिस किसी निर्दोष को मुठभेड़ में मार गिराती है। इनका मौन उस समय क्यों नहीं टूटता जब गरीबों के निवालों पर भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिज्ञ टूट पड़ते हैं और गरीबों का हक खुले बाजार में बेच दिया जाता है।
सवाल केवल डॉ. विनायक सेन मात्र का नहीं है देश की जेलों में अनेक लोग केवल इसलिये बंद हैं क्योंकि उनके अभिभावकों के पास इतना भी धन नही है कि वे अपने पाल्यों को जेल से बाहर ला सके। ये मानवाधिकार कार्यकर्ता उस समय तो नजर नहीं आते? भारत देश महान है जहां जनतंत्र के नाम पर किसी भी मुद्दे को हवा दे दिया जाय। किसी के चेहरे पर यह नहीं लिखा होता कि वह दोषी है या निर्दोष, अदालते सबूतों के आधार पर निर्णय देती है।
देश के राजनीतिक आसमान पर अनेक धारा, उप धारा और शस्त्र धाराओं के धुंऐ उठते ही रहते हैं। सरकारों का द्वार सदैव उन लोगों से वार्ता के लिये खुला रहता है जो अपने अधिकारों के लिये हथियार उठा लें। नक्सलवाद, माओवाद सहित अनेक वाद और विवादों के नाम पर आये दिन निर्दोष मारे जाते हैं। कथित विचारधाराओं की धार लेकर उकसाने वाली मण्डलियों के नेता हथियार नहीं उठाते किन्तु वे प्रायोजित हिंसा पर मौन तो रहते ही है वरना देश में सशस्त्र बलों के जवानों की हत्या तो कदापि न होती। किसी फैसले पर तूफान खड़ा कर देना और बात है किन्तु बात केवल एक विनायक पर आकर ठहर क्यों जाती है। अदालतों के फैसलों पर बीच सड़क पर बहसबाजी करना कहां की होशियारी है। क्या ऐसा करके हम न्यायपालिका को अकारण बिना सबूत के कटघरे में खड़ा कर उसके अधिकार क्षेत्र की अवमानना नही कर रहें हैं। विवाद से बेहतर होगा स्वस्थ संवाद की ओर चलें। यह भारत में ही संभव है कि आजादी के 6 दशक बाद भी हम ‘जन गण मन अधिनायक’ और बन्दे मातरम् पर भी विवाद खड़ा करते रहते हैं और उस पर तंत्र मौन रहता है। बेहतर होगा कि डॉ. विनायक प्रकरण को न्यायपालिका के माध्यम से ही सुलझाया जाय। नारेबाजी, बयानबाजी और शोर शराबा किसी समस्या का हल नहीं है। बेहतर होता डॉ. विनायक सेन पर शोर मचाने वाले लोग ऐसे लोगों के लिये भी संघर्ष करते जिनके जीवन के विजय पथ मार्ग को दरिद्रता और अभाव ने घेर रखा है। अदालती फैसलों को सड़कों पर घसीटा गया तो इसके परिणाम न देश के लिये बेहतर है न समाज के। यदि डा0 विनायक निर्दोष है तो वे भी उसी तरह जन मानस में पूज्य हो सकते हैं जैसा कि पूर्व में अनेक महापुरूषों सुकरात, गांधी, शहीदे आजम भगत सिंह के साथ हुआ। फिर इस पर शोक कैसा।
(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के प्रभारी सम्पादक हैं)
आप बहुत ही सवेंदनशील विषय को ले कर लिख रहे है. आप से सहमती मेरी मजबूरी भी है क्योकि आप बिलकुल सह कह रहे है. मगर बहुत ही विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ की अगर सत्ता को ( चाहे घर की हो या राज्य की या देश की ) अगर वो अन्याय करती रहे और मेरी अरजिया, मेरी गुजारिशे मेरा गिडगिडाना दिखे ही नहीं तो मुझे क्या करना चाहिए. और इसी तरह अपनी जान दे देनी चाहिए . क्या हिंसा मेरी मजबूरी नहीं है क्योकि ताकतवर (सत्ता) अत्यंत नशे मैं होती है . उसे किसी का दर्द कहा महसूस होता है.