“ऋषि दयानन्द का नर्मदा के स्रोत की ओर प्रस्थान की घटना उन्हीं के शब्दों में”

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मनमोहन कुमार आर्य,

रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) ने पं. भगवद्दत्त जी, रिसर्च स्कालर लिखित एक लघु पुस्तक ‘‘ऋषि दयानन्द स्वरचित जन्म चरित्र (लिखित कथित)’’ सन् 1986 में प्रकाशित की है। यह इस पुस्तक का दसवां संस्करण है। यह जन्म चरित्र पूना कथ्य सहित उनके द्वारा थ्योसोफिकल सोसायटी को लिखकर प्रेषित जन्म चरित्र विषयक लेखों को मिलाकर तैयार किया गया है। इस पुस्तक से ऋषि की उपर्युक्त विषयक घटना प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे पुरानी बातें स्मृति में आने के साथ यह लाभ भी होगा कि जो कुछ शब्द व बातें किंचित विस्मृति को प्राप्त हो चुकी हैं, वह भी स्मरण हो सकेंगी और ऋषि के दृण निश्चय व निर्भीकता के भी दर्शन होंगे। नये पाठक जिन्होंने ऋषि दयानन्द का जन्म चरित्र नहीं पढ़ा है, इस लेख से उनको भी लाभ होगा।

 

ऋषि लिखते व कहते हैं ‘‘(चैत्र 1914) वहां से आगे चला, और वह मार्ग पकड़ा कि जिस ओर पर्वत थे, और जहां से नर्मदा निकली है, अर्थात् नर्मदा के स्रोत की ओर यात्रा आरम्भ की। मैंने कभी एक बार भी किसी से मार्ग नहीं पूछा, प्रत्युत दक्षिण की ओर यात्रा करता हुआ चला गया। शीघ्र ही मैं एक ऐसे उजाड़ निर्जन स्थान में पहुंच गया, जहां चारों ओर बहुत घने वन और जंगल थे।वहां जंगल में अनियमित दूरी पर बिना क्रम झाड़ियों के मध्य में कई स्थानों पर मलिन और उजाड़ झोपड़ियां थी। कहीं-कहीं पृथक्-पृथक् झोंपड़ियां भी दृष्टिगोचर होती थीं। उन झोंपड़ियों में से एक पर मैंने किंचित् दुग्धपान किया, और पुनः आगे की ओर चल दिया। परन्तु इसके आगे लगभग पौन कोस चलकर मैं पुनः एक ऐसे ही स्थान पर जा पहुंचा, जहां कोई प्रसिद्ध मार्ग आदि दिखाई न देता था। अब मेरे लिये यही उचित प्रतीत होता था कि उन छोटे-छोटे मार्गों में से (जिन्हें मैं नहीं जानता था कि कहां जाते हैं) कोई एक चुनूं, और उस ओर चल दूं। सुतरां मैं शीघ्र ही एक निर्जन वन में प्रविष्ट हुआ। उस जंगल में बेरियों के बहुत वृक्ष थे। परन्तु घास इतना घना और लम्बा था कि मार्ग सर्वथा दृष्टिगोचर न होता था। वहां मेरा सामना एक बड़े काले रीछ से हुआ। वह पशु बड़े वेग और उच्च स्वर से चीखा। चिंघाड़कर अपनी पिछली टांगों पर खड़ा हो मुझे खाने के निमित्त उसने अपना मुख खोला। कुछ काल तक मैं निष्क्रिय स्तब्धवत् खड़ा रहा। पश्चात् शनैः-शनैः मैंने अपने साटे को उसकी ओर उठाया। उससे भयभीत हो वह उलटे पांव लौट गया।  उसकी चिंघाड़ व गर्ज ऐसी बलपूर्वक थी कि ग्रामवाले, जो मुझे अभी मिले थे, दूर से उसका शब्द सुनकर लट्ठ ले शिकारी कुत्तों सहित मेरी रक्षार्थ वहां आये। उन्होंने मुझे यह समझाने का परिश्रम किया कि मैं उनके साथ चलूं। वे बोले-‘‘इस जंगल में यदि तुम कुछ भी आगे बढ़ोगे, तो तुम्हें संकटों का सामना करना पड़ेगा। पर्वत वा वन में बहुतसे भयानक क्रूर और हिंसक जंगली पशु, अर्थात् रीछ, हाथी, शेर आदि तुमको मिलेंगे। मैंने उनसे निवेदन किया कि-‘‘आप मेरे कुशलमंगल का कुछ भय करें, क्योंकि मैं कुशल मंगल और रक्षित हूं।मेरे मन में तो यही सोच थी कि किसी प्रकार नर्मदा का स्रोत देखूं। अतः समस्त भय और कष्ट मुझे अपने संकल्प से न रोक सकते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी भयानक बातें मेरे लिये कोई भय उत्पन्न नहीं करतीं, और मैं अपने संकल्प में पक्का हूं, तो उन्होंने मुझे एक दण्ड दिया, जो मेरे सोटे से बड़ा था, और जिससे मैं अपनी रक्षा करूं। परन्तु मैंने उस दण्ड को तुरन्त अपने हाथ से फैंक दिया।”यहां पर पुस्तक का ऋषि दयानन्द जी लिखित व कथित आत्मकथ्य विवरण समाप्त होता है। इस घटना को पढ़ कर ऋषि दयानन्द की निर्भीकता और दृण निश्चय के तो दर्शन होते ही हैं साथ ही रीछ का मिलना, स्वामी दयानन्द को देखकर चिंघाड़ना व गर्जना, अपने पैरों पर खड़े हो जाना, स्वामी दयानन्द को खाने के लिए अपना मुख खोलना, अपना सोटा उस रीछ की ओर करना, रीछ का भयभीत हो जाना और लौट जाना पढ़कर लगता है कि इस घटना में ऋषि दयानन्द का योग बल व अहिंसा की सिद्धि की स्थिति प्रतीत होती है। इस घटना के बाद अपने जीवन में स्वामी दयानन्द जी इससे भी अधिक खतरों से कभी भयभीत नहीं हुए। ऋषि दयानन्द में जोधपुर जाते समय जो आत्मबल व निर्भीकता दिखाई देती है वह इस नर्मदा स्रोत की ओर जाते समय सन् 1857 में भी उनमें वैसी ही विद्यमान दिखाई देती है। स्वामी जी ने गा्रम वालों को कहा ‘‘आप मेरे कुशलमंगल का कुछ भय करें, क्योंकि मैं कुशल मंगल और रक्षित हूं। यहां रक्षित शब्द का प्रयोग उन्होंने ईश्वर से रक्षित हैं, बताने के लिए किया प्रतीत है। यह उनके ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास को प्रकट करता है। हमने स्वयं व पाठकों के लाभ के लिए इस घटना को यहां प्रस्तुत किया है। आशा है पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

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