वेदों ने गौ माता को अवध्या कहकर पूजनीया माना है

राकेश कुमार आर्य

वैदिक संस्कृति संसार की सर्वोत्तम संस्कृति है। इस संस्कृति ने अहिंसा को धर्म के दस लक्षणों में जीवन को उन्नतिशील बनाने वाले दस यम नियमों में प्रमुख स्थान दिया है। इसने दुष्ट की दुष्टता के दमन के लिए मन्यु की अर्थात सात्विक क्रोध की तो कामना की है, परंतु अक्रोध को धर्म के ही दस लक्षणों में से एक माना है। विधाता के विधान से रची गयी इस सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को वैदिक संस्कृति ने अपने लिए मित्र समझा है। वेद ने मनुष्य से अन्य प्राणियों के प्रति मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे-अर्थात प्रत्येक प्राणी को अपना मित्र समझो, ऐसा व्यवहार करने का निर्देश दिया है। इसलिए अपने मित्रों के बीच रहकर कोई अनपेक्षित और अवांछित प्रतियोगिता वेद ने आयोजित नही की, अपितु सबको अपने अपने मर्यादा पथ में जीवन जीने के लिए स्वतंत्र छोड़ा। एक मनुष्य की योनि ऐसी है कि जो कर्मयोनि भी है और भोगयोनि भी है इसलिए अपने मर्यादा पथ में रहकर अन्य जीवों के साथ मित्रवत व्यवहार करना मनुष्य का सबसे प्रमुख कार्य है। अत: वेद ने मनुष्य से अपेक्षा की कि सबसे अधिक तुझे ही मर्यादाओं का पालन करना है। इसीलिए वेद  ने मनुष्य से कहा है-न स्रेधन्तं रमिर्नशत (सा. 4/43/2) कि यदि तू हिंसक बनेगा तो तू मोक्षधन कभी  प्राप्त नही कर सकेगा।

मा हिंसी तन्वा-अर्थात अपने शरीर से कभी भी हिंसा मत करो। यजुर्वेद का यह भी निर्देश है कि पशून पाहि अर्थात हे मनुष्य तू क्योंकि सबसे श्रेष्ठ है, अत: सभी प्राणियों की, पशुओं की रक्षा कर। ऐसे में गाय की हिंसा की तो बात ही छोड़िए, अन्य पशुओं की भी रक्षा करने की बात वेद करता है।

वैदिक व्यवस्था को कलंकित करने और वेदों को ग्वालों के गीत कहकर, अपयश का पात्र बनाकर चलने वाले भारत के तथाकथित विद्वानों ने गाय का मांस खाने की आज्ञा वेदों में होनी बतायी है। ऐसी धारणा वास्तव में इन शत्रु विद्वानों की शत्रु भावना तथा इन्हें भारतीय संस्कृति और संस्कृत के व्याकरण का ज्ञान न होने के कारण बतायी गयी है। वास्तव में वेदों ने ही गाय का इतना महिमामंडन किया है कि गाय को गोमाता कहने या मानने का विचार ही लोगों को वेद के गाय के प्रति श्रद्घाभाव से मिला है। अथर्ववेद (सा. 4/21/5) में कहा गया है कि-गावो भगो गाव इन्द्रो मे-अर्थात गायें ही भाग्य और गायें ही मेरा ऐश्वर्य हंै। इससे अगले मंत्र में अथर्ववेद में आया है भद्रम गृहं कृणुभ भद्रवाचो ब्रहद्वो वय उच्यते सभासु अर्थात मधुर बोली वाली गायें घर को कल्याणमय बना देती हैं। सभाओं में गायों की बहुत कीर्ति कही जाती है। इसीलिए (ऋग्वेद 2/35/7) में कहा गया है कि स्व आ दमे सुदुधा पस्य धेनु: अर्थात अपने घर में ही उत्तम दूध देने वाली गौ हो।

ऐसी गाय घर में होनी इसलिए आवश्यक है कि उसके होने से दुर्बल भी हष्ट पुष्ट और श्रीहीन भी सुश्रीक, सुंदर, शोभायमान हो जाते हैं इसीलिए घरों में गोयालन को अच्छा माना जाता था। गाय को मनुष्य अपना धन मानता था और प्राचीन काल में गायें विनिमय का माध्यम भी थीं। इसलिए गाय को धन मानने की परंपरा भारत के देहात में आज तक भी है। ऐसा धन, जो मोक्ष प्राप्ति में सहायक हो, क्योंकि इस धन से ही हमें सात्विकता मिलती है, कांति मिलती है, और आत्मिक आनंद मिलता है, इसलिए  भारत का प्रत्येक नागरिक प्राचीन काल में गोपति या गोपालक बनने में अपना बड़प्पन मानता था। आज तक भी गोपाल नाम हमारे यहां रखा जाता है। गाय का घी, मूत्र, गोबर दूध, दही सभी बड़ा उपयोगी  होता है। आज के विज्ञान ने भी यह सिद्घ कर दिया है कि गोमूत्र का नित्य सेवन करने से कई कैंसर जैसी घातक बीमारियां हमें लग ही नही सकतीं। इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने प्राचीन काल में समझ लिया था। इसीलिए वेद ने हमें गाय के प्रति असीम श्रद्घाभाव रखने का उपदेश दिया है।

ऋग्वेद (01/101/15) में कहा गया है कि गाय का नाम दिति वधिष्ट-अर्थात अघ्न्या गाय को कभी मत मार। इसी मंत्र में गाय को अवध्या इसलिए कहा गया है कि यह रूद्रदेवों की माता, वसुदेवों की कन्या आदित्य देवों की बहन और अमृतस्य नाभि-अमृत्व का केन्द्र है। 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य पूर्वक तप करने वाला वसु, 36 वर्ष तक इसी प्रकार साधना करने वाला रूद्र तथा 48 वर्ष तक तप करने वाला आदित्य कहा जाता है। सुसंस्कृत समाज के ये ही तीन वर्ग हैं।

निघण्टु में गौ शब्द के विभिन्न अर्थ किये गये हैं। इनमें से प्रथम वाणी-अंतरात्मा की पुकार, दूसरा मातृभूमि और तीसरा गौ नाम का पशु है। अंतरात्मा की आवाज के अनुसार कार्य करने पर मनुष्य की दिनानुदिन उन्नति होती  रहती है। तब गौ-हमारी अंतर्रात्मा हमारे लिए माता के समान हितकारिणी बन जाती है। आत्मा की शासक अग्नियों (वृत्तियों) से प्रकट होने के कारण यह पुत्री के समान पवित्र है। मर्यादा पालने के लिए बहन के  समान साहस बढ़ाती है, अत: इस गौ की आत्मा की पुकार की तू कभी हिंसा मत कर।

हमारा यह शरीर मु_ी भर मिट्टी से बना है, और अंत में मातृभूमि की इसी मिट्टी में मिल जाएगा। इसलिए हम पर मातृभूमि का यह ऋण है। इसी संबंध के कारण हमें वेद (अथर्व. 12/1/12) ने निर्देश दिया है :-

माता भूमि: पुत्रोअहम् पृथिव्या:।

अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। यह मातृभूमि भी हमें बहुत कुछ देती है, इसलिए इसके प्रति भी सदा निष्ठावान रहना हमारा कर्त्तव्य है।

गौ के भीतर भी माता और मातृभूमि के समान ही असाधारण गुण होते हैं, जिनसे हमारी बुद्घि तीव्र होती है और शरीर हष्ट पुष्ट स्वस्थ रहता है। उसी के दिये हुए बछड़ों से हम खेती करते हैं और उसी की गोबर से हमें खाद मिलती है।

इस प्रकार गाय हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आधार है। इसलिए उसके प्रति भी हमें अहन्तव्य रहने का आदेश दिया गया है। अथर्ववेद (1/4/16) में तो गाय का वध करने वालों को त्वा सीसेन विध्याओ-अर्थात शीशे की गोली से बींधने की बात कही गयी है। जबकि ऋग्वेद में आरे मोहनमुत पुरूषघ्नम्। अर्थात पुरूष को हानि पहुंचाने वालों से भी पहले गौ के मारने वाले को नष्ट करने की बात कही गयी है।

अथर्व (9/4/20) गाव सन्तु प्रजा: सन्तु अथाअस्तु तनूबलम्। अर्थात घर में गायें हों, बच्चे हों और शरीर में बल हो, ऐसी प्रार्थना की गयी है।

जबकि शतपथ ब्राह्मण में (7/5/2/34) में कहा गया है-सहस्रो वा एष शतधार उत्स यदगौ:। अर्थात भूमि पर टिकी हुई जितनी जीवन संबंधी कल्पनाएं हैं उनमें सबसे अधिक सुंदर सत्य, सरस, और उपयोगी यह गौ है। इसमें गाय को अघ्न्या बताया गया है। सहस्र-अनंत और असीम है। जो शतधार-सैकड़ों धाराओं वाला है। कोलंबस ने सन 1492 में जब अमेरिका की खोज की तो वहां कोई  गाय  नही थी, केवल जंगली भैंसें थीं। जिनका दूध निकालना लोग नही जानते थे, मांस और चमड़े के लिए उन्हें मारते थे। कोलंबस जब दूसरी बार वहां गया तो वह अपने साथ चालीस गायें और दो सांड लेता गया ताकि वहां गाय का अमृतमयी दूध मिलता रहे।

सन 1525 में गाय वहां से मैक्सिको पहुंची। 1609 में जेम्स टाउन गयी, 1640 में गायें 40 से बढ़कर तीस हजार हो गयीं। 1840 में डेढ़ करोड़ हो गयीं। 1900 में चार करोड़, 1930 में छह करोड़ साढ़े छियासठ  लाख और 1935 में सात करोड़ 18 हजार 458 हो गयीं। अमेरिका में सन 1935 में 94 प्रतिशत किसानों के पास गायें थीं, प्रत्येक के पास 10 से 50 तक उन गायों की संख्या थी।

गर्ग संहिता के गोलोक खण्ड में भगवद-ब्रह्म-संवाद में उद्योग प्रश्न वर्णन नाम के चौथे अध्याय में बताया गया है कि जो लोग सदा घेरों में गौओं का पालन करते हैं, रात दिन गायों से ही अपनी आजीविका चलाते हैं, उनको गोपाल कहा जाता है। जो सहायक ग्वालों के साथ नौ लाख गायों का पालन करे वह नंद और जो 5 लाख गायों को पाले वह उपनंद कहलाता है। जो दस लाख गौओं का पालन करे उसे वृषभानु कहा जाता है और जिसके घर में एक करोड़ गायों का संरक्षण हो उसे नंदराज कहते हैं। जिसके घर में 50 लाख गायें पाली जाएं उसे वृषभानुवर कहा जाता है। इस प्रकार ये सारी  उपाधियां जहां व्यक्ति की आर्थिक संपन्नता की प्रतीक है, वहीं इस बात को भी स्पष्ट करती हैं कि प्राचीन काल में गायें हमारी अर्थव्यवस्था का आधार किस प्रकार थीं। साथ ही यह भी कि आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्तियों के भीतर गो भक्ति कितनी मिलती थी? इस प्रकार की गोभक्ति के मिलने का एक कारण यह भी था कि गोभक्ति को राष्ट्रभक्ति से जोड़कर देखा जाता था। गायें ही मातृभूमि की रक्षार्थ अरिदल विनाशकारी क्षत्रियों का, मेधाबल संपन्न ब्राह्मण वर्ग का, कर्त्तव्यनिष्ठ वैश्य वर्ग का तथा सेवाबल से युक्त शूद्र वर्ग का निर्माण करती थीं।

मेगास्थनीज ने अपने भारत भ्रमण को अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में लिखा है। वह लिखते हैं कि चंद्रगुप्त के समय में भारत की जनसंख्या 19 करोड़ थी और गायों की संख्या 36 करोड़ थी। (आज सवा अरब की आबादी के लिए दो करोड़ हंै) अकबर के समय भारत की जनसंख्या बीस करोड़ थी और गायों की संख्या 28 करोड़ थी। 1940 में जनसंख्या 40 करोड़ थी और गायों की  संख्या पौने पांच करोड़ जिनमें से डेढ़ करोड़ युद्घ के समय में ही मारी गयीं।

सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1920 में चार करोड़ 36 लाख 60 हजार गायें थीं। वे 1940 में 3 करोड़ 94 लाख 60 हजार रह गयीं। अपनी संस्कृति के प्रति हेयभावना रखने के कारण तथा गाय को संप्रदाय (मजहब) से जोड़कर देखने के कारण गोभक्ति को भारत में कुछ लोगों की रूढ़िवादिता माना गया है। जबकि ऐसा नही है।

गाय के प्रति मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने कहा कि फरमाया रसूल अल्लाह ने गाय का दूध शिफा है और घी दवा तथा उसका मांस रोग  है। अर्थात मांस खाना रोगों को बुलाना है, इसलिए बात साफ है कि गोवध वहां भी निषिद्घ है। इसी बात को मुल्ला मोहम्मद बाकर हुसैनी का कहना है कि गाय को मारने वाला, फलदार दरख्त को काटने वाला और शराब पीने वाला कभी नही बख्शा जाएगा।

जनाब मुजफ्फर हुसैन जी ने एक किताब लिखी है ‘इसलाम और शाकाहार’ उसमें उन्होंने प्रमाणों से सिद्घ किया कि इस्लाम में भी गोवध की मनाही है। भारत की प्राचीन काल से ही जीवन जीने की नीति रही है कि आत्मवत सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति-अर्थात जो सब प्राणियों को अपने समान जानता है, वही ज्ञानी है, बात साफ है कि जब आप सबको अपने समान ही जानोगे या मानोगे तो फिर किसी की हिंसा करने का प्रश्न ही कहां रह गया? नीतिकार ने स्पष्ट किया है कि आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् अर्थात जो व्यवहार या कार्य या बात आपको अपने लिए अच्छी नही लगे उसे दूसरों के साथ भी मत करो। अब जब हम अपनी मृत्यु हिंसा से नही चाहते हैं तो हमें दूसरों के साथ भी हिंसात्मक व्यवहार नही करना चाहिए। इसी बात को यजुर्वेद (12/32) ने मा हिंसी तन्वा प्रजा: कहकर हमें निर्देशित किया है कि प्रजाओं को अर्थात किसी भी प्राणी को अपने शरीर से मत मार। यह निर्देश वेद का हिंसा निषेध है।

ऋग्वेद (1/161/7) के निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभि: मंत्र का अर्थ सायणाच्चार्य ने गौ का चमड़ा उचेड़ो किया है। जिससे गोहत्या का आदेश देने का कलंक वेद के माथे लगाने का कुछ लोगों को अवसर मिल गया है। अब जिस गौ को  वेद अघ्न्या कह रहा है, उसे ही यहां मारने की बात कहे तो तार्किक सा नही लगता। वास्तव में जैसा कि हमारे द्वारा पूर्व में ही कहा गया है कि गौ का एक अर्थ वाणी भी है, तो यहां इस मंत्र में हमें यही अर्थ निकलना होगा। जिससे निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभि: का अर्थ होगा वाणी को चर्म्म रहित करके बोलो। गौ का एक अर्थ बाल भी है, तो बात साफ हुई कि वेद यहां बाल की खाल उतारने की बात कह रहा है।

बाल की खाल उतारने का अर्थ है कि विषय की गहराई तक जाओ, तर्क जब तक शांत न हो जाए, तब तक अनुसंधान चलता रहना चाहिए। वेद विज्ञान पर आधारित गंथ है, इसलिए तर्कपूर्ण अनुसंधान की ओर संकेत करते हुए, मनindian cowनशील होकर तर्कपूर्ण अनुसंधान के माध्यम से विभिन्न शिल्पों में कुशलता प्राप्त करने का उपदेश इस मंत्र में दिया गया है।

इस प्रकार वेद पर गोहत्या का आरोप लगाना या वेदों में गोहत्या का आदेश खोजना अपनी भारतीय संस्कृति केा अपमानित करने के समान है। आज जब सारा विश्व भारत की ओर देख रहा है तब हमें वेदों के सही अर्थ करके विश्व की ज्ञान विपासा को शांत करना ही अभीष्ट मानना चाहिए।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

15 COMMENTS

  1. ====>”उसी के दिये हुए बछड़ों से हम खेती करते हैं और उसी की गोबर से हमें खाद मिलती है। इस प्रकार गाय हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आधार है।”——लेखक
    —————————————–
    उपरोक्त विधान का ही विस्तार कर, सशक्त समर्थन करना चाहता हूँ, निम्न आर्थिक तथ्यों द्वारा।
    —————-
    एक अति महत्त्व का बिन्दू, भविष्य की, दूर – दृष्टि से देखने का अभिगम टाला नहीं जा सकता। आगे की पीढियों का भला भी हमें सोचना होगा।
    (१) आज ही प्रतीत हो रहा है, कि पेट्रोल, डिजल इत्यादि के भाव निरन्तर बढते ही जाएंगे। क्यों कि लाखों वर्षोंसे प्रस्तरों में गडे हुए– पेट्रोल डिजल इत्यादि की, उपलब्ध ऊर्जा-तेलों का जथ्था समाप्त होता जा रहा है।प्रबुद्ध पाठक जानते ही होंगे।
    (२) और कुछ न्यूनाधिक दशकों में अवश्य (हाँ, अवश्य) और निश्चित ही, यह जथ्था समाप्त ही हो जाएगा। और इसी लिए, उनका मूल्य बढता ही जाएगा। चाहे किसी का भी शासन चल रहा हो; यह ऊर्जा का अंत एक दिन तो अवश्य होना ही है।
    ********(३) ऐसी अवस्था में,—- भारत का कृषक —–खेती के लिए,—–प्रायः, बैलोंपर ही निर्भर होगा। ट्रैक्टर से खेती करना —-महँगा ही नहीं—– अति महँगा होगा।
    (४) —तो फिर बैल कहाँसे लाओगे? ट्रैक्टर से खेती अति मह्ँगी होगी। खाद्यान्न सस्ता उपजाने में आपको बैल ही काम आएंगे। और कोई पर्याय शायद ही मिले।
    (५) जी हाँ तब, हमें हमारी करूणामयी,(कभी उसकी आँखे देखना) गौमाता के दिए हुए बैल ही काम आएंगे। बेचारे गीली-सुखी घास खाकर ऊर्जा का निर्माण करते हैं।कहो, बुल पॉवर (जैसे होर्स पॉवर)
    गुजराती में बैल को “बलद” -या “बळद” (बल देनेवाला) नाम ही है।
    ——–
    (६) ट्रैक्टर से खेती बहुत बहुत ही महँगी होगी। मुद्रा भी (प्रायः) परदेश ही जाएगी। तब हमें बैल, गौमाता से ही प्राप्त होंगे।
    (७)और सचमुच आज विग्यान प्रमाणित कर रहा है, कि भारतीय गौ के, पंचगव्य के गुण विशेष होते हैं। डॉ. राजेश कपूर सही सही चेतावनी भरी टिप्पणी दे रहे हैं। उनका भी समर्थन करता हूँ।

    मेरी गम्भीर चेतावनी ====>इसी लिए गौंओं को और गोवंश की हत्त्या अपने ही पैर पर कुल्हाडी मारने जैसा ही है।
    आप सभी पढे लिखे प्रबुद्ध पाठक ही हैं। सोच लीजिए।हो सकता है, मुझसे कुछ छुट गया हो? कृपया,
    स्मरण कराएं। मैं गौभक्त शुद्ध शाकाहारी हूँ, पर तर्क ही सामने रखा है।

    लेखक अच्छे अच्छे विषय चुनकर लिखते हैं। उन्हें बधाई और धन्यवाद।

    • श्र्यध्ये डॉक्टर साहब,सादर प्रणाम
      विषय विस्तार के से कुछ चीजे छूट जाती हैं तो कुछ छोडनी पड़ जाती हैं ।फिर भी आलेख अपेक्षा से बड़े हो जाते हैं ।आपने जो कुछ लिखा हैं उसी चिंतन को मैं आलेख मे डालना चाहता था।अब उसे आपने डालकर जो उपकार किया हैं उसके लिए हृदय से आभारी हूँ।मैं इन लेखो को एक लघु पुस्तिका के रूप मे भी प्रकाशित करना चाहता हूँ उसमे आपके व डॉक्टर कपूर साहब के मार्गदर्शन को यथावत स्थान दिया जाएगा ताकि अधिक से अधिक लोगो को लाभ मिल सके। आपकी स्वीकृति की अपेक्षा रहेगी।
      आप गौ भक्त ओर शाकाहारी हैं उसी का तो प्रणाम हैं कि आपके चिंतन मे पवित्र विलक्षन्ता हैं।सादर।

  2. आर्य जी गो पर एक और विद्वत्तापूर्ण लेख के लिए हार्दिक साधुवाद.
    बीनू बहन क्षमा पूर्वक कहूंगा कि आप भी तो केवल कुछ करने का उपदेश मात्र दे रही हैं ? कर क्या रही हैं? पर मेरे विचार में सकारात्मक ढंग से अपनी बात कह कर लोगों को कुछ अछा करने के लिए प्रेरित करने में तो गलती नहीं है. आर्य जी और उन जैसे लोग भी यही तो कर रहे हैं.शायद करना तो आप भी यही चाहती हैं पर अधिक संवेदनशीलता के कारण सकारात्मक ढंग से प्रेरक सन्देश देने की बजाय नकारात्मक भाषा का प्रयोग कर रही हैं. इसी लिए आर्य जी के अति उत्तम प्रयासों का वस्तुपरक मूल्यांकन नहीं कर पा रहीं. बहन समस्याएं तो बहुत हैं पर कोई छूमंतर से तो समाधान होगा नहीं. हर बड़ी समस्या के समाधान के लिए जनमत बनाना पडता है, जिससे अनेक लोगों का सहयोग मिल सके. लेखकों का महत्वपुर्ण कार्य अपनी लेखनी के द्वारा जनमत बनाने का होता है. आर्य जी जैसे सुधि विद्वान लेखक वही कर रहे हैं. हो सके तो उनके प्रयासों को सराहें व सकारात्मक सुझाव देकरउनके सहयोगी बनें.

    • आदरणीय कपूर साहब,सादर प्रणाम
      बहन बीनू जी के प्रति जिस विनम्रता से आपने अपना पक्ष रखा हैं वह निश्चय ही शिक्षाप्रद हैं ।हमने भव्य भवनो मे रहकर सभ्यता का तो विकास कर लिया पर संस्कृति का विनाश कर लिया। हमारी संस्कृति हर पग पर मर्यादित ओर शालीन व्हावहार निष्पादन की अपेक्षा करती हैं।आपने उसी उच्चता को बनाए रखा हैं। आपका प्रेम निरंतर मिल रहा हैं,इसके लिए हृदय से आभारी हूँ।आपके द्वारा दिये गए मार्गदर्शन को अन्य देशवाशियों तक पहुंचाने का प्रयास करूंगा।स्नेहमयी टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार।
      सादर ।

      • परम आत्मीय व आदरणीय बंधू आर्य जी,
        आप गौ पर जो पुस्तक आदि लिखने का मन बना रहे हैं, उसके लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं, बडा शुभ संकल्प है. यदि इसमें मैं कुछ सहयोग कर सकूँ तो भारी प्रसन्नता होगी व इसे अपना सौभाग्य मानूंगा. एक २४ पृष्ठ की पुस्तिका इसी विषय पर कल तक छ्प कर आने वाली है. वह पुस्तिका डाक से या पी.डी.ऍफ़ या दोनों भेजी जा सकती हैं. चाहें तो मेल या फोन पर संपर्क करें. मो:09418826912 ,

      • डॉ. राजेश कपूर जी की वास्तविक गौशालाओं की जानकारी, पंचगव्य की वैद्यकीय जानकारी, एवं परदेशी, विशेषतः भारतीय गौ दुग्ध पर चल रहे ऑस्ट्रेलियन संशोधनों की जानकारी, और समग्र विषय में, समर्पित भाव सहित भारत के प्रदेशों की गौशालाओं, और आयुर्वेद की जडी बुटियों के विषय की जानकारी भी, मेरे अनुमानसे विशेष है। वे प्रत्यक्ष प्रवास करके जानकारी रखते हैं। मात्र, कागजी घोडे नहीं दौडाते।
        ऐसी जानकारी भी, और भारत के प्रदेशों में, आपका (डॉ. कपूर का) भ्रमण इत्यादि, मेरी सीमित जानकारी के अनुसार, अतुल्य है। वे अच्छे संगठक भी है। उनकी सराहना में, बहुत कुछ कहा जा सकता है। अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ। कहीं मुझ पर ………?

    • राकेश जी गाए के गोबर में लक्ष्मी का वास है इसका वर्णन वेदों और पुराणों में कहां कहाँ है कृपया

  3. आश्चर्य की बात है कि सनातन हिन्दू धर्म में मांसाहर को पूर्णतः वर्जित नहीं किया है, इसे केवल तामसिक माना है। मांस, मैथुन और मद्य को स्वाभाविक प्रवृत्ति माना गयाहै। इस पर नियन्त्रण करना कल्याण के लिये जरूरी कहा है-
    न मांस-भक्षणे दोषः न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥ (मनु स्मृति ५/५६)
    गौ मुख्यतः किरण शक्ति है जिससे सौर-मण्डल में सृष्टि होती है। निर्माण का आरम्भ परमेष्ठी मण्डल या ब्रह्माण्ड से हुआ। इसका निर्माण क्षेत्र वेद में कूर्म (= कर्म करने वाला) कहा है तथा ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में गोलोक (केवल न्युट्रिनो किरणों का क्षेत्र, गैलेक्सी का आभामण्डल) कहा है। इससे जो आकाशगंगा बनी वह उसका उत्पाद या भूरिशृङ्ग (भूरिशः = अतिरिक्त, अधिक) है।
    यज्ञशिष्टामृतभजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। (गीता ४/३१)
    (ऋक् १/१५४)-प्र तद् विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमो कुचरो गिरिष्ठाः।
    यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा॥२॥
    यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति।
    य उ त्रिधातु पृथिवीमुतद्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा॥४॥
    तदस्य प्रियमसि पाथो अश्यां नरो यत्र देव यवो मदन्ति।
    उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः॥५॥
    ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
    अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥६॥
    सा या बभ्रूः पिङ्गाक्षी (गौः)। सा सोमक्रयण्यथ या रोहिणी सा वार्त्रघ्नी यामिदं राजा संग्रामं जित्वोदाकुरुते ऽथ या रोहिणी श्येताक्षी सा पितृदेवत्या यामिदं पितृभ्यो घ्नन्ति। (शतपथ ब्राह्मण ३/३/१/१४)
    पृथ्वी पर भी जितने यज्ञ हैं उनका उत्पाद या बचा हुआ भाग यज्ञ रूपी गौ का भूरिशृङ्ग है। गीता में भी यज्ञ चक्र से बचा हुआ अन्न ही खाने केलिये कहा है। यज्ञशिष्टासिनःसन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषैः। (गीता ३/१३)ऋग्वेद में ५ मन्त्र भूरिशृङ्ग गाय के विषय में हैं। इसी के अनुवाद रूप कुरान में भी ५ पंक्तियों में भूरी गाय (भूरिशृङ्ग) को खाने केलिये कहा है।
    कुरान में फ़ातिहा के बाद प्रथम और सबसे बड़ा अध्याय अल-बकरा है। यहां बकर का अर्थ चतुष्पाद ब्रह्म या कोई भी चौपाया है। तुर्की भाषा में बकर = गौ, बकरीद = गौ पूजा। अरबी में गौ = ऊंट या भेड़। भारत में बकर = बकरी। गो पूजा के क्रम में कृषि उत्पाद खाने के लिये कहा है तथा भूरी गाय (उसका उत्पाद) का प्रयोग कहा है-
    2/23-Who made the earth a bed for you, and the heaven a roof, and caused water to come down from the clouds and therewith brought forth fruits for your sustenance.
    2/62-O Moses, surely we will not remain content with one kind of food; pray, then, to thy Lord for us that He may bring forth for us of what the earth grows-of its herbs and its cucumbers and its wheat and its lentils and its onions’ He said, “Would you take in exchange that which is worse for that which is better?
    यज्ञ के वेद यजुर्वेद का आरम्भिक श्लोक ही गाय को अघ्न्या कह रहा है।
    ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु १/१)
    यहां सौरमण्डल में उसकी किरणों का प्रवाह ही ईषा-दण्ड है जिसका आकार ३००० सूर्य व्यास अर्थात् यूरेनस कक्षा तक कहा गया है, जिसका पता २००८ में नासा के कासिनी यान द्वारा लगा। पृथ्वी पर मुख्य यज्ञ खेती है जिस पर बाकी यज्ञ आधारित है। उसी अर्थ में यज्ञ द्वारा अन्न का उत्पादन गीता में कहा गया है।
    अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥१४॥ (गीता अध्याय ३)
    =यज्ञ से पर्जन्य, पर्जन्य से अन्न आदि।
    यहां ईषा-दण्ड हल का तीक्ष्ण भाग है जो मिट्टी को जोत कर वपन योग्य बनाता है। कृषि के लिये भी पशु गौ अवध्य है तथा सभी यज्ञ रूपों में भी अवध्य है।
    केवल उत्तर रामचरित के एक प्रसंग के आधार पर पुणे के भण्डारकर अनुसन्धान संस्था ने प्रचार किया है कि ऋषि लोग गोमांस खाते थे। वसिष्ठ जब दशरथ के पास आये, तो उनको वत्सतरी दिया गया जिसके ग्रहण करने पर मड़-मड़ की ध्वनि हुयी। इसका अर्थ किया गया कि वत्सतरी = २ वर्ष का बछड़ा, तथा जिन्दा बछड़ा देखते ही उसे वसिष्ठ जी चबाने लगे जिससे हड्डियों के टूटने की ध्वनि हुयी। पता नहीं भण्डारकर या मार्क्सवादी लेखकों का मुंह कितना बड़ा है कि वे जिन्दा गाय देखते ही उसे चबाना शुरु कर देते हैं। लेकिन इस के बाद दशरथ ने कहा कि आपने मधुपर्क ग्रहण किया, अब प्रसंग पर बात करें। इस पर भण्डारकर ने जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया। यह पूरे विश्व में प्रचलित है कि कोई भी यात्री आता है तो उसे प्रथम मीठा और जल देते हैं क्योंकि रास्ते की थकावट के लिये ग्लुकोज जरूरी है तथा पानी की कमी के लिये जल देते है। पानी और चीनी की कमी के बाद यह लेने पर पेट में हलकी सी गति होती है जिसे मड़-मड़ कहा गया है। इसे बच्चे भी पचा सकते हैं, अतः इसे वत्सतरी भी कहा जाता है। चीनी के साथ थोड़ा नमक भी दिया जाता है, अतः गुजराती में नमक को भी मीठु कहते हैं।

    • बहुत ही सुंदर और ज्ञानवर्धक टिप्पणी आपने की है। लोगों के लिए आपकी टिप्पणी जहाँ तार्किक है वहीं मेरे आलेख को पूर्ण कराने में सहायक है। देश में उत्तम है ऐसे लोगों की संख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है जो वेदों में गौ मास भक्षण के मंत्र ढूंढते है इसलिए चिंतन आवश्यक है।कई लोगों की दृष्टि में ऐसा चिंतन अनर्दल हो सकता है,लेकिन यह भी सत्य है कि चिंतन से ही समाधान निकाल सकता है।
      सादर

      • धन्यवाद। मैंने वेद के केवल ज्योतिषीय भाग पर काम किया है। मेरा वेबसाइट http://www.scribd.com/arunupadhyay देख सकते हैं। कभी कभी सम्बन्धित विषयों पर मन्तव्य देता हूं।

  4. वेदों की बात मै नहीं जानती पर मेरे प्यारे गौभक्तों सड़क पर फिरती गौमाताओ केलियें किसी वृद्धाश्रम का प्रबंध करो नहीं तो ये कोरे प्रवचन बंद करो।

    • आ० बीनु जी,
      अच्छा हो गऊ सेवा के विषय में और गौ वंश को बचाने के विषय में अपनी कार्यनीति और कार्ययोजना को स्पष्ट करें जिससे प्रवक्ता के पाठकों को लाभ मिल सके। जिनहे आप उपदेश कह रही हैं इन्ही उपदेशों से संस्कृति बचा करती है और हर बच्चा उपदेशों के सहारे ही बच्चे से आदमी बन जाता है। हम समाधान खोजें और उन्हे कार्यरूप में परिणत करें। मैं आपकी अच्छी योजना पर कार्य करने के लिए तैयार हूँ।

      • जिन गौभक्तों को मेरे वक्तव्य से आपत्ति है मै उनसे क्षमा मांगकर कहती हूँ कि मै गौ भक्त नहीं हूं न मुझे किसी शास्त्र या वेद की जानकारी है। मेरे लियें गाय भैंस बकरी या हाथी घोड़ों का समान महत्व है।सड़कों पर विचरती गाय भैंसों और उनके तथाकथित संरक्षकों से मुझे नाराज़गी है, ये पशुजो यातायात के लियें कठिनाई बनते हैं। मेरे लिये धर्म कर्तव्य और ईमानदारी से जीना है। जन्म से हिन्दू हूं, इसलिये हिन्दुत्व जीने की शैली है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।जिन गौशालाओं का ज़िक्र आपने किया है पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि अभी भी सड़कों पर गाय भैसे घूमती हैं। हमारे लियें भैस भी दूध उपलब्ध कराती हैं, उनका भी ध्यान रखना चाहिये।

    • बीनु जी, नमस्कार।
      कुछ ढूंढने पर मुझे निम्न जालस्थल मिला। प्रायः २७३ गौशालाएँ हरयाणा में ही है। आप देखने की कृपा करें।आपकी, यह बात सही ही है, कि दुर्भाग्य से सडक पर गौएं घुमती दिखाई अवश्य देती है।

      https://pashudhanharyana.gov.in/html/gaushala.htm

    • (भारतीय गौ का दूध) —-सुबोध कुमार जी का आलेख मिला, जिसमें भारतीय गौओं के दूध की ऑस्ट्रेलिया में २८ रूपये प्रति लिटर
      ऑस्ट्रेलियन गौ का दूध, ११ रूपए प्रति लिटर
      इस लिए भी ऑस्ट्रेलिया भारत से गौ खरीद रहा है, ऐसा सुना हुआ है।
      शायद डॉ. राजेश कपूर के ही किसी लेखन में, यह सच प्रतीत होता है।
      उनके शब्द निम्नांकित है।
      Milk in India
      (Subodh Kumar, )
      The current market price of A2 milk (milk of India
      n breeds of cows) in Australia is Rs28 per liter
      as compared to Rs11 per liter for A1
      commonly made available dairy milk

      It will be very short sighted on the part of Indian Milk planners to continue to ignore this natural commercial and social advantage with Milk of Indian breeds of cows

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