
मनोज ज्वाला
स्वातंत्र्योत्तर भारत की समस्त समस्याओं के मूल में यहां की
वर्तमान प्रदूषित राजनीति है और इस राजनीतिक प्रदूषण का एक बडा कारण
धर्मनिरपेक्षता है । धर्म के प्रति निरपेक्ष और मजहब के प्रति सापेक्ष
रहने की दुर्नीति से युक्त वर्तमान भारतीय राजनीति की यह अनर्थकारी
धर्मनिरपेक्षता पर्यावरण के लिए भी घातक है । यह कथ्य विस्मयकारी जरूर
है, किन्तु इसके तथ्यों पर गौर करने से एक ऐसे सत्य से आपका साक्षात्कार
होगा, जो इस धर्मप्रधान सनातन राष्ट्र को ही मुंह चिढाते रहता है ।
हमारी संसद की लोकसभा के अध्यक्ष पद पर जब वामपंथी नेता सोमनाथ
चटर्जी आसीन थे, तब उन्होंने सभी लोकसभाई सांसदों के सरकारी आवासीय
परिसरों से पीपल, वरगद व नीम के तमाम वृक्षों को कटवा दिया था । कारण यह
बताया गया था कि इन वृक्षों पर भूत-प्रेत रहा करते हैं । किन्तु आप समझ
सकते हैं कि आत्मा और पुनर्जन्म को भी नहीं मानने वाली वामपन्थी सोच के
उस तर्क का आधार भूत-प्रेत की मान्यता नहीं थी, बल्कि उन वृक्षों से जुडी
हुई ‘हिन्दू-आस्था’ के प्रतीकों को ध्वस्त करने वाली धर्मनिरपेक्षता ही
थी । और , चूंकि धर्मनिरपेक्षता को चमकाने के लिए हिन्दू-आस्था का कतल
हुआ था, इस कारण वह खबर मीडिया की सुर्खियों में नहीं आ सकी थी । यह तो
महज एक उदाहरण है , जबकि ऐसी ही सोच से ग्रसित शासन-प्रशासन-तंत्र की यह
धर्मनिरपेक्षता देश भर में न जाने कितने ऐसे वृक्षों पर कहर ढा चुकी होगी
अब तक ।
सन १९७६ के आपात-शासनकाल में इंदिरा-कांग्रेस की सरकार द्वारा
संविधान के ४२वें संशोधन से भारत के शासन में जिस धर्मनिरपेक्षता का
प्रावधान किया गया, उसे व्यवहार में इस तरह से लागू किया जाता रहा है कि
धार्मिक महत्व के उन तमाम कार्यों को सनातन धर्म से सम्बद्ध होने मात्र
के कारण बन्द कर दिया गया, जो महज हिन्दू-समाज के लिए ही नहीं, बल्कि
समस्त मानव जातियों व प्राणियों के लिए भी कल्याणकारी हैं । ध्यातव्य है
कि सनातन धर्मधारी हिन्दू समाज का जीवन-दर्शन समस्त विश्व-वसुधा के
कल्याण की ओर उन्मुख रहा है, जिसके आधार पर सहस्त्राब्दियों से
स्थापित-विकसित भारतीय सभ्यता-संस्कृति व जीवन-पद्धति में पर्यावरण के
संरक्षण एवं उसकी गुणवत्ता का अभिवर्द्धन करते रहने वाले तमाम
वृक्षों-वनस्पतियों, नदियों-पर्वतों, जलाशयों-जंगलों आदि समस्त प्राकृतिक
उपादानों की पूजा-आराधना की जाती रही है । पीपल, वरगद , नीम आदि वृक्षों
को उनमें सम्पूर्ण समष्टि व सृष्टि के कल्याणकारी-लाभकारी गुण होने के
कारण उन्हें देवत्व से जोड कर उनके रोपण-पोषण-रक्षण को पुण्यदायक कार्य
माना गया है और इसी कारण इन्हें नष्ट करना पापकर्म समझा गया है ।
बाग-बगीचे लगाना तथा कुंआं-बावडी खुदवाना और गौशालाओं का निर्माण कराना
यहां आदि काल से पुण्य के कार्य माने जाते रहे हैं, जो समाज के द्वारा तो
किये ही जाते थे, शासन की ओर से भी प्रोत्साहित-क्रियान्वित किये जाते थे
। प्रायः हर ग्राम-नगर में गौचर-भूमि होती ही थी, जो शासन से संरक्षित व
कर-मुक्त हुआ करती थी । बाग-बगीचों में अथवा सडकों के किनारे या अन्य
सार्वजनिक स्थानों पर पीपल वरगद नीम आदि वृक्ष जो सर्वाधिक
आक्सीजन-उत्सर्जक व पर्यावरणशोधक होते हैं, सो समाज व शासन दोनों की ओर
से लगाए जाते थे । जिस पौधे को ‘विष्णुप्रिया’ मान कर हिन्दू-परिवार आज
भी अपने घर-आंगन में पूजते हैं , उस तुलसी की छोटी-बडी वाटिका प्रायः हर
विद्यालय-कार्यालय-परिसर के किसी न किसी भाग में अवश्य हुआ करती थी ।
किन्तु धर्मनिरपेक्षता जब लागू हो गई, तब इन सब कार्यों के प्रति शासन
उदासीन हो गया और इन्हें हिन्दू धर्म के कर्मकाण्ड मान कर इनसे विमुख
होते-होते इनका विरोधी भी हो गया । परिणमतः हिन्दुओं से पूजित ऐसे
प्राणवायु-उत्सर्जक व पर्यावरणशोधक वृक्षों-पौधों के रोपण-पोषण-रक्षण को
शासन से प्रोत्साहन मिलना बन्द हो गया , तब जनसंख्या के अनुपात में इनकी
संख्या नगण्य सी हो गई । आज इन वृक्षों से केवल और केवल हिन्दू-समाज का
ही वास्ता रह गया है, शासन की ओर से इन वृक्षों का रोपण-पोषण थम सा गया
है ; रक्षण तो कतई नहीं हो रहा है, उल्टे सार्वजनिक स्थानों से इनका
उन्मूलन जरूर किया जाता रहा है ।
मालूम हो कि शासन का धर्मनिरपेक्षीकरण कर दिए जाने के बाद
विभिन्न राज्य-सरकारों के वन-विभागों की ओर से वृक्षारोपण कार्यक्रम के
तहत इन कल्याणकारी वृक्षों के बजाय भारी मात्रा में जल का शोषण करने वाले
‘युक्लिप्टस’ और ‘गुलमोहर’ रोपे जाने लगे । फलतः ये दोनों वृक्ष
जहां-जहां बहुतायत संख्या में रोपे गए वहां का भूमिगत जल-स्तर इतना नीचे
चला गया कि भूमि बंजर हो गई । वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि एक पीपल-वृक्ष
या एक वटवृक्ष एक किलोमिटर की परिधि को प्रदूषण-मुक्त रखने की क्षमता से
सम्पन्न होता है । प्राणवायु (ऑक्सीजन) का उत्सर्जन पीपल से १००% , बरगद
से ९०% एवं नीम से ८०% होता है, जो अन्य तमाम वृक्षों की त्लना में
सर्वाधिक है । बावजूद इसके , इन वृक्षों के रोपण-पोषण-रक्षण की कोई
सरकारी योजना बनती ही नहीं है , क्योंकि इनके हिन्दुओं से पूजित होने के
कारण धर्मनिरपेक्षता बाधक बन जाती है । कहने को तो प्रतिवर्ष
लाखों-करोडों की लागत से वृक्षारोपण किये-कराये जा रहे हैं, किन्तु पीपल
व वरगद के पौधे नहीं, बल्कि पर्यावरण-शोधी गुणवत्ता से विहीन पौधे ही
रोपे जा रहे हैं । बढती जनसंख्या और उसके कारण बढते प्रदूषण के अनुपात
में इन पर्यावरण-शोधक वृक्षों की संख्या घटते जाना और इनके
रोपण-पोषण-रक्षण की चिन्ता सिर्फ धार्मिक लोगों द्वारा किया जाना जितना
चिन्ताजनक है, उससे ज्यादा चिन्ताजनक अधार्मिक-मजहबी लोगों की आबादी का
बढना तथा इन वृक्षों का कतल करने की वकालत करने वाली धर्मनिरपेक्षता का
फलना-फुलना है ।
इसी तरह , गोचर-भूमि को भी शासनिक संरक्षण मिलना अब प्रायः बन्द
ही होता जा रहा है । उस पर शासन के द्वारा सामुदायिक भवन व
चारदीवारी-युक्त कब्रिस्तान बनाये जाने लगे हैं । उधर बढती जनसंख्या की
रोकथाम के वास्ते परिवार-नियोजन के उपाय भी ‘पर्यावरण-पूजकों’ द्वारा ही
अपनाये जाते रहे हैं, ‘पर्यावरण-प्रदूषकों’ में तो आबादी बढाने की होड
मची हुई है, जिसे रोकने के मार्ग में यह धर्मनिरपेक्षता ही बाधक बन जाया
करती है; क्योंकि सीमित आबादी मजहबियों को स्वीकार नहीं है । आबादी रोकने
के प्रति भी शासन का सारा जोर पर्यावरण-पूजकों पर ही होता है , जबकि
शासनिक धर्मनिरपेक्षता के कारण वह आबादी निर्बाध गति से लगातार बढ रही
है, जो पर्यावरण-शोधन के प्रति कथित मजहबी मान्यताओं की वजह से बाधक ही
बनी रहती है । ऐसे में पर्यावरण शोधक परम्पराओं, कार्यों, प्रतीकों,
प्रतिमानों को धर्मावलम्बियों से पूजित होने के कारण एकबारगी समाप्त ही
कर देने अथवा उनके संवर्द्धन के मार्ग में रोडे अटकाने और
पर्यावरण-प्रदूषक मजहबी प्रवृतियों को प्रोत्साहित-संरक्षित करने वाली
ऐसी धर्मनिरपेक्षता का त्याग कर प्रतिकिलोमिटर एक-एक पीपल वरगद नीम का
रोपण-पोषण-रक्षण करने और जनसंख्या-नियंत्रण कार्यक्रम समान रुप से सभी
धार्मिक व मजहबी समुदायों पर लागू करने के प्रति शसन को गम्भीर होना ही
होगा ।
• मनोज ज्वाला;