म्यांमार में बढ़ता तनाव

-अंकुर विजयवर्गीय-
myanmar

म्यांमार में साम्प्रदायिक हिंसा के बाद शिविरों में शरण लिए लोगों के बीच राहत वितरण का काम कर रहे कई अंतरराष्ट्रीय संगठन कथित रूप से भेदभाव बरत रहे हैं, जिससे सभी समुदाय के पीड़ितों को शिविरों में भी तनाव के माहौल में जीने को विवश होना पड़ रहा है। तनाव को देखते हुए सरकार ने क्षेत्र में कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए सेना की और टुकड़ियां भेज दी हैं।

म्यांमार में आधिकारिक तौर पर 135 समुदाय हैं। इनमें बौद्धों की संख्या सबसे अधिक है। देश के राखिना प्रांत में सबसे अधिक आबादी बौद्धों की है और उसके बाद रोहिंग्या मुसलमानों की है। इन दोनों पक्षों के बीच हाल के वर्षों में हिंसा ने उग्र रुप लिया, जिसके कारण दंगे भड़के। रोहिंग्या समुदाय के लोग मुस्लिम हैं, इसलिए पाकिस्तान तथा बांग्लादेश सहित अन्य कई देशों में सक्रिय मुस्लिम आतंकवादियों ने उनका हितैषी बनकर उन पर डोरे डालने का भरपूर प्रयास किया, जिसके कारण कई रोहिंग्या युवक आतंकवादियों के झांसे में आ गए और कुछ ने पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में आतंकवाद का प्रशिक्षण भी लिया। देश में सबसे पहले 2012 में राखिना प्रांत में सांप्रदायिक दंगे भड़के, जिसके कारण बड़ी संख्या में लोगों ने घरों से पलायन शुरु कर दिया। इन दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए थे। करीब दो वर्षों से पीड़ित शिविरों में है। इन शिविरों में एक लाख 70 हजार से अधिक लोग डेरा डाले हुए है। पिछले दो वर्षों से उनके पुश्तैनी गांवों में स्थिति सामान्य नहीं हुई है। इसलिए वे अपने घरों को नहीं लौट रहे हैं। शिविरों में बड़े स्तर पर अंतरराष्ट्रीय संगठन राहत सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं। देश के पश्चिमी तट पर बने इन शिविरों में बडी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान मौजूद हैं। एक आंकडे के अनुसार शिविरों में एक लाख 34 हजार रोहिंग्या मुसलमान है, 20 हजार बौद्ध, पांच हजार परंपरागत राखिना तथा शेष अन्य समुदाय के लोग हैं।

मार्च के आखिरी दिनों में इन शिविरों में उस समय हलचल मच गई, जब कुछ अंतरराष्ट्रीय राहतकर्मियों ने आरोप लगाया कि बौद्ध समुदाय के लोगों ने उनके साथ मारपीट की है और राहत वितरण के कार्य में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। इस खबर के बाद अमेरिका ने स्थिति का जायजा लिए बिना हालात पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए बयान जारी कर दिया कि राखिना प्रांत की राजधानी सितवे तथा आसपास के इलाकों में कानून व्यवस्था ठीक नहीं है, इसलिए सरकार को तत्काल इस क्षेत्र में पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था के इंतजाम कर लेने चाहिए। इस बीच म्यांमार सरकार ने भी कुछ विदेशी संगठनों पर राहत के नाम पर भेदभाव करने का आरोप लगाया है। सरकार ने राहत कार्य में जुटे विदेशी एनजीओ मेडिसियन सेन फट्वटीयर (एमएसएफ) पर यह कहते हुए पिछले माह प्रतिबंध लगा दिया था कि यह संगठन रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति आकर्षित है और राहत शिविरों में भेदभाव बरत रहा है। संगठन के खिलाफ स्थानीय लोगों ने भी आरोप लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया था और उसके कामकाज की शिकायत स्थानीय प्रशासन से की थी।

सरकार का कहना है कि इस संगठन ने शिविर क्षेत्र में राहत का काम करने के लिए हुए समझौते का उल्लंघन किया है। एमएसएफ का कहना है कि म्यांमार सरकार ने सही स्थिति की जांच पड़ताल किए बिना उसके खिलाफ प्रतिबंध लगाने जैसे कठोर कदम उठाए हैं। संगठन ने कहा है कि उसके कार्यकर्ता राहत शिविरों में मेडिकल सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं। संगठन ने इसे सरकार का एकपक्षीय फैसला बताया है और कहा कि एमएसएफ पश्चिमी तट पर लगे राहत शिविरों में काम करने वाला सबसे बडा मेडिकल एनजीओ है। राहत क्षेत्र में उनके नौ कस्बों में मेडिकल कैंप चल रहे है, जहां से घरों से बेघर हुए हजारों लोगों को बिना भेदभाव के चिकित्सकीय सहायता दी जा रही है।

स्थानीय लोगों ने विदेशी एजेंसियों पर यह भी आरोप लगाया है कि राहतकर्मी उनकी भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ कर रहे है। उन्होंने कहा कि माल्टसर जैसे यूरोपीय संगठन ने अपने कार्यालयों पर लगे स्थानीय लोगों के झंडों को उतारा है और उन्हें सड़कों पर फेंका है। कई भवनों पर उनके झंडे उल्टे लटके हुए है। इस तरह की घटनाएं बांग्लादेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिल रही है। बौद्ध समुदाय के लोगों ने आरोप लगाया है कि विदेशी सहायता कार्यकर्ता जानबूझकर उनके झंडे को अपमानित कर रहे है। विदेशी संगठन इन आरोपों का अनर्गल बता रहे है। माल्टसर इंटरनेशनल के महासचिव ने बयान जारी करके इन आरोप को गलत बताया और कहा कि उनका संगठन समर्पित भाव से काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि उनके लोग राजनीति, धर्म, क्षेत्रवाद अथवा किसी अन्य तरह के भेदभाव के बिना लोगों की मानवीय आधार पर मदद कर रहे हैं। संगठन की महासचिव इंगो ने स्पष्ट किया कि उनके लोग अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर सभी पीड़ितों को राहत पहुंचाने में लगे हैं और किसी भी समुदाय के प्रतीक को अपमानित करना उनका मकसद नहीं है।

बौद्ध और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हिंसा की घटनाओं के कारण करीब पांच दशक से सैन्य शासन के बाद लोकतंत्र की राह पर बढ रहे म्यांमार की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित हुई है, जिसका उसके विकास कार्य पर भी असर पड़ा है। म्यांमार सरकार ने इस छवि को ठीक करने का बराबर प्रयास किया है, लेकिन हाल की घटनाओं ने उसके इस प्रयास पर पानी फेर दिया है। बड़ी संख्या में विदेशी राहतकर्मी अपना काम छोड़कर भाग रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि बौद्ध समुदाय के लोग उनके साथ मारपीट कर रहे है।

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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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