विश्ववार्ता

भारत-चीन संबंध

संदीप कुमार श्रीवास्तव

भारत-चीन संबंधों को न सिर्फ दुनिया में बल्किं भारत और चीन में भी प्रायः सीमा विवाद के चश्में से देखा जाता रहा है। यही कारण रहा कि जब चीनी प्रधानमंत्री दिसम्बर के दूसरे सप्ताह में भारत की यात्रा पर आये तो मीडिया सहित सभी का ध्यान सीमा विवाद और उस पर होने वाली प्रगति पर केंद्रित रहा, लेकिन विश्व क्षितिज पर तेजी से उभरती इन दोनों महाशक्तियों को इस बात का आभास था कि उनके पारम्परिक सम्बन्ध न सिर्फ उनके अपने लोगों को, बल्कि तीसरी दुनिया को एक ऐसा अवसर प्रदान कर सकते हैं जो एक समतामूलक और संतुलित विश्व-व्यवस्था की स्थापना कर सकता है। नतिजन दोनों महाशक्तियों ने सीमा विवाद को परे हटाते हुए परस्पर सहयोग के उन मुद्दो पर ध्यान केंद्रित किया जो आने वाले समय में दोनों देशों के पारंपरिक संबंधों में विश्वास को और गहरा तथा स्थायी बना सकें।

चीनी प्रधानमंत्री ने भारत को इस बात के लिए आश्वस्त किया कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ तथा सुरक्षा परिषद में भारतीय भूमिका को विस्तृत रुप में देखना चाहते हैं, तथा न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भी वह उसके मार्ग को निश्कंटक बनाना चाहता है। इसके साथ ही साथ दोनो देशों ने असैन्य परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भी सहयोग पर सहमति जाहिर की। संयुक्त युध्दाभ्यास तथा परस्पर व्यापारिक सहयोग को जो 1999 में महज 2 करोड़ डालर था, उसे 2010 में 60 करोड़ तक ले जाने पर सहमति जताई। इसके साथ ही साथ सीमा विवाद के स्थायी,तर्कसंगत तथा परस्पर लाभप्रद समाधान हेतु प्रतिनिधि दल का गठन और रेल, आवास पुनर्वास तथा भूप्रबंधन जैसे 12 अन्य समझौते पर भी सहमति हुई। इन आंकड़ों से इतर ज्यादा महत्वपूर्ण रहा दोनो शासनाध्यक्षों का परस्पर एक दूसरे के प्रति व्यवहार व गर्मजोशी। चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारतीय प्रधानमंत्री ने रात्रि-भोज पर आमंत्रित किया और उनके स्वागत के लिए खड़े रहे और डॉ. मनमोहन सिंह की शालीनता और सादगी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना बड़ा भाई कहकर संबोधित किया। यात्रा के समापन अवसर पर चीनी प्रधानमंत्री का यह कथन कि- दुनिया में आज हो रहे बदलाव ने दोनो देशों को यह ऐतिहासिक मौका दिया है कि वे 21वीं सदी को विकास और शांति की ओर ले जाए।

इसका स्पष्ट संकेत है कि दोनों देश इस बात को समझ चुके हैं कि आने वाले समय में आपस में मिलकर दुनिया को दिशा दे सकते हैं और विश्व-व्यवस्था में बढ़ रहे असंतुलन चाहे वह पर्यावरण असंतुलन, चरमपंथ, उग्रवाद, आतंकवाद या एक राष्ट्र की मनमानि को रोकने में और अब तक कमजोर कहे जाने वाले राष्ट्रों की आवाज को शक्ति प्रदान कर सकते हैं। साथ ही साथ मिसाल बन सकते हैं परस्पर सहयोग से क्षेत्रीय संतुलन को स्थापित करने में।