राजनीति

सांस्कृतिक आत्ममुग्धता से बाहर निकल शक्ति संचय को प्राथमिकता दे भारत

india-cultural[1]चीन को आखिर क्यूं बर्दास्त करता है भारत?
जब विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने राज्य सभा में सूचित किया कि चीन ने अरुणाचल प्रदेश में एक सिंचाई परियोजना को एशियन डेवलपमेंट बैंक द्वारा मदद दिये जाने पर अपनी आपत्ति जताई है, तब शायद किसी के भी चेहेरे पर आश्चर्य या उतेजना के भाव नही आये। और आते भी कैसे,हमें आदत पड़ चुकी है अपनी ऐसी-तैसी कराने की। मंत्री ने कहा कि चीन द्वारा ऐसा करना बहुदेशीय संस्था के नियमों का खुला उल्लंघन है और सबने सहमति में सर हिलाया। यह बात जबकि भारत ने एडीबी के सभी सदस्य देशों को साफ कर दिया है कि बैंक द्वारा दिये जा रहे सहयोग में राजनीतिक कारणों को नहीं घसीटा जाना चाहिये। चीन को छोड़कर एडीबी के कार्यकारी बोर्ड के सभी सदस्य देशों ने भारत में एडीबी की योजनाओं को अपना समर्थन दिया। चीन ने एडीबी बोर्ड में भारत के लिये राष्ट्र सहयोग रणनीति (CPS 2009-12) को अपना समर्थन इस आधार पर नहीं दिया कि इसमें एक सिंचाई और नहर प्रबंधन योजना अरुणाचल प्रदेश में स्थित है….जिस पर चीन अपना दावा करता है.”
हम पहले भी ऐसे हालात देख चुके हैं जब चीन के कुटनीतिक प्रयास हमसे ज्यादा कारगर तरिके से अमल मे आते हैं।
जबकि भारत ऐसे मौकों को चुक जाता है। हमारी परेशानी यह है कि हम सांस्कृतिक आत्ममुग्ध सता के धरातल से उपर उठते हीं नही। हम स्वयं को महान मान कर अपनी पिठ स्वयं ठोकते रह्ते हैं। कभी कभी हमारे इस मिथ्या अहंकार को सहलाने वाले बयान अन्य राजनायिक देते रह्ते हैं, जिससे हमें यह भान होता रहे कि हमारे विश्व महाशक्ति बनने की संभावनाए मौजूद हैं। परन्तु हालात तब हास्यस्पद हो जाते हैं , जब कभी हमारी संस्कृति में आस्थावान देश मुसीबत में होता है, और हम बैकफ़ुट पर जाकर गली में खेलने की कोशिश करते नज़र आते हैं।
तब तिब्बत की बात थी, कभी भुटान की बात होगी। जिस देश के विदेश नीति का सबसे बड़ा प्रणेता, नेहरु यह बयान देतें हों कि, चीन के द्वारा काबिज़ भूमि महज़ एक अनुपयोगी और बंज़र जमीन का टुकड़ा भर है, तो उसके
अनुया्यिओं से क्या अपेक्षा की जा सकती हैं।
बेहतर होगा कि सांस्कृतिक आत्ममुग्धता से बाहर निकल शक्ति संचय को प्राथमिकता दे भारत।