1965 के भारत-पाक युद्ध की स्वर्ण जयंती

अशोक “प्रवृद्ध”

bharat pak

भारत- पाकिस्तान के मध्य 1965 में हुए ऐतिहासिक युद्ध की 50 वीं वर्षगांठ अर्थात स्वर्ण जयंती के अवसर पर केंद्र की मोदी सरकार के द्वारा विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किया जाना अपने सैन्य गौरव को स्मरण करने और उससे सीख लेने के लिए एक सूझ-बूझ पूर्णयुक्त सही फैसला है । एक महीने तक चलने वाले इन स्मरणोत्सव की शुरूआत 28 अगस्त से हुई है, जो 26 सितम्बर तक चलेगा। आयोजन में सशस्त्र बल की तीनों सेनाएं हिस्सा ले रही हैं । 28 अगस्त शुक्रवार से शुरू हुए समारोह के पहले दिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इंडिया गेट पर जाकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर  ट्वीट कर कहा कि 1965 युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर मैं उन सभी बहादुर सैनिकों को नमन करता हूं जिन्होंने युद्ध में हमारी मातृभूमि के लिए संघर्ष किया। राजनीतिक दलों के अन्य नेताओं ने भी इस मौके पर प्रशस्ति गान किए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने याद दिलाया कि प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और रक्षा मंत्री वाइबी चह्वाण के सक्षम नेतृत्व में भारतीय सशस्त्र सेना ने अनुकरणीय साहस का प्रदर्शन किया। एक और दो सितंबर को मानेकशॉ सेंटर में एक सम्मेलन भी आयोजित किया गया । इसके अतिरिक्त राजपथ के पास 15 से 20 सितम्बर को एक प्रदर्शनी का आयोजन भी किया जाएगा, जिसमें युद्ध संबंधी ट्रॉफी की एक प्रदर्शनी लगाई जाएगी। कार्यक्रम में वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा तैयार योजनाओं में युद्ध से संबंधित वस्तुओं की प्रदर्शनी शामिल है। इनमें वीरता पुरस्कार से सम्मानित सैनिकों की तस्वीरें, युद्ध ट्रॉफी और युद्ध के दौरान प्रमुख लड़ाइयों के नमूनो को दिखाया जाएगा। प्रदर्शनी में वीरता से संबंधी वस्तुओं के लिए अलग कोना होगा, जहां युद्ध में मेडल जीतने वालों की तस्वीरें होंगी। यहां बलिदानियों के लिए भी एक स्थान होगा, जहां तीनों सैन्य शाखाओं के शहीदों को याद किया जाएगा। प्रदर्शनी में मनोरंजन को भी खासा महत्व दिया जायेगा, जिसमें सैनिक खुकरी, भांगड़ा, कलारिपयात्तु नृत्य प्रस्तुत करेंगे। कार्यक्रम के दौरान युद्ध में भारतीय वायुसेना का नेतृत्व करने वाले मार्शल अर्जन सिंह को सम्मानित किया जाएगा। वह वायुसेना के एकमात्र अधिकारी हैं, जिन्हें पांच सितारा रैक प्रदान किया गया है। युद्ध में हिस्सा लेने वाले सैनिकों को 22 सितंबर को सम्मानित किया जाएगा।

स्मरणीय है कि भारतीय सेना ने 28 अगस्त को ही हाजीपीर दर्रे पर अपना कब्जा किया था।। रक्षा मंत्रालय और पुरा देश इसे एक भीषण युद्ध के रूप में याद करता है, जिसमें भारत ने पाकिस्तान को हराया था। 17 दिनों तक चले युद्ध में करीब 3,000 सैनिक, नौसैनिक, वायुसैनिक शहीद हुए थे। ध्यातव्य है कि 1965 के युद्ध में भारत तथा पाकिस्तान की वायुसेना के विमान भारत विभाजन के बाद पहली बार लड़ाई में शामिल हुए थे। युद्ध के दौरान भारत ने पाकिस्तान के 1,920 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कर लिया था, जबकि पाकिस्तान ने भारत के 550 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था।

 

दरअसल आज से 50 साल पूर्व अगस्त-सितम्बर महीने भारतीय राष्ट्रीयता की परीक्षा हुई थी। पाकिस्तान ने भारत पर एक युद्ध थोपा था। देश तब तक भारत-चीन सीमा पर हुई क्षति से उबर नहीं पाया था परंतु उस टकराव का स्थान कम आबादी वाला क्षेत्र था। इस बार देश को अपने ऐसे इलाके में विषम परिस्थितियों में बचाव करना था, जो भौगोलिक दृष्टि से देश का हृदय-स्थल था। पाकिस्तान ने सुनियोजित तरीके से आक्रमण के लिए ऐसा समय चुना जब भारत बड़ी विषम चुनौतियों से जूझ रहा था। उस वक्त भारत तदर्थवाद के दौर से गुजर रहा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू का अवसान हो चुका था और लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन थे। देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और विदेशी मुद्रा संकट व खाद्यान्न की कमी का देश सामना कर रहा था। एक ओर नगा आंदोलनकारी उत्तर-पूर्व में मुश्किल पैदा कर रहे थे तो दूसरी ओर कश्मीर घाटी में भी बेचैनी थी। इसी बीच जनवरी, 1965 के तीसरे हफ्ते में भाषाई विवाद का संकट सामने आया। संवैधानिक प्रावधानों में उल्लेखित था कि 26 जनवरी, 1965 को देश की राजकाज की भाषा अंग्रेजी से हिन्दी हो जायेगी। इसके खिलाफ सारा दक्षिण भारत विरोध में उठ खड़ा हुआ और इस राजनीतिक भूचाल का केंद्र मद्रास था। अचानक ही केंद्र सरकार की संघीय ढांचे की पकड़ संदेहों के घेरे में आ गयी। आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था सहमति और समझौते का विकल्प प्रस्तुत करती थी लेकिन बाहरी लोगों ने भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन के गलत निष्कर्ष निकाले। भारत के उस समय की स्थिति के बारे में सबसे गलत निष्कर्ष पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान का था, जिन्होंने लालबहादुर शास्त्री को कमजोर नेतृत्व के रूप में आंका। अयूब खान और उसके जनरलों ने सबसे पहले रण के कच्छ क्षेत्र को अपना निशाना बनाया और भारत ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। इस तरह यह मामला अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थों तक जा पहुंचा। अयूब खान और उनके सिपहसालार इस खुशफहमी से उत्साहित थे कि वे ब्रिटिश विदेश नीति-निर्धारकों की कुटिल नीति के अनुरूप चल रहे हैं। दरअसल ब्रिटेन की विदेश नीति बेंकन सैंडीज़ की कुटिल नीतियों से प्रभावित रही है, जिसका मानना था भारत-चीन युद्ध के बाद परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए पश्चिम को कश्मीर विवाद का समाधान थोपना चाहिए। इस ब्रिटिश प्रस्ताव को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जेएफ कैनेडी ने अस्वीकार कर दिया था। एक बार फिर ब्रिटिश रणनीतिकार पाकिस्तान के साथ इस साजिश के भागीदार बने जो शरारतपूर्ण ढंग से प्रचार कर रहा था कि कश्मीर में क्रांति करीब है। जब पाकिस्तान ने भारत पर युद्ध थोपा तो लालबहादुर शास्त्री एक सशक्त नेतृत्व के रूप में सामने आये। लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय सेना को खुली छूट दी कि पाकिस्तानी हमले का मुंहतोड़ जवाब दे, और फिर 13 अगस्त को आकाशवाणी पर संदेश में उन्होंने बेबाक रूप से पाकिस्तान से कहा, मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि ताकत का जवाब ताकत से दिया जायेगा। और हमारे खिलाफ होने वाले किसी भी आक्रमण को सफल नहीं होने दिया जायेगा। इसके दो दिन बाद लालकिले की प्राचीर से उन्होंने अपने नेतृत्व की चमक दिखाई। यहां तक कि चीन की धमकियों के सामने भी वे निर्भीक खड़े रहे। यह युद्ध 48 दिन चला और उसके बाद शांति प्रयासों के लिए ताशकंद में कूटनीतिक प्रयास हुए। चीन ने समानता की अमेरिकी सोच के आगे चतुराई से पाकिस्तान की कुटिलताओं पर परदा डाला और दरार में अपनी जगह बना ली। इस प्रकार भारत ने चीन-पाक गठबंधन के रूप में भारी सामरिक दबाव का सामना किया। और अब तो पकिस्तान के मशहूर इतिहास भी इस युद्ध में भारत से बुरी तरह पाकिस्तान के पराजय होने की बात स्वीकार करने लगे हैं। दरअसल, 1965 का युद्ध भारत ने शुरू नहीं किया मगर यह भारत की जरूरत का युद्ध बन गया। इस युद्ध ने भारत की राष्ट्रीयता को एक नयी ऊर्जा प्रदान की। इस युद्ध की विभीषिका ने राष्ट्र की आत्मा को नयी ऊर्जा दी और लोगों में अनूठी एकता का संचार किया। इस युद्ध में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, क्रिश्चियन, एंग्लो इंडियन व पारसी युवाओं और भारतीय सैन्य बलों ने समान रूप से युद्ध के मैदान में योगदान दिया। यह एक करिश्मे जैसा था। इसने कालांतर में भारत की साझी और धर्मनिरपेक्ष विरासत को मजबूती प्रदान की। यह युद्ध भारत की अग्निपरीक्षा थी, जिसमें उसने युद्ध के मैदान में और बाहर भी शानदार सफलता पायी, जिसको स्मरण करना अपने सैन्य गौरव को नमन करने से कम नहीं है ।

 

 

 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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