राजनीति

भारत में लोकतंत्र – सफलता का रहस्य

– डॉ0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

द्वितीय विश्वयुद्व के बाद जब भारत से ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अन्त हुआ तो उसका प्रभाव एशिया और अफ्रिका के अन्य देशों पर भी पडा और एक के बाद एक देश यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के शिकंजे से मुक्त होने लगे। साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद प्राय अधिकांश देशों ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अंगीकार किया। भारत ने भी लोकतांत्रिक प्रणाली का ही अनुसरण किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद भारत की स्थिति में एक और पेच भी था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से पहले भारत लगभग 800 वर्ष तक इस्लामी साम्राज्यवाद का भी शिकार रहा था। अत: कुल मिलाकर भारत लगभग एक हजार वर्ष की साम्राज्यवादी दास्तां से मुक्त हुआ था। इस्लामी साम्राज्यवाद और यूरोपीय साम्राज्यवाद ने भारत में निरंकुश शासन पद्वति का प्रयोग किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने विधि के शासन का पाखंड तो किया, लेकिन विधि का यह तथाकथित शासन अंग्रेजी हितों की पूर्ति हेतु था, लोकतांत्रिक प्रयोगों हेतु नहीं। साथ ही अंग्रेज इसी बहाने यहां ब्रिटिश शासन एंव सामाजिक व्यवस्था का अपने माडॅल को लागू करना चाहते थे।

इस्लामी और यूरोपीय साम्राज्यवादी चिन्तन एंव व्यवस्था का दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत का एक भू भाग उससे अलग हो गया। जब अंग्रेज यहां से गये तो भारत और उससे अलग हुए भू भाग पाकिस्तान, दोनों ने ही लोकतांत्रिक पद्वति को अंगीकार किया। लेकिन पाकिस्तान में जल्दी ही लोकतांत्रिक पद्वति का अंत हो गया और सैनिक अधिनायकवाद ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया यही नहीं कालांतर में जब पाकिस्तान दो फाड हुआ तो नवर्निमत बांग्लादेश भी ज्यादा देर तक लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाए नहीं रख सका। वह भी शेख मुजीबुर्रहमान की नृशंस षडयंत्रकारी हत्या के बाद सैनिक तानाशाही का सहज व स्वभाविक शिकार हो गया। यही हश्रअफी्रका व एशिया के अन्य अधिकांश देशों का हुआ जहाँ लोकतत्रं ने शिशु काल में ही दम तोड दिया और अधिनायकवाद के विभिन्न रूपों ने वर्चस्व जमा लिया। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या कारण है अन्य देशों में लोकतत्रं सफल नहीं हुआ जबकि भारत में वह स्वाभाविक रूप से सफल हो रहा है। इसका कारण भारतीय मनोविज्ञान अथवा हिन्दू मानसिकता में खोजना होगा।

लोकतंत्र के लिए जरूरी शर्त है विचार भिन्नता को प्रगित के लक्षण के तौर पर स्वीकार किया जाये न कि भिन्न विचार को विरोधी मान कर उसके प्रति शत्रु भाव रखा जाए। विश्व भर में जितनी भी प्रगति हुई उसका मूल कारण विचार भिन्नता ही रहा है किसी भी तथ्य, निष्कर्ष,उपलब्धि और परिणाम को अन्तिम नहीं माना जा सकता। यदि इनमें से किसी को भी अन्तिम मान लिया जाये तब तो भविष्य की उन्नति को रास्ता ही अवरूद्व हो जायेगा। सत्य के संधान के लिए जरूरी है कि अज्ञात को जानने की जिज्ञासा बनी रहे और उस जिज्ञासा के परिणाम स्वरूप निर्मित विभिन्न मार्गों के प्रति आस्था रहे। ज्ञान के क्षेत्र में इस व्यवहार अथवा मानसिकता के कारण दर्शन शास्त्र उत्पन्न होते हैं और व्यवहारिक क्षेत्र में लोकतंत्र उत्पन्न होता है। इस बात को सभी स्वीकार करते हैं कि भारत में दर्शन शास्त्र के विभिन्न मार्गों का सर्वाधिक विकास हुआ है। यह मार्ग एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिद्वन्दी नहीं क्योंकि अन्तिम सत्य तक पहुँचने के भी अनेक मार्ग हो सकते हैं किसी एक मार्ग के प्रति जिद करना, और दुसरों को नकारना, यह तानाशाही प्रवृति का प्रतीक है जैसा कि हमने उपर संके त किया है। मोहनजोदडो और हडप्पा की सभ्यता से लेकर वैदिक काल से होते हुए पुराण काल तक और उसके बाद भी मतभिन्नता का सम्मान हुआ है। संस्कृत में तो एक जगह कहा भी गया है जितनी मुडियाँ उतने ही मत। भारत का यह परिवेश कोई आज का नहीं है यह सभ्यता और संस्कृत के उषा काल से ही यही रहा है। यही कारण था कि भारत वर्र्ष में ज्ञान के क्षेत्र में, दर्शन शास्त्र फला फूला और शासन पद्वति के क्षेत्र में किसी ने किसी रूप में लोकतंत्र ने जडे जमाई गण्तंत्रों का प्रयोग भारत की परम्परा रही है, अपवाद नहीं। जिन दिनों शासन का मुखिया राजा होता था उन दिनों भी उसकी सलाहकार परिषद सबसे ज्यादा सक्रिय होती थी। प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था में सभा और समिति दानों का ही समान जनक स्थान था। इस प्रकार की व्यवस्था लोकतांत्रिक मानसिक अवस्था के कारण ही सम्भव हो पाई। शास्त्रों राज्य अभिषेक के समय की पद्वति का वर्णन आता है। राजा घोषणा करता है कि मैं किसी भी प्रकार के नियंत्रण से मुक्त हूँ तब समाज के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थिति पुरोहित उसके सिर पर दण्ड से प्रतीकात्मक प्रहार करता हुआ घोषणा करता है कि धर्म तुम्हें भी दंडित कर सकता है। इससे क्या अभिप्राय है? स्पष्ट है कि भारतीय शास्त्र व्यवस्था में राजा निरंकुश नहीं माना गया। धर्म यनी समाज और कर्तव्य के विधिविधान के नियंत्रण में रह कर ही उसे कार्य करना है। लोकतंत्र निरंकुशता को विपरीत अर्थ है। इसे अधिक अच्छे रूप में कहना हो तो लोकतंत्र सकारात्मक है और किसी भी सभ्य समाज की पहली शर्त है। निरंकुशता अथवा तानाशाही लोकतंत्र का नकार है इसलिए नाकारात्मक है और मानव विराधी व्यवस्था है।

इसके विपरीत हमने एशिया और अफ्रीका के देशों को जिक्र करते हुए कहा है कि वहाँ लोकतंत्र का प्रयोग सफल नहीं हुआ। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं। परन्तु मोटे तौर पर इन भूखंडों के देश निरंकुश शासन के किसी न किसी रूप से बंधे हुए हैं। इसका क्या कारण हो सकता है? इन भूखंडों के अधिंकाश देशों में इस्लाम को उसके मजहबी रूप में भी और समाजिक व्यवस्था के रूप में भी स्वीकार कर लिया है। इस्लाम मूलत: सामी सम्प्रदाय है। वहाँ एक किताब और एक पैगम्बर है उस किताब में लिखा हर वाक्य अन्तिम सत्य है और पैगम्बर का कहा हुआ प्रत्येक शब्द लक्ष्मण रेखा है इन दोनों से बाहर कोई नहीं जा सकता है आगे का रास्ता बन्द है। और पीछे लौटनेके रास्ते भी बन्द हो गये हैं क्योंकि एशिया अफ्रीका की जनजातियों ने जिस समय इस्लाम को अंगीकार कर लिया था चाहे बल से चाहे छल से। उसके बाद उनके पास अपनी मूल संस्कृति तक वापिस जाने का रास्ता बंद हो गया। इस्लामी देशों में व्यवस्था है इस्लाम में दीक्षित व्यक्ति न तो अपने पूर्वजों की संस्कृति में वापस लौट सकता है और न हीं इस्लामी व्यवस्था को छोड. कर कोई नयी व्यवस्था अपना सकता है। एक बडा अंधेरा बंद कमरा जिसमें हर चीज पहले से ही तय है। उस लोक के ईश्वर का स्वरुप भी तय है और इस लोक की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था भी तय है। उससे एक कदम भी आगे बडने का अर्थ है कुफ्र। इस व्यवस्था में लोकतंत्र उत्पन्न नहीं हो सकता।इसमें तानाशाही ही राज्य कर सकती है। इसमें निरंकुशता ही स्वभाविक व्यवस्था बन सकती है। इस व्यवस्था में लोकतंत्र को पु्फ्र का ही दूसरा नाम माना जायेगा।

यही कारण है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में लोकतंत्र जड नहीं जमा सका। यहाँ के सभी लोग लोकतांत्रिक मानसिक व्यवस्था के ही अंग थे लेकिन उन्हें किसी भी तरह इस्लाम में ट्रेप कर लिया गया तो उनके लिए आगे और पीछे के सभी रास्ते बंद हो गये। वे इस ट्रेपिंग में शताब्दियों से फंसे हैं और इस ट्रेपिंग से जैसा कि हमने उपर विश्लेषण किया है तानाशाही ही जन्म ले सकती है शताब्दियों से ट्रेपिंग में रहने के कारण तानाशाही उनके लिए स्वाभाविक शासन व्यवस्था है और लोकतंत्र एक ऐसी गर्म हवा है जिसे वह ज्यादा दिन तक नहीं सह सकते।

लोकतंत्र आनंद उठाने के लिए जिस दर्शन की पृष्ठ भूमि आवश्यक है वह सामी सम्प्रदायों के देशों में नहीं मिल सकता।

तब एक बडा प्रश्न उत्पन्न होता है कि भारत ने लगभग छ: सात सौ वर्षों तक इस्लामी शासन का दंश झेला है। ऐसे में भी वह अपनी मानसिक लोकतांत्रिक पृष्ठ भूमि को कैसे बचाये रख सका इसका एक उत्तर यह हो सकताहै कि इतने लम्बे काल तक इस्लामी राज्य व्यवस्था और भारत समाज व्यवस्था एक दूसरे के समानांतर चलती रहीं। इन दोनों में अन्तर्सम्बन्धों के गली मुहल्ले बहुत कम थे। इसलिए भारतवर्ष में लोकतंत्र समाजिक व्यवस्था में फलता फूलता रहा।

इस्लामी सत्ता की समाप्ति के बाद लगभग 200 वर्षों तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा। उसने भारत की लोकतांत्रिक मानसिकता में साम्राज्यवादी षडयंत्रों का विष घोलना शुरू किया और विभिन्न मतों को अथवा विचारों अथवा संमप्रदायों को अथवा जातियों अथवा भाषाओं को एकदूसरे के पूरक न रहने देकर एक दूसरे को आमने सामन खडा करने का प्रयास किया। इसलिए जिस समय 1947 में अंग्रेज चले गये और नये भारत का संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो अधिकांश राष्टृवादी चिन्तकों ने यह सुझाव दिया था कि भारत को लोकतंत्र के भारतीय मॉडल की पहचान करनी चाहिए न कि ब्रिटिश मॉडल की क्योंकि लोकतंत्र के ब्रिटिश मॉडल के भीतर ही भीतर अलगाव वादी बारूदी सुरंगे फिट थी। उस वक्त अंग्रेजपरस्त बुद्विजीवियों को यह बात समझ नहीं आई थी। बाद में कई लोग प्रायश्चित करते हुए भी देखे गए।

पिछले छ: दशकों से भारत में लोकतंत्र कितना सफल रहा है और कितना असफल , इसकी चर्चा करते हुए पूरी अवधारणा में थोडी सुधार करने की गुंजाइश है। सफलता असफलता की यह कहानी छ: दशकों की नहीं छ: सहस्राब्दियों की है। महाभारत के युध्दा को हुए आज पूरे 5110 साल हो गए हैं। महाभारत के शांति पर्व में राजा केर् कत्ताव्य और राज्य के जिन कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। वह लोकतंत्र की उज्जवल मिसाल है। भारत में लोकतंत्र की जडे मापने के लिए जानने के लिए महाभारत से भी कहीं पीछे जाना होगा। पश्चिमी मॉडल का लोकतंत्र भ्रमित ज्यादा करता है, विषमता ज्यादा पैदा करता है, अलग-अलग विचार होते हुए भी मिलजुलकर चलने की भावना का विकसित नहीं करता। छ: दशकों का तो इतना ही लेखा जोखा करना होगा कि लोकतंत्र की इस भारतीय मानसिकता में अंग्रेजी विषवेल ने कितना नुकसान किया है। भारतीय लोकतंत्र इसकी काट कैसे कर सकता है?