गौतम चौधरी
भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता की विशाल कैनवास में दाऊदी बोहरा समुदाय एक शांत लेकिन प्रभावशाली उदाहरण के रूप में खड़ा है। कर्तव्य, व्यापारिक उद्यमिता और अन्य धार्मिक समूहों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का उदाहरण खासकर अन्य मुस्लिम समाज में देखने को कम ही मिलता है। बोहरा, इस्माइली शिया मुस्लिमों का एक उप-संप्रदाय है जिनकी वैश्विक आबादी लगभग दस लाख है। हालांकि इस समुदाय में कुछ सुन्नी मुसलमान भी हैं लेकिन दोनों की प्रकृति लगभग एक जैसी ही होती है। भारत में ये गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में विशेष रूप से बसे हुए हैं। ये लोग अब भारतीय ही हैं लेकिन इनका दावा है कि इनके पूर्वज, इस्लाम के अंतिम नबी, हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बेटी फातिमा के परिवार से तालुकात रखते थे।
इस समुदाय के लोगों का यह भी दावा है कि किसी समय अफ्रीका के उत्तरी भाग पर उनका शासन था और मिस्र के काहिरा में जो इस्लामिक विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है वह उनके पूर्वजों के द्वारा ही की गयी। उत्तरी अफ्रीका में शासन के अंत के बाद इस समुदाय के लोग भारत के तटवर्ती क्षेत्र में आकर बसने लगे। यहां के हिन्दू राजाओं ने इनका संरक्षण और पोषण किया। इसके बाद इस समुदाय के लोग फिर भारत के ही होकर रह गए। बाद के दिनों में बोहरा समुदाय के लोग मध्य-पूर्व, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कतर आदि देश में जाकर बसे हैं। कुछ बोहरा प्रवासी संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी देशों में भी जाकर बसे हैं।
बोहरा समाज के पेशेवर और व्यापारी भारत की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यह समुदाय ऐसे विवादों से दूर रहते हैं जो भारत में नकारात्मक सुर्खियां बनते रहे हैं। इस समुदाय को भारत ही नहीं दुनिया में इसलिए जाना जाता है कि ये जहाँ कहीं भी निवास करते हैं, वहां की संस्कृति और राष्ट्र जीवन को ध्यान में रखकर अपना व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। बोहरा समुदाय मुसलमानों के लिए ही नहीं, अन्य धार्मिक समुदायों के लिए एक उदाहरण हैं. धार्मिकता के साथ आधुनिकता भी है, यानी इस समाज का लगभग प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक के साथ आधुनिक भी है। भारत में इनकी आमद यह दर्शाती है कि कोई व्यक्ति धार्मिक भी हो सकता है और आधुनिक भी, पारंपरिक भी हो सकता है और प्रगतिशील भी और पूरी तरह से भारतीय होते हुए भी वैश्विक चिंतन से ओतप्रोत हो सकता है।
इनकी धार्मिक जड़ें फातिमी मिस्र से जुड़ी हैं और ये लोग 11वीं शताब्दी में भारत आए। इतने वर्षों में इन्होंने भारतीय समाज में न केवल खुद को समाहित किया बल्कि जिस क्षेत्रों में ये बसे, वहाँ के आर्थिक और नागरिक जीवन में भी सकारात्मक बदलाव लाने की पूरी कोशिश की। दाऊदी बोहरा समुदाय अपने मजबूत व्यापारिक नैतिक मूल्यों के लिए जाना जाता है और व्यापार, निर्माण व उद्यमिता में सफलता प्राप्त की। सूरत, उदयपुर और मुंबई जैसे शहरों में इनके व्यापारिक नेटवर्क खूब फले-फूले हैं। ये नेटवर्क ईमानदारी, पारदर्शिता और स्थिरता जैसे मूल्यों पर आधारित हैं जिससे इन्हें धार्मिक और भाषाई सीमाओं के पार जाकर सम्मान मिला है। आज जब धनार्जन को सामाजिक जिम्मेदारी से अलग समझा जाता है, तब बोहरा समुदाय यह साबित करता है कि सामुदायिक नैतिकता को अपनाकर भी समृद्ध हुआ जा सकता है।
समुदाय की सामाजिक संस्थाएँ मुस्लिम दुनिया में सबसे प्रभावशाली मानी जाती हैं। मुंबई स्थित इनका केंद्रीय नेतृत्व प्रणाली, दाई अल-मुतलक के अधीन है। यह संसाधनों को संगठित करने, जनकल्याण योजनाओं को लागू करने और सामूहिक पहचान को मजबूत बनाने के लिए जाना जाता है। फैज़ अल-मवाइद अल-बुरहानिया नामक सामुदायिक रसोई योजना के तहत हर बोहरा परिवार को प्रतिदिन ताजा और पौष्टिक भोजन मिलता है। इससे खाद्य अपव्यय कम होता है, सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं और परिवारों का दैनिक बोझ घटता है। समुदाय द्वारा संचालित स्कूल और कॉलेज लड़कों व लड़कियों दोनों को धार्मिक व आधुनिक शिक्षा देते हैं और शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। विशेष रूप से बोहरा महिलाओं में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है।
इनके द्वारा शहरों की स्वच्छता, सौंदर्यीकरण और पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी गहरी प्रतिबद्धता दिखाई देती है। स्वच्छ भारत अभियान जैसी पहलों में भागीदारी और नियमित स्वच्छता अभियान इस बात का उदाहरण हैं कि धार्मिक पहचान और राष्ट्रीय हित कैसे एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। मुंबई की हाल ही में पुनर्निर्मित सैफी मस्जिद केवल पूजा स्थल नहीं बल्कि वास्तुशिल्प धरोहर और सामुदायिक गर्व का प्रतीक है। इसके निर्माण में पारंपरिक और पर्यावरण अनुकूल विधियों का उपयोग किया गया जो अतीत के प्रति श्रद्धा और भविष्य की चिंता दोनों को दर्शाता है।
सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि दाऊदी बोहरा समुदाय अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बनाए रखते हुए भी संकीर्ण नहीं है। वे पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, लिसान अल-दावत नामक मिश्रित भाषा बोलते हैं (जो गुजराती, अरबी और उर्दू का संयोजन है) और अपने विशिष्ट रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। फिर भी वे देश के लोकतांत्रिक और सामाजिक जीवन में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं। इन्हें शायद ही कभी सांप्रदायिक हिंसा या कट्टरता से जोड़ा गया। ये लोग शालीनता, संवाद की वरीयता और संघर्षों के समय शांतिपूर्ण कूटनीति के लिए जाने जाते हैं। इनके द्वारा कानून का पालन, अंतरधार्मिक सम्मान और सामाजिक सौहार्द पर बल दिया जाता है जो धार्मिक सह-अस्तित्व का एक उच्च आदर्श प्रस्तुत करता है।
इस समुदाय की जीवन यात्रा में समुदाय के नेतृत्व की अहम भूमिका रही है। दिवंगत सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन और उनके उत्तराधिकारी सैयदना मुफद्दल सैफुद्दीन ने विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों से अच्छे संबंध बनाए रखे हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, सभी भारतीय नेताओं ने बोहरा नेताओं के योगदान की सराहना की है और उनके एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के संदेश से प्रेरणा ली है। ये रिश्ते इस बात को उजागर करते हैं कि जब कोई समुदाय राष्ट्र निर्माण में भागीदारी करता है, तो विशेषाधिकार की मांग किए बिना भी उसे विशिष्टता प्राप्त हो जाती है। वह स्थानीय लोगों का दिल जीत लेता है और कालांतर में अपने व्यवहार के बल पर आगे की पंक्ति में अपना स्थान सुरक्षित कर लेता है।
धार्मिक समुदायों की आलोचना में अक्सर आंतरिक पदानुक्रम और पुरोहितवादी सत्ता का उल्लेख होता है। ये चिंताएँ विचार और विमर्श की मांग करती हैं। फिर भी यह भी सच है कि बोहरा समुदाय ने बदलाव के लिए तत्परता दिखाई है। बोहरा महिलाएँ अब शिक्षा, व्यवसाय और संवाद में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं, वह भी अपने सांस्कृतिक ढाँचे के भीतर रहकर। बाहरी दबाव में झुकने की बजाय, यह समुदाय भीतर से परिवर्तन की दिशा में शांतिपूर्ण प्रयास कर रहा है। यह मॉडल पहचान संकट और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के समय में एक रचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में जहाँ मुसलमानों को या तो पीड़ित या खतरे के रूप में देखा जाता है, बोहरा समुदाय इन रूढ़ छवि को चुनौती देता दिखता है। यह सिद्ध करता है कि आस्था प्रगति में बाधा नहीं है और धार्मिक निष्ठा संविधानिक मूल्यों के साथ सामंजस्य बैठा सकती है। उनका जीवन यह दर्शाता है कि बहुलवाद केवल संविधान में दिया गया वादा नहीं है, बल्कि यह एक दैनिक अभ्यास है, जो भव्य वक्तव्यों में नहीं, बल्कि नागरिक जिम्मेदारी, पारस्परिक सम्मान और नैतिक जीवन के सामान्य कार्यों में प्रकट होता है। ऐसे समय में जब भारत नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर जटिल बहसों से गुजर रहा है, बोहरा अनुभव बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, एक कठोर मॉडल के रूप में नहीं, बल्कि यह स्मरण कराने के लिए कि सांस्कृतिक विविधता राष्ट्रीय एकता को कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत कर सकती है। दाऊदी बोहरा कोई अपवाद नहीं हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि वैकल्पिक सकारात्मकता संभव हैं जो विश्वास, परिश्रम और शांत जैसे गरिमामय और उच्च मूल्य वाले व्यवहार पर आधारित हों।
गौतम चौधरी