देसी रियासतें और आकाशवाणी प्रसारण

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बी एन गोयल

5 नवम्बर 1970 की बात है. आकाशवाणी अहमदाबाद- वड़ोदरा ने सदा की भान्ति इस बार भी खां साहब की बरसी पर वड़ोदरा में संगीत सभा आयोजित की थी. इस में निमंत्रित कलाकार थे खां साब के प्रिय एवं पुराने शागिर्द सरदार सोहन सिंह जी. गायन में सोहन सिंह जी का उन दिनों नाम था. उस दिन संगीत सभा में अधिक भीड़ का एक यह भी कारण था. रेडियो परंपरा के अनुसार कंसर्ट ठीक सात बजे प्रारम्भ हुई और 9 बजे समाप्त हुई. सोहन सिंह जी के गायन पर लोग कितने मुग्ध हुए थे यह वर्णन के बाहर की बात है. उन के चेहरों के भाव देखने योग्य थे. सभा समाप्ति पर श्रोताओं की प्रतिक्रिया इस तरह की थी ‘यदि आज आप मंच पर एक भारी पर्दा लगा देते और परदे के पीछे से सिंह साहब अपना गायन प्रस्तुत करते तो हमें लगता जैसे कि आज हम खां साहब को ही सुन रहे हों”. सिंह साहब अपने गायन की तुलना अपने उस्ताद की गायकी से सुन कर संकोच से गड़े जा रहे थे. लेकिन बड़ोदावासियों का खां साब के प्रति यह विशेष अनुराग था. मेरे लिए भी शास्त्रीय संगीत की कन्सर्ट में इतनी अधिक भीड़ देखना एक विचित्रता ही थी..

हर वर्ष 5 नवम्बर को वड़ोदरा में आफ़ताबे मुसिकी उस्ताद फैयाज़ खां साब की बरसी पर एक कन्सर्ट आयोजित की जाती थी. इस में शहर के संगीत प्रेमियों को एक खुला निमंत्रण होता था. कंसर्ट शहर के बड़े सभागार में होती थी. प्रायः कहा जाता है कि शास्त्रीय संगीत की सभा में कठिनाई से श्रोता जुड़ते हैं लेकिन सदा ही ऐसा नहीं होता. खां साहब की बरसी पर 5 नवम्बर के दिन वड़ोदरा में आयोजित संगीत सभा इस का अपवाद है. इस संगीत सभा में श्रोताओं की भीड़ इस की लोकप्रियता का एक जीवंत उदाहरण होता था.

वडोदरा (मराठी और हिंदी में बडोदा, अंग्रेजी में बरोडा) देसी रियासतों में एक अनूठी रियासत रही है. यह महाराजा सैय्याजीराव गायकवाड की रियासत थी. महाराजा सैय्याजी राव गायकवाड जिस ने 1911 के दिल्ली दरबार में ब्रिटिश सम्राट किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी के राज्याभिषेक के समय उन के सामने झुकने से मना कर दिया था. यह शहर है आफ़ताबे मुसिकी उस्ताद फैयाज़ खां साहब का. यह नगरी है प्रसिद्ध पेंटर राजा रवि वर्मा की जो यहाँ 14 वर्ष रहे.

साठ के दशक में मुझे आकाशवाणी के अहमदाबाद/ वड़ोदरा केंद्र में काम करने का अवसर मिला. यहाँ के शासक महाराजा सैय्याजी राव गायकवाड के बारे में पढ़ा, सुना और महसूस किया. एक कुशल प्रशासक, शिक्षाविद, न्यायविद, कला पारखी, संगीत पारखी, परम देश भक्त थे. महाराजा होते हुए भी इन्होंने अपने राज्य में प्रजातांत्रिक प्रणाली लागू कर रखी थी. स्वतंत्रता से पूर्व रियासत का अपना रेडियो केंद्र था. इस का नाम था बड़ोदा ब्राडकास्टिंग सर्विस. 1947 के प्रारम्भ में डॉ. नारायण मेनन को इस का अध्यक्ष बना दिया था लेकिन कुछ समय बाद ही वे आल इंडिया रेडियो में आ गए और महानिदेशक के पद से स्वैच्छा से रिटायरमेंट लिया. महाराजा ने वड़ोदरा केंद्र 16 दिसंबर 1948 को बिना किसी के कहे आल इंडिया रेडियो में मिला दिया.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही रियासती रेडियो केंद्र भारत सरकार के प्रसारण तंत्र का भाग बन गया. रियासती रेडियो के कर्मचारी, कलाकार और अधिकारी अब भारत सरकार के हो गए थे. इन में जो नाम याद आते हैं जैसे स्व० सुबंधु त्रिवेदी, विष्णु रावल, राम भाऊ मोरे, नाडकर्णी शब्बीर हुसैन आदि. इन सब से पुराने समय के रोचक संस्मरण सुनने को मिलते थे. बड़ोदा विश्वविद्यालय के संगीत कला विभाग के तबला वादक सुधीर सक्सेना भी दरबार से जुड़े हुए थे. महाराजा साहब रात में रेडियो से खां साहब का गायन सुन कर ही सोने जाते थे और उस के बाद ही रेडियो केंद्र की रात्रि सभा समाप्त होती थी. खां साहब का निधन 5 नवम्बर 1950 के दिन हुआ. उन्हें अपने जीवन में गायन के कारण बहुत अधिक मान सम्मान मिला. जीवन में मिले सोने चाँदी के मेडलों से भरा एक काफी बड़ा बक्सा मैंने स्वयं वड़ोदरा में इन के घर में देखा था. इन की कोई संतान नहीं थी. गायन में वारिस के तौर पर शराफत हुसैन खां को मान्यता मिली थी लेकिन केंसरग्रस्त होने के कारण युवास्था में ही उन का निधन हो गया था.

हम बात कर रहे हैं भारत की देसी रियासतों में आकाशवाणी केंद्र की. वड़ोदरा की उपरोक्त कंसर्ट की चर्चा भी इसी संदर्भ में थी. उस समय देश में नेवल (उदहारण के लिए हरियाणा के करनाल जिले का एक छोटा सा गाँव) और लिम्बडी (जूनागढ़ – गुजरात) जैसी छोटी रियासत से लेकर हैदराबाद, बड़ोदा, मैसूर जैसी बड़ी रियासतों तक देश में लगभग 562 देसी रियासतें थी. इनके अपने अपने शासक राव, उमराव, राजा, महाराजा, नवाब आदि थे. इन में बड़ोदा, मैसूर, त्रावणकोर आदि कुछ रियासतों के शासक अपनी प्रजा के कल्याण के लिए प्रसिद्द्ध थे.

प्रायः प्रश्न उठा है कि वड़ोदरा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व क्यों नहीं रहा है. यह अमदाबाद के साथ ही क्यों जुड़ा है जब कि स्वतंत्रता से पूर्व अन्य चार केन्द्रों की तरह यह भी देश की एक बड़ी रियासत का केंद्र था. वास्तव में 1 नवम्बर 1956 के राज्यों के पुनर्गठन के समय ये सब शहर एक बड़े मुंबई राज्य के भाग थे. 1 मई 1960 में राज्यों का पुनर्गठन हुआ और इस से गुजरात और महाराष्ट्र अलग राज्य बने. अमदाबाद गुजरात की राजधानी बन गया. यहाँ 1949 में आकाशवाणी केंद्र खुल गया था अतः 1 मई 1960 से इसे गुजरात राज्य का मुख्य केंद्र का स्तर मिल गया. वड़ोदरा केंद्र अपने स्वतंत्र अस्तित्व के कारण उस समय के महाराजा की इच्छा से 16 दिसम्बर 1948 के दिन आल इंडिया रेडियो में शामिल हो गया. इस प्रकार अमदाबाद और वड़ोदरा को मिला कर एक संयुक्त रेडियो स्टेशन मिल गया.

मैं चूँकि वड़ोदरा रह चुका हूँ. मैसूर के बाद वड़ोदरा मुझे सबसे अधिक आकर्षक, भव्य और विशाल लगता था. मैंने इस रियासत के इतिहास को, राज्य के उतर चढाव को, प्रगति अवनति को, बहुत ही नज़दीक से पढ़ा और सुना कि सदा ऐसा लगता रहा जैसे कि मैं स्वयं उस का साक्षी रहा हूँ. वहां रहते हुए राजघराने और रियासत से सम्बंधित काफी पुस्तकें मैंने पढ़ी थी. शहर में प्रवेश करते ही आप को विश्वविद्यालय के दर्शन हो जाते हैं. यदि आप राजमहल देखने जाएँ तो सबसे पहले लक्ष्मी विलास पैलेस के प्रवेश द्वार पर राजवंशावली का वृक्ष आप को अपनी ओर आकृष्ट करता है. कितने लोगों को मालूम है कि वड़ोदरा के महाराजा सैय्याजी राव जयपुर की प्रसिद्ध महारानी गायत्री देवी के नाना थे. इन्हीं महाराजा साहब ने भारत के प्रथम क़ानून और न्याय मंत्री डॉ. बी आर आंबेडकर को छात्रवृत्ति देकर विदेश पढने भेजा और लौटकर आने पर अपने राज्य का कानून मंत्री बनाया था.

पैलेस के दूसरी तरफ कला वीथिका (Art Galary) में केरल के प्रसिद्द पेंटर राजा रवि वर्मा की कलाकृतियाँ आप को रोक लेंगी. राजा रवि वर्मा एक बार महाराजा साब को अपनी कलाकृतियाँ दिखाने आये थे तो स्वयं यहीं के हो गए.

महाराजा साब ने प्रजा के कल्याण के लिए अनेक कार्य किये जैसे शिक्षा का प्रसार, दलितोद्धार के काम, कृषि सम्बन्धी सुधार, सामाजिक सुधार, अपने क्षेत्र में रेलवे का जाल बिछाना, कपडा उद्योग का विस्तार, बाल विवाह पर रोक, अस्पृश्यता पर रोक, संस्कृत भाषा का विकास, अपने क्षेत्र में गणराज्य की स्थापना, बड़ोदा शहर के हर घर में पाइप द्वारा पानी की आपूर्ति आदि सब कार्य आज से 100 वर्ष पहले कर दिए जो आज के लोगों के लिए एक स्वप्न हो सकता है. इन का सबसे अच्छा काम था अपने क्षेत्र में एक अच्छी लाइब्रेरी की व्यवस्था करना. वे भारत के सब से पहले ऐसे शासक थे जिन ने ब्रिटिश भारत में 1906 में ही मुफ्त में शिक्षा अनिवार्य कर दी थी.

महाराजा साहब संगीत प्रेमी भी थे और वे वड़ोदरा में संगीत सभा का आयोजन करते रहते थे. एक बार वड़ोदरा में एक अखिल भारतीय संगीत कांफ्रेंस का आयोजन हुआ जिस में लगभग 400 संगीतकारों ने भाग लिया. इन में फैयाज़ खां साहब भी थे. कहते हैं खां साब ने श्रोताओं को इतना मंत्र मुग्ध कर दिया कि उसी सभा में इन्हें 33,000 रूपये (निश्चय ही उस समय की अतुलित धन राशि) की थैली भेंट की गयी और इन्हें वड़ोदरा में ही रोक लिया गया.

साठ के दशक में जब मैंने यहाँ ज्वाइन किया तब रेडियो स्टेशन रेलवे स्टेशन के पास यश कमल बिल्डिंग की चौथी मंजिल पर था. इस में एक कमरे को स्टूडियो, एक को ऑफिस और एक को ड्यूटी रूम बना दिया गया था. यह केंद्र अमदाबाद के आधीन था – स्थानीय तौर पर एक कार्यक्रम अधिकारी इंचार्ज होता था. कुछ कार्यक्रम – संगीत, खेडुत मण्डल आदि बड़ोदरा से होते थे और ये लाइन पर अमदाबाद ट्रांसमीटर तक जाते थे. उस समय ब्लोक में दूर संचार विभाग से लाइन बुक होती थी. इन लाइन पर कार्यक्रम भी जाते थे, बात करने के लिए कण्ट्रोल रूम और ड्यूटी रूम बड़े भारी भरकम हाथ से घुमाने वाले फोन भी लगे होते थे. ये सब वस्तुएं अब इतिहास बन गई हैं. मकरपुरा पैलेस में नए स्टूडियो बन जाने पर वहां नए ऍफ़ एम् ट्रांसमीटर से हो विज्ञापन सेवा प्रारम्भ की गई.

देसी रियासतों में रेडियो स्टेशन खोलने में पहला श्रेय कमाया हैदराबाद के शासक निज़ाम ने. मुंबई और कोलकाता के रेडियो प्रसारण के शुरू होते ही निज़ाम को धुन लग गयी और इन्होने अपनी रियासत में हैदराबाद और औरंगाबाद में दो रेडियो स्टेशन शुरू करा दिए. हैदराबाद की शुरुआत 3 फ़रवरी 1935 को हुई और कुछ ही दिनों बाद औरंगाबाद की. श्री लूथरा जी ने अपनी पुस्तक में निज़ाम के रेडियो केन्द्रों के विलय के बारे लिखा है जैसे निज़ाम ने हैदराबाद रियासत के भारत में विलय पर आनाकानी की थी उसी तरह से उन्होंने हैदराबाद रेडियो के विलय में भी रोड़ा अटकाने का प्रयत्न किया था लेकिन वह सफल नहीं हो सके. इस का लूथरा जी ने विस्तृत चर्चा की है. (पृष्ठ – 78) इस के विपरीत वड़ोदरा केंद्र के विलय के लिए तत्कालीन महाराजा साब ने दिसंबर 1948 में स्वयं ही विलय की घोषणा कर दी.
जनवरी 1936 में दिल्ली केंद्र के शुरू होने पर से कुछ और शासकों ने अपने निजि रेडियो केंद्र खोलने का निश्चय किया. इन में एक थे त्रावणकोर के महाराजा. त्रावणकोर दक्षिण भारत की एक बड़ी रियासत थी. एक दिन त्रावणकोर के महाराजा ने मुंबई स्थित अपने ट्रेड एजेंट से कहा कि वे दिल्ली जाकर कंट्रोलर ऑफ़ ब्राडकास्टिंग से मिलें और त्रावणकोर में एक रेडियो केंद्र खोलने की संभावनाएं तलाश करें. इस के लिए महाराजा साहब ने एक कमेटी का गठन भी कर दिया. लेकिन उन्हें इस से संतुष्टि नहीं हुई. वे स्वयं ही इस कार्य से जुड़े लोगो के साथ पत्र व्यवहार में जुट गए. रेडियो केंद्र की स्थापना का काम (इंस्टालेशन) देखने और सीखने के लिए अपने एक इंजिनियर को दिल्ली भेजा. इस के बाद चार सहायक इंजिनियर भेजे. दिल्ली से चीफ इंजिनियर को त्रावणकोर बुलाया. अंततः 12 मार्च 1943 के दिन 5 किलोवाट का मीडियम वेव का ट्रांसमीटर त्रावणकोर से प्रारम्भ हो गया.

बड़ोदा की तरह मैसूर भी एक श्रेष्ठ रियासत थी. इस के शासक जयचमराजा वोडेयार भी देश के अन्य राजाओं – महाराजाओं से अलग थे. बड़ोदरा की ही तरह ये भी भारतीय दर्शन शास्त्र के मान्यता प्राप्त विद्वान, एक प्रख्यात दार्शनिक, परोपकारी, भारतीय संस्कृति और कला के पोषक, सुशिक्षित, प्रजा हितकारी और कल्याणकारी दृष्टि के व्यक्ति थे. ये मैसूर की रियासत के 25वें और अंतिम महाराजा थे. वे एक अच्छे घुड़सवार और टेनिस खिलाड़ी होने के साथ साथ पश्चिमी और कर्नाटकी (दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत) के जानकार भी थे. जयचमराजा वोडेयार ने 10 सितम्बर 1935 से मैसूर राज्य का आकाशवाणी नाम से प्रसारण केंद्र शुरू किया. इसी आकाशवाणी नाम को तत्कालीन सू० प्र० मंत्री सरदार पटेल ने आल इंडिया रेडियो के हिंदी वैकल्पिक नाम के रूप में स्वीकार कर लिया.

इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में 9 सरकारी केंद्र थे जिन में से विभाजन के कारण लाहौर, पेशावर और ढाका के केंद्र उस समय के नव निर्मित देश पाकिस्तान में चले गए. (ढाका 1971 के युद्ध के बाद बंगला देश बन जाने के कारण वहां का प्रमुख केंद्र बन गया). पांच केंद्र देसी रियासतों के थे – मैसूर, वड़ोदरा, हैदराबाद, औरंगाबाद (ये दोनों निज़ाम के थे) और थिरुअनन्तपुरम. इन सब ने रेडियो केंद्र के माध्यम से अपनी जनता को शिक्षित और जागृत करने का कार्य किया. ये सब भी धीरे धीरे रियासतों के भारत में विलय के कारण देश की प्रसारण सेवा का अंग बन गए. भारत की प्रसारण व्यवस्था में इन देसी रियासतों का बहुत बड़ा योगदान है.०००००

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बी एन गोयल
लगभग 40 वर्ष भारत सरकार के विभिन्न पदों पर रक्षा मंत्रालय, सूचना प्रसारण मंत्रालय तथा विदेश मंत्रालय में कार्य कर चुके हैं। सन् 2001 में आकाशवाणी महानिदेशालय के कार्यक्रम निदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए। भारत में और विदेश में विस्तृत यात्राएं की हैं। भारतीय दूतावास में शिक्षा और सांस्कृतिक सचिव के पद पर कार्य कर चुके हैं। शैक्षणिक तौर पर विभिन्न विश्व विद्यालयों से पांच विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर किए। प्राइवेट प्रकाशनों के अतिरिक्त भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान, नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए पुस्तकें लिखीं। पढ़ने की बहुत अधिक रूचि है और हर विषय पर पढ़ते हैं। अपने निजी पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें मिलेंगी। कला और संस्कृति पर स्वतंत्र लेख लिखने के साथ राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर नियमित रूप से भारत और कनाडा के समाचार पत्रों में विश्लेषणात्मक टिप्पणियां लिखते रहे हैं।

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  1. बहुत अच्छी जानकारी बहुत ही रोचक अंदाज़ में दी गयी है। एक बार पढ़ना शुरु करो तो ख़त्म करके ही उठ पाएंगे। कुछ जानकारियां तो पहली बार मिलीं। हार्दिक धन्यवाद गोयल साब।

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