राष्ट्रवाद के प्रेरक : वीर सावरकर

भारत को अजेय शक्ति बनाने के लिए “हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है और राष्ट्रीयत्व ही हिंदुत्व है’ के उद्द्घोषक स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर आज तन से हमारे मध्य नहीं हैं। लेकिन उनकी संघर्षमय प्रेरणादायी अविस्मरणीय मातृभूमि के प्रति समर्पित गाथा युगों युगों तक भारतभक्तों का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी।

मुख्यतः हम उनकी पुण्य जन्म व निर्वाण दिवसों पर अपनी अपनी श्रद्धांजलियां देकर दशकों पुरानी परंपरा को निभा कर राष्ट्रवाद के वाहक बन जाते है। लेकिन विचार अवश्य करना होगा कि राष्ट्र चेतना के धधकते अंगारे व हिन्दू राष्ट्र के प्रचंड योद्धा वीर सावरकर के सौपें उत्तराधिकार के लिए आज हम कितने सजग हैं? हिन्दुत्वनिष्ठ समाज को एकजुट व संगठित करके संगोष्ठी व वार्ताओं के विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा वीर सावरकर जी के अथाह राष्ट्रप्रेम से आने वाली पीढ़ी को भी अवगत करा कर उनमें भारतभक्ति की भावनाओं को अंकुरित करना भी राष्ट्रवादी समाज का मुख्य दायित्व है।

हुतात्मा वीर सावरकर के अनुसार… “इस जगत में यदि हम हिन्दू राष्ट्र के नाते स्वाभिमान का जीवन जीना चाहते हैं तो उसका हमें पूरा अधिकार है और वह राष्ट्र हिन्दुराष्ट्र के ध्वज के नीचे ही स्थापित होना चाहिए। इस पीढ़ी में नही तो अगली पीढ़ी में मेरी यह महत्वाकाँक्षा अवश्य सही सिद्ध होगी। मेरी महत्वाकाँक्षा गलत सिद्ध हुई तो पागल कहलाऊंगा मैं और यदि महत्वाकाँक्षा सही सिद्ध हुई तो भविष्यद्रष्टा कहलाऊंगा मैं। मेरा यह उत्तराधिकार मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ।” ….

क्या हम आज उस वीर योद्धा पर मातृभूमि की रक्षा के लिये दशकों तक हुए अमानवीय अत्याचारों व यातनाओं की पीड़ाओं का एक पल के लिये भी अभास कर पाते है ? क्या वर्ष में एक बार “वीर सावरकर जयंती” के आयोजन मात्र से हम उन करोड़ों छात्र-छात्राओं व युवाओं को यह संदेश देने में समर्थ है कि वीर सावरकर जी के अंतःस्थल में एक ही ध्येय बसा था…. “बस तेरे लिए जीये माँ और तेरे लिये मरे हम , कितनी ही विपदायें-बाधायें आई , पर नही डरे हम”। जिसकी रग रग में राष्ट्रप्रेम का संचार कभी थमा नही उस महान योद्धा के अद्भुत साहसिक कार्यो व दूरदर्शिता को समझना सरल नहीं।

अतः उनके द्वारा लिखित साहित्य व उनके जीवन का इतिहास का अध्ययन करके उसी अनुसार अग्रसर रहकर धर्म और राष्ट्र को सुरक्षित रखने में सफल हो सकेंगे।

उन्होंने अपने छात्र जीवन में ही नासिक में रहते हुए कुछ मित्रो के साथ मिलकर “राष्ट्र भक्त समूह” नाम की एक गुप्त संस्था बनाई थी। उच्च अध्ययन के लिए ब्रिटेन जाने के पश्चात उन्होंने सार्वजनिक आंदोलन करने के लिए “फ्री इंडिया सोसाइटी” का भी गठन किया था। उनके अदम्य साहस की अनेक घटनाओं में से एक प्रमुख घटना 8 जुलाई 1910 की है जब उनको बंदी बना कर इंग्लैंड से जलपोत द्वारा भारत भेजा जा रहा था तो रास्ते में मार्सेलिस पोर्ट (फ्रांस) में जहाज के रुकने पर सावरकर जी ने शौचालय के पोर्टहोल से समुद्र में अद्भुत छलांग लगा कर भी ब्रिटिश बंधन से बचने में असफल रहें। परंतु इस अभूतपूर्व घटना ने वीर सावरकर के अदम्य साहस व शौर्य का परिचय करा के पूरी दुनिया को ही चकित कर दिया था। उन विपरीत संघर्षरत अवधि में भी उनकी दृढ़ता और निर्भयता का स्पष्ट संकेत जलपोत में लिखी उनकी पंक्तियों में मिलता~ “मैं अनादि हूं , अनन्त हूं , अतः विश्व में कौन ऐसा शत्रु है जो मुझे मार सके ” ?

उनका ध्येय वाक्य था कि “स्वतंत्रता साध्य और शस्त्र क्रांति साधन है”। इसलिए उनका मत था कि “हिंदुओं का सैनिकीकरण होना चाहिये , क्योंकि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के बाद अग्रेजो ने हिन्दू सैनिको को भारतीय राजनीति से दूर रखने की नीति अपनाई है , इसलिए हिन्दू सैनिकों में राजनीति करना हमारा प्रथम कर्तव्य है , तभी हम स्वतंत्रता का युद्ध जीत सकेंगे”। द्वितीय विश्वयुद्ध (1939 ) के अवसर पर उन्होंने अधिक से अधिक हिन्दुओं को सेनाओं में भेज कर युद्ध कौशल में निपुण होने का परामर्श दिया जबकि कुछ नेताओं ने इसका विरोध किया कि यह तो ब्रिटिश सेना की सहायता होगी ।

परंतु सावरकर जी का स्पष्ट मत था कि ऐसा अवसर पिछले 50 वर्षों में पहली बार आया है और संभवतः आने वाले 50 वर्षो में भी पुनः न मिलें तो इसका अधिकतम लाभ उठाना चाहिये। वे अपने तर्क को समझाते हुए कहते थे कि “मै एक प्रश्न आपसे पूछता हूं कि यदि कोई यह कहता है कि यह हिंसाचार है या साम्राज्यवादी शक्ति की सहायता करना है तो फिर हमें अपने हाथ में आई सैनिक शक्ति बढ़ाने का यह सुअवसर छोड़ देना चाहिये “। उनका मानना था कि अंग्रेज़ी राज्य को समाप्त करने के लिए भारतीय युवकों को हाथों में शस्त्र लेकर मरने मारने को तैयार हो जाना चाहिये तभी स्वाधीनता मिलेगी।

वे हिन्दू युवकों का आह्वान करते थे कि सेना में अधिक से अधिक भर्ती हो और सैन्य विद्या सीखें। उनकी इसी दूरदर्शिता के परिणाम स्वरुप सेनाओं में स्वतंत्रता के पश्चात भी हिन्दुओं की बहुलता है।गाँधीजी के अहिंसा के सिद्धांत का उन्होंने सदा विरोध किया।

उनका मत था कि “जब बहन-बेटियों की रक्षा अहिंसा से नही कर सकते तो स्वाधीनता कैसे मिलेगी ? आतताई, अत्याचारी व आक्रमणकारी को मार डालना हिंसा न होकर अहिंसा व सदाचार ही है”। अहिंसा की बात करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी को उनका संदेश था कि “ब्रिटिश शासन को अहिंसा से ध्वस्त करने की कल्पना किसी बड़े किले को बारुद की जगह फूंक से उड़ा देने के समान हास्यास्पद है।”

वीर सावरकर जी ने ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सशस्त्र क्रांति के लिए विदेश जाकर एक फौज बनाकर ब्रिटिश राज्य को भारत से उखाड़ने के लिये प्रेरित किया था। वीर सावरकर सुभाष बाबू के अनेक क्रांतिकारी कार्यो से परिचित थे। उन दिनों ब्रिटेन विश्व युद्ध मे फंसा हुआ था अतः उन्होंने सुभाष बाबू को इस स्थिति का लाभ उठाते हुए बड़े निश्चय व निर्णय के साथ उन्हें भारत में छोटे छोटे क्रांतिकारी कार्यों में फंसने से बच कर एक बड़े लक्ष्य को साधने के लिए रासबिहारी बोस के पास जापान भेजा। यही नही अनेक अभावों के उपरांत भी वीर सावरकर ने सुभाष जी की विदेश में सारी व्यवस्था भी की थी।

वे मुसलमानों की विशेष मांगो व अधिकारों के सदा विरोधी रहें। हिन्दू-मुस्लिम एकता के संदर्भ में उनका कहना था कि “साथ आये तो तुम्हारे साथ,न आये तो तुम्हारे बिना, किंतु यदि तुमने विरोध किया तो हिन्दू तुम्हारे विरोध का सामना करके अपनी शक्ति के बल पर स्वतंत्रता के युद्ध को आगे बढ़ाते रहेगें।” उन्होंने एक बार हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन में हिन्दू-मुस्लिम एकता की भ्रामक कल्पना ग्रस्त गांधी जी के एक पत्र के कुछ अंश पढ कर सुनाये जिसमें गांधी जी ने लिखा था कि ” ब्रिटिश के हाथ की सभी हिंदुस्तान की सत्ता यदि उन्होंने मुस्लिम लीग के हाथों में सौप दी तो भी कांग्रेस उसका विरोध नही करेगी।” इसके संदर्भ में सावरकर जी ने स्पष्ट किया कि “हिन्दू हित और शुद्ध राष्ट्रीयता के साथ इतना बड़ा द्रोह और क्या हो सकता है ? ” इसी अधिवेशन के अंत में उन्होंने एक ध्येय वाक्य दिया.. “राजनीति का हिन्दुकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण” कीजिये । वे अखंड भारत के विभाजन के घोर विरोधी थे। उन्होंने कहा था कि “पाकिस्तान बन सकता है तो वह मिट भी सकता है “।

वे संस्कृतनिष्ठ हिंदी के प्रबल समर्थक और उर्दू व अंग्रेज़ी के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि भाषा राष्ट्रीयता का प्रमुख अंग होती है और हमारी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास व दर्शन आदि सभी इसी भाषा में है और यह हमारे पूर्वजों की अनमोल देन है। उन्होंने जाति भेद का निरंतर विरोध किया और समस्त जातियों को एकजुट करने में सदा सक्रिय रहें।

वे कहते थे कि ” हम कुत्ते , भैस, घोड़े, गधे जैसे पशुओं को छू सकते है, सर्प को दूध पिलाते है, प्रतिदिन चूहे का रक्त चूसने वाली बिल्ली के साथ बैठकर खाते है, तो फिर, हे हिन्दुओं ! अपने ही जैसे इन मनुष्यों को , जो तेरे ही राम और देवताओं के उपासक है, अपने ही देशबंधुओं को छूने में तुम्हें किस बात की शर्म आती है।”

उन्होंने शुद्धिकरण और अछूतोद्धार आंदोलन भी चलाये। उनका मत था कि “रामायण और महाभारत” हमारे दो ग्रंथ ही हमें एकजुट करने में समर्थ है। हमारा धर्म महान है हम राष्ट्र को ही धर्म मानते है। अतः वे सभी कार्य जो राष्ट्र को पुष्ट करें वही हमारा धर्म है। धर्म ही राजनीति का पोषक होता है, धर्म ही राजनीति शास्त्र की आधारशिला है उसके बिना राजनीति का कोई अस्तित्व ही नही। मातृभूमि के प्रति अपार श्रद्धा रखने वाले सावरकर जी कहते थे कि “हे मातृभूमि तेरे लिए मरना ही जीना है और तुझे भूल कर जीना ही मरना है” ।

मैं महान हुतात्मा को कोटि कोटि नमन करते हुए अंत में काले पानी का उल्लेख अवश्य करुंगा कि विश्व के इतिहास में दो जन्मों का आजीवन कारावास पाने वाले एकमात्र वीर सावरकर ने अंडमान- निकोबार की काल कोठरी की सफेद दीवारों को कागज और कीलों को कलम बना कर काव्य रचना को उकेरना और उसे मिटा कर फिर नई रचना को उकेरना और कंठस्थ हो जाने पर मिटा देने के सिलसिले द्वारा लगभग 10000 से अधिक पंक्तियां विभिन्न काव्य संग्रह के रूप में आज भी विद्यमान है। इस प्रकार देशभक्ति, साहस व शौर्य की मूर्ति वीर सावरकर जी ने अपने दर्दनाक कष्टों को भी मातृभूमि की अथक सेवा में सुखमय बना लिया था। इससे पूर्व उनके द्वारा लिखा गया एक महत्वपूर्ण ग्रंथ “1857 का स्वतंत्रता संग्राम” ने भारत सहित विश्व के अनेक क्रांतिकारियों को भी प्रेरित किया था।

भारत के इस अनमोल धधकते अंगारे की 26 फरवरी 1966 को प्राण ज्योति अनन्त में विलीन हो गई। इस प्रकार भारतीय इतिहास का एक और सुनहरा अध्याय करोडों-करोडों राष्ट्रवादियों को प्रेरणा देता आ रहा है और देता रहेगा जिससे एक दिन हमारा देश “हिन्दू राष्ट्र” बनकर उनके सपने को भी साकार करेगा।

उन्हीं के कथनानुसार …”वटवृक्ष का बीज राई से भी सूक्ष्म होता है किंतु उस बीज में जो स्फूर्ति होती है, जो महत्वाकाँक्षा होती है उसके कारण वह बढ़ते-बढ़ते प्रचंड वटवृक्ष का रूप ले लेता है जिसके नीचे गौओं के झुंड सुस्ताते हैं। धूप से त्रस्त लोगों को वह वटवृक्ष छाया प्रदान करता है। एक ऐसी ही महत्वाकाँक्षा मुझे भी सँजोने दो…”मेरा गीत मुझे गाने दो…यदि हमें हिन्दू राष्ट्र के रूप में सम्मान और गौरव से रहना है~जिसका हमें पूर्णाधिकार है~तो वह राष्ट्र हिन्दू ध्वज के नीचे ही अवतरित होगा~यह मेरा उत्तराधिकार है मैं तुम्हें सौंप रहा हूं”।

आज “राष्ट्रवाद” लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षार्थ सार्वधिक सशक्त माध्यम बन रहा है। लेकिन ‘धर्मनिरपेक्षता’ के समान ‘राष्ट्रवाद’ को चुनावी वातावरण में केवल भाषणों तक सीमित न रखा जाय उसको धरातल पर मूर्त रूप देकर स्थापित किया जाना सार्थक होगा। भारत भक्तों के हृदयों में राष्ट्रवाद की अग्नि सतत् प्रज्ज्वलित होती रहें यहीं हुतात्मा वीर सावरकर को महान श्रद्धांजलि होगी।

विनोद कुमार सर्वोदय

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