बुद्धिजीवियों द्वारा अकादमी पुरस्कार वापस किए जाने के मायने

हाल ही में बुद्धिजीवियों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटाये जाने का मामला सुर्खियों में है। बुद्धिजीवियों का ये तर्क है कि जब से नई सरकार ने अपना कार्य संभाला है तभी से सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। आपसी भाईचारे को छिन्न-भिन्न करने की साजिश की जा रही है। देश की कथित कट्टरपंथी ताकतें सरकार की शह पर मनमानी कर रही हैं । नरेन्द्र दाभोलकर,गोविंद पनसरे एवम् एम.एस.कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्याएं की जा रही हैं। लेकिन ऐसा नहीं है ।  ये प्रमाणित श्रेष्ठि वर्ग इन घटनाओं के विरोध स्वरुप अकादमियों द्वारा दिये गये सम्मान को वापस कर रहे हैं।  लेकिन सवाल यह है कि क्या ये पुरस्कार के साथ दी गई सम्मान राशि भी लौटाएंगे ? अगर ये बुद्धिजीवी ऐसा करें भी तो उनके परिचय में अकादमियों से मिले सम्मान के कारण जो प्रशस्ति पढ़ी जाती है उसका क्या ? चलिए एकबारगी जैसा ये बुद्धिजीवी कह रहे हैं वैसा मान भी ले तो क्या पुरस्कार लौटाने से ये सब बंद हो जाएगा ? कई अन्य कारगर तरीके हैं जिनसे बुद्धिजीवी अपना विरोध जता सकते हैं । स्पष्ट हो कि यहां पर उन्हीं बुद्धिजीवियों पर चर्चा की जा रही है जो साहित्य अकादमी सम्मान लौटा रहे हैं और एक विशेष विचारधारा से संबंधित हैं । बौद्धिक लोगों की पहचान प्राप्त सम्मानों से कम बल्कि उनकी लेखनी से ज्यादा होती है । ऐसे में बौद्धिक श्रेष्ठि वर्ग को कलम उठानी चाहिए। ना कि वितंडावाद का सहारा लेना चाहिए ।  बुद्धिजीवी होने के नाते उन्हें कलम की ताकत का भान तो होगा ही तो फिर डर कैसा ।

बिसाहड़ा में बीफ खाने की अफवाह मात्र के चलते अखलाक नाम के शख्स की हत्या बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है । इस घटनाक्रम के बाद नेताओं  के बयान जेट विमान की रफ्तार से आना शुरु हो गए जिसके चलते देश का माहौल खराब हो गया । रही सही कसर इन बुद्धिजीवियों ने पूरी कर दी ।  बिसाहड़ा गांव में मचे उपद्रव के बाद हाल ही में एक मुस्लिम परिवार में हुई शादी की रस्मों में मुस्लिमों से ज्यादा हिन्दू शामिल थे । यानि समरस समाज में हुई इस घटना की भरपाई के लिए स्वंय समाज ही खड़ा हो गया। जबकि  ये बुद्धिजीवी अनावश्यक वितंडावाद  फैलाकर देश और समाज की छवि खराब कर रहे हैं ।

बिसहड़ा की इस घटना को सबसे पहले नेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने तत्पश्चात वामपंथी लेखकों ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रदत्त सम्मान लौटाकर इसे आवश्यकता से अधिक तूल दिया। खुद प्रधानमंत्री इन घटनाओं पर गहरा दुख प्रकट कर चुके हैं । कोई नहीं चाहता कि इन घटनाओं की पुनरावृत्ति हो । लेकिन इस घटना को इतना बढ़ा-चढ़ा कर ये बुद्घिजीवी बंधु भगिनी प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे कि पूरे देश में यही सब चल रहा हो । समाज में सकारात्मक और विध्वंसकारी गतिविधियां अनवरत रुप से चलती रहती हैं, लेकिन इन घटनाओं का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है । वहीं राजनीतिक रुप से प्रेरित होकर और स्वार्थ की पूर्ति हेतु  प्रतिष्ठित संस्था की साख को गिराना भी कोई शोभनीय कृत्य नहीं है ।

वर्तमान में साहित्य अकादमी तथा अन्य पुरस्कारों को वापस करने की जो राजनीति हो रही है वह वामपंथी बुद्धिजीवियों की बौखलाहट को ही दर्शाता है । आज ये बुद्धिजीवी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विमर्श से बेदखल होते जा रहे हैं । बुद्धिजीवियों का यह कार्य सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने का न होकर के देश की वैश्विक सहिष्णु छवि को खराब करने का है । दादरी के बिसाहड़ा में हुई घटना को ग्रामीणों ने स्वयं आगे आकर पाटने का काम किया है । भारत का चरित्र बहुलतावादी है, जिसे वहां के ग्रामीणों ने सिद्ध कर दिया है । भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और देश के सभी लोग इसी सिद्धांत पर निष्ठा रखते हैं । बुद्धजीवी सामाजिक मूल्यों के सृजक होते हैं, लेकिन यहां तो मामला ही अलग है ।

राष्ट्रवादी सोच हमेशा से ही वामपंथी बुद्धिजीवियों की  पूर्वाग्रही मानसिकता का शिकार होती आयी हैं । राष्ट्रवाद आज के  समय की मांग है । आज देश की मजबूती राष्ट्रवाद से ही है । कन्नड़ भाषा के लेखक स्वर्गीय यू.आर.अनंतमूर्ति ने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में माहौल बनते देखकर विद्रोही सुर अपनाया था । उनका कहना था कि  अगर नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो वे देश छोड़ देंगे । लेकिन ये सोच गलत है । देश की समस्त कार्यप्रणाली विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे स्तंभों में विक्रेंद्रित है। ऐसे में लोकतंत्र पर अविश्वास करना ठीक नही है। देश हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित हो जाएगा ये महज एक कोरी कल्पना और मूर्खता के इतर कुछ भी नहीं है ।

बुद्धिजीवियों के इस क्रियाकलाप से तो यही लगता है कि वे मूल्यों के खातिर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले की छवि गढ़ना चाहते हैं । बुद्धिजीवियों का यह रवैया सांप्रदायिक सद्बाव को तनावयुक्त कर रहा है । लेकिन क्या कोई उनसे पूछेगा कि नंदीग्राम और सिंगूर में जब मजदूर किसानों का दमन किया गया, केरल के एक प्रोफेसर का कट्टरता के नाम पर हाथ काट दिया गया, जम्मू काश्मीर से हिन्दुओं–सिक्खों को खदेड़ा गया तब ये कहां थे ? और इनके मूल्य कहां थे ? दरअसल पुरस्कार वापस करना इन बुद्धिजीवियों का खुद के हाशिए में चले जाने के कारण इनके अंतरमन में घर कर गए असहमति और विरोध  का ही परिणाम है ना कि  कुछ और । इन वामपंथी बुद्धिजीवियों का दायरा सिमट रहा है, लिहाजा पुर्वजीवित होने की कोशिश की जा रही है । पुरस्कारों को लौटाने का क्रम इसके तहत ही जारी है , ताकि देश और समाज की चेतना के प्रतिनिधि और मूल्यों के रक्षक बनकर आज के समय में खुद की प्रासंगिकता को साबित कर सकें, जो कि होने से रहा ।

अनिल कुमार पाण्डेय

लेखक पत्रकारिता एवम् जनसंचार विषय में डॉक्टोरल रिसर्चर हैं।

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