कम्युनिज्म की असहिष्णुता / विपिन किशोर सिन्हा

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि जब दो संस्कृतियां एक ही भूभाग पर एक साथ उपस्थित हो जाती हैं, तो वह संस्कृति जिसके पास श्रेष्ठ दर्शन होता है, दूसरे को निगल लेती है। मार्क्स का यह कथन भारत के बारे में सर्वथा सत्य है। इस प्राचीन देश की मूल आर्य संस्कृति को नष्ट करने के लिए सिकन्दर से लेकर बाबर, नादिरशाह से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी आदि कितनी सभ्यताओं ने आक्रमण किए, गणना करना कठिन है। इन सबके बावजूद भारतवर्ष, हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति आज भी अक्षुण्य है, जबकि चीन, रोम, मिस्र आदि की प्राचीन संस्कृति और धर्म कब के इतिहास की वस्तु बन चुके हैं। इसका मुख्य कारण है – हिन्दू धर्म का विराट दर्शन और व्यवहारिक लचीलापन। दुनिया में कोई धर्म या दर्शन नहीं जिसके मौलिक सूत्र, वेद, वेदान्त, पुराण, उपनिषद, महाभारत या गीता में उपलब्ध न हों। जर्मनी के प्रख्यात दार्शनिक, शोपेनआवर ने जीवन भर संसार की समस्याओं के समाधान के लिए विश्व के सभी धर्मों का साहित्य, अतीत से लेकर अद्यतन दर्शन – सभी का गहन अध्ययन किया था। उसे तृप्ति नहीं मिल रही थी। अचानक एक दिन उसे श्रीमद्भागवद्गीता की एक प्रति प्राप्त हो गई। उसने इसे पढ़ा और सिर पर रखकर नाचने लगा। जब वह शान्त हुआ तो शिष्यों से बोला – आज मैं संतुष्ट हुआ। इस अद्भुत ग्रंथ ने मेरी समस्त शंकाओं का समाधान कर दिया। यह पृथ्वी अगर कई बार भी नष्ट हो जाय और सिर्फ एक ग्रंथ, श्रीमद्भागवद्गीता बचा रहे, तो इसके सहारे हम पुनः विश्व को सर्वोत्तम सभ्यता प्रदान कर सकते हैं। यही कारण है कि एक हिन्दू कभी धर्मभ्रष्ट नहीं होता। वह चर्च में जाकर प्रार्थना कर सकता है, अज़मेर शरीफ़ में जाकर चादर चढ़ा सकता है और इसके बावजूद भी वह हिन्दू ही रहेगा। वह जब चाहे मन्दिर में जाकर आराधना और पूजा भी कर सकता है। एक मुसलमान मन्दिर या चर्च में जाते ही कफ़िर हो जाता है। इसाई धर्म प्रचारक राम कथा के प्रसिद्ध विद्वान फादर कामिल बुल्के राम भक्त होने के कारण धर्मभ्रष्ट हो जाते हैं, लेकिन एक हिन्दू जबतक अपना धर्म परिवर्तन नहीं करता, हिन्दू ही रहता है। उसे अपने धर्म और अपने उच्च दर्शन पर इतना गहरा विश्वास है कि ये छोटी-मोटी बातें उसे तनिक भी प्रभावित नहीं करतीं।

डरते वो लोग हैं, जिन्हें स्वयं पर विश्वास नहीं होता। इसी डर के कारण ईसाइयत और इस्लाम का जहां भी विस्तार हुआ, उन्होंने वहां के मूल निवासियों और उनके मौलिक धर्म को बलात नष्ट कर दिया। अमेरिका, आस्ट्रेलिया के ९८% मूल निवासी मार दिए गए, जो बचे हैं वे जंगलों में रहते हैं। सैलानी टिकट खरीदकर उन्हें देखने जाते हैं। पारसी धर्म का उदगम स्थल इरान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक मिस्र का कोई भी नागरिक क्या उस देश में रहते हुए अपने प्राचीन धर्म को याद करने की भी हिम्मत कर सकता है? जिनका दर्शन कमजोर होता है, वे असहिष्णु हो जाते हैं और कालान्तर में सत्ता प्राप्त होने पर यह असहिष्णुता हिंसा और तानाशाही का रूप ले लेती है। कम्युनिज्म भी इस्लाम और इसाइयत की तरह दुर्बल दर्शन वाला एक मज़हब ही है। कम्युनिस्टों ने बाइबिल या कुरान की जगह दास कैपिटल (Dass Capital) को एकमात्र पवित्र पुस्तक माना, मार्क्स को आखिरी पैगंबर तथा द्व्न्द्वात्मक भौतिकवाद (Materialistic Dialecticism) को अल्लाह माना है। कम्युनिस्टों का दर्शन अपने अस्तित्व में आने के ६० वर्षॊं तक भी संसार में टिक नहीं पाया। भारत के कम्युनिस्ट इस तथ्य को भलीभांति जानते हैं। वे स्वभाव से असहिष्णु होते हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं। यह कम्युनिस्ट होने के कारण है।

सन २००० में स्यालदह (पश्चिम बंगाल) के मेडिकल कालेज में मेरे भतीजे ने एड्मिशन लिया। उसके साथ वाराणसी के उसके एक मित्र ने भी एडमिशन लिया। दोनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बी.एस-सी. पार्ट-१ के छात्र थे और अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा में सफल होने के बाद स्यालदह मेडिकल कालेज में पहुंचे। रैगिंग के दौरान सीनियर छात्रों को जब यह पता लगा कि वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके हैं, तो इस आशंका में कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य रह चुके होंगे, दोनों की जम कर पिटाई की गई। वाराणसी के लड़के की रीढ़ की हड्डी टूट गई और वह बिना डाक्टर बने ही घर लौट आया। मेरा भतीजा अपने पिता के पास बोकारो लौट गया। कालेज के प्रिन्सिपल से शिकायत की गई लेकिन उन्होंने दोषी ल्ड़कों पर किसी तरह की कार्यवाही करने में अपनी असमर्थता जताई क्योंकि वे सारे लड़के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कैडर थे। यह तो एक छोटी घटना है। बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौरान वैचारिक विरोधियों की हजारों हत्याएं की गई हैं। केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं पर हिंसक हमले करके हजारों स्वयंसेवकों की हत्याएं की गईं। कम्युनिस्ट तर्क-वितर्क, विचार-विनिमय या शास्त्रार्थ से भयभीत रहते हैं और घबराते हैं, इसलिए दूसरों को अछूत घोषित कर उनसे दूरी बनाए रखते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चूकि हिन्दू दर्शन में गहरी आस्था रखता है, इसलिए उन्होंने इसे अछूत बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। प्रख्यात कम्युनिस्ट और ब्लिज़ पत्रिका के संपादक श्री आर.के.करंजिया जीवज भर पानी पी-पीकर संघ को गाली देते रहे। रिटायर होने के बाद वे संघ के संपर्क में आए। बुढ़ापे में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने मुंबई के एक सार्वजनिक समारोह में इसके लिए माफी मांगी। सी.पी.आई. के पूर्व महासचिव श्रीपाद अमृत डांगे को भी बुढ़ापे में ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने हिन्दू जीवन दर्शन को न सिर्फ़ अपनाया बल्कि सार्वजनिक रूप से कई लेख लिखकर इसकी वकालत भी की। कम्युनिस्ट इसीलिए संघ के संपर्क में आने से डरते हैं। जहां वे सत्ता में रहे, वहां बलपूर्वक और जहां सत्ता में नहीं रहे, वहां दुष्प्रचार का सहारा लेकर संघ का पूरी शक्ति से विरोध किया। यह बात दूसरी है कि इसका प्रभाव भारतीय जनता पर ‘न’ के बराबर पड़ा और संघ का निरन्तर व्यापक विकास होता रहा। संघ के एक निष्ठावान कार्यकर्त्ता और प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी ने छः वर्ष तक देश का नेतृत्व कर देश को एक नई दिशा दी। यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है।

मैंने इसी सप्ताह के अपने तीन लेखों में कम्युनिज्म के अन्तर्द्वन्द्व. विरोधाभास और विफलता की विस्तार से चर्चा की है। कोई भी कम्युनिस्ट अपनी पार्टी के अंदर भी वैचारिक विरोध को बर्दाश्त नहीं करता। साइबेरिया के जेल, वैचारिक विरोधियों से सोवियत रूस में कम्युनिज्म के पतन तक भरे रहे। नोबेल पुरस्कार विजेता विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार साल्झेनित्सिन को अपने जीवन के स्वर्णिम दिन साइबेरिया के जेल में ही बिताने पड़े। उनका साहित्य कम्युनिस्टों की असहिष्णुता, क्रूर मानसिकता और हिंसक दमन का स्थापित दस्तावेज़ है। स्टालिन की पत्नी जो स्वेतलाना की मां थीं, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलिट ब्यूरो की सदस्य थीं। स्टालिन उन्हें बहुत प्यार करते थे लेकिन एक रात बाथ रूम में स्वयं अपने हाथों से उनका गला घोंट दिया। स्वेतलाना की मां का अपराध मात्र इतना था कि पोलिट ब्यूरो की बैठक में उन्होंने ट्राटस्की के विचारों का समर्थन किया था। इस घटना का विस्तार से वर्णन स्वयं स्वेतलाना ने अपनी आत्मकथा में किया है। ट्राटस्की की हत्या के लिए स्टलिन ने कई प्रयास किए। अन्त में ट्राटस्की को अमेरिका की शरण लेनी पड़ी।

यह सही है कि मज़दूरों और किसानों को झूठे स्वर्णिम सपने दिखाकर कम्युनिस्टों ने रूस इत्यादि कई यूरोपीय देशों और चीन, वियतनाम, कोरिया आदि एशिया के देशों में बड़ी क्रान्ति कर सत्ता प्राप्त की। लेकिन कम्युनिज्म इससे इन्कार नहीं कर सकता कि विश्व के सर्वाधिक खूंखार और अपनी ही जनता का भीषण नरसंहार करने वाले स्टालिन, माओ, चाउसेस्कू, फ़िडेल कास्त्रो, मार्शल टीटो जैसे तानाशाह भी कम्युनिज्म की ही उपज थे। दुनिया के मज़दूरों को शोषण मुक्त समाज का सब्ज बाग दिखाने वाले इन सपनों के सौदागरों ने सर्वाधिक शोषण अपने ही देश के मज़दूरों, किसानों और छात्रों का किया। किसी भी कम्युनिस्ट देश में मज़दूर यूनियन नहीं होते। चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति और थ्येन-आन-मान चौराहे पर टैंक द्वारा अपने ही देश के अनगिनत छात्रों को मौत के घाट उतार देने की घटनाएं अभी पुरानी नहीं हुई हैं। रूस की बोल्शेविक क्रान्ति के दौरान लाखों किसानों और यहुदियों की सामूहिक हत्याओं के किस्से आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हैं। कम्युनिज्म का रक्त रंजित इतिहास विश्व क्या कभी विस्मृत कर पाएगा? शायद कभी नहीं। विश्व पटल से कम्युनिज्म की विदाई का सबसे प्रमुख कारण उनका असहिष्णु और हिंसक होना है। ये बुद्धिजीवियों और विचारकों के सबसे बड़े शत्रु होते हैं। एक मनुष्य के नैसर्गिक अधिकार और प्रकृत्ति प्रदत्त स्वतंत्रता पर ये सबसे पहले कुठाराघात करते हैं। इनके शासन में कोई मानवाधिकार की बात करना तो दूर, सोच भी नहीं सकता है। शेष दुनिया के कम्युनिस्टों ने तो इतिहास से सबक लेकर अपने में काफी सुधार किया है लेकिन भारत के कम्युनिस्ट अभी भी लकीर के फ़कीर हैं। जनता द्वारा ठुकराए जाने के बाद अब उनकी आशा के एकमात्र केन्द्र नक्सली हैं। नक्सलवाद (मार्क्सवाद) और नक्सली ही कम्युनिस्टों के असली चेहरे हैं। संसदीय प्रणाली में दिखावटी विश्वास करने वाले कम्युनिस्टों के लिए तिकड़म और सत्तारुढ़ पार्टी की चापलूसी ही हमेशा से उनका धर्म रहा है। इसके सहारे उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय हासिल किया, प्रचार-प्रसार के सरकारी तंत्रों पर छद्म रूप से कब्जा किया, साहित्य अकादमी पर वर्चस्व स्थापित कर भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से हिन्दी की दुर्गत कर दी। बदले में एकाध नामवर सिंह पैदा किया। प्रेमचन्द, जय शंकर प्रसाद, निराला, पन्त, दिनकर या मैथिलीशरण गुप्त पैदा करने की बात तो वे स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। हिन्दी को वे हिन्दू से संबद्ध मानते हैं। इसलिए हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान और इनका समग्र चिन्तन करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इनका छ्त्तीस का आंकड़ा हमेशा से रहा है। यह अच्छा है कि भगवान गंजे को नाखून नहीं देता वरना अगर ये दिल्ली की सत्ता पर एक दिन के लिए भी आते तो इनका पहला काम होता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्द महासागर में भारी से भारी पत्थर बांधकर डूबो देना।

4 COMMENTS

  1. प्रफुल जी के कमेन्ट अपने आप में कम्युनिस्टी असहिष्णुता का सबसे बड़ा नमूना है.
    बिपिनजी एक सारगर्भित और पोल-खोल लेख के लिए साधुवाद.

  2. श्रीराम तिवारी एवं प्रफुल्ल जी।
    आपलोगों ने लेखक के खिलाफ़ जिस भाषा का उपयोग किया है और जो भावना प्रदर्शित की है, इतना पर्याप्त है, यह सिद्ध करने के लिए कि कम्युनिस्ट कितने असहिष्णु होते हैं। प्रफ़ुल्ल जी तो मेरे जीने के अधिकार को ही छीन लेना चाहते हैं। आप लोगों ने अपने शासन के दौरान करोड़ों निर्दोष स्वतंत्र चिन्तकों को रूस, चीन, बंगाल और केरल में मौत के घाट उतारा है। मैं भी सत्य की रक्षा के लिए हंसते-हंसते मृत्यु का वरण करने के लिए तैयार हूं। आपलोगों की इसी निकृष्ट सोच के कारण पूरे संसार में कम्युनिष्टों की अन्त्येष्टि हो चुकी है।
    राजीव गांधी ने निर्दोष सिक्खों की हत्या कराई, हिटलर ने अपने लाखों देसवासियों को मौत के घाट उतार दिया – इससे लेनिन-स्टालिन, माओ, चाउसेस्की के पाप नहीं धुल जाते। लेख में वर्णित तथ्यों के खंडन के बदले व्यक्तिगत आरोप लगाने से काम नहीं बनेगा। सत्य बड़ा कड़वा होता है, मिर्ची की तरह होता है। आपके कमेन्ट्स और आरोप आपकी तिलमिलाहट की आभिव्यक्ति मात्र है। ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे!

  3. प्रफुल्ल जी के सवालों का जबाब देने में इतनी देरी क्यों? शायद आलेख के रचनाकार और उनकी ‘लाइन ‘ बाले महानुभावों की इन सवालों में कोई रूचि नहीं या वर्तमान दौर में संघ निष्ठ विकृत मानसिकता के परिणामस्वरूप ‘अंध-कम्युनिस्ट विरोध’ के चलते अधिकांस बुर्जुआ लेखक और मीडिया कर्मी गाहे-बगाहे ‘सिर्फ और सिर्फ मार्क्सवाद याने क्रन्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा पर निरंतर हमला कर रहे हैं.ये हमले कोई नई बात नहीं ,हिटलर,गोयबल्स,चर्चिल,से लेकर आज के मनमोहनसिंग ,चिदम्बरम और साथ में भारतीयता का राष्ट्रवाद का ढोंग रचने वाले भी उसी सुर में पूंजीवाद का जयगान कर रहे हैं.ये विचारे नहीं जानते की किसके पक्ष में खड़े हैं.इनसे प्रफुल्ल के सवालों के जबाब क्या खाक दिए जायेंगे?

  4. मुझे लगता है लेखक पूरी तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त है.

    a). राजीव गाँधी कौनसा कोम्मुनिस्ट था जिसने ४०,००० लोगों को भोपाल में मारा.

    b).२००००० लोग १९८४ के दंगे में मरे गए उन्हें किसी कोम्मुनिस्ट ने नहीं मारा.

    c). २००० लोग जो गुजराज मैं मरे गए उन्हें भी कोम्मुनिस्ट ने नहीं मारा.

    d). १९८० दंगे में जो लोग भागलपुर में मरे गए उन्हें भी कोम्मुनिस्ट ने नहीं मारा.

    e). १९४७ के दंगे में मरे गए लोगों को भी कोम्मुनिस्ट ने नहीं मारा.

    f). हिरोशिमा और नगशाकी में मरे गए लोग भी कोम्मुनिस्ट नहीं थे.

    g). ६० लाख लोगों को मरने वाला हिटलर भी कोम्मुनिस्ट नहीं था.

    केवल आपके भाई और उसके दोस्तों को लड़कियों को छेरने के जुर्म में पीटने से कोम्मुनिस्ट बुरे नहीं हो जाते.

    बुरे तो आप जैसे लोग हैं जो जनता को गुमराह कर रहे हैं आप जैसे लोगों को जीने का कोई अधिकार नहीं अगर कुछ शर्म बची हो तो चुल्लू भर पानी में नाक रगर के मर जाना नहीं तो फिर से एसा ही बसवास लेख लिखते रहना.

    में सरकार से गुजारिश करूँगा की मीडिया पे पबदी लगाये जो किसी से पैसे ले के दूसरों को गलियां देते रहते हैं आज का मीडिया दलाल है और आप भी उन्ही के क़दमों पे चल रहे हैं.

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