क्या कांग्रेस का ‘सत्याग्रह’ का आग्रह दुराग्रह है?

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ललित गर्ग

दशकों तक भारत पर राज करने वाले गांधी परिवार के राजनीतिक वारिस राहुल गांधी को आपराधिक मानहानि के मामले में अदालत ने सजा सुनाई तो कांग्रेस देशभर में सड़कों पर हंगामा कर रही है, गांधी की समाधि पर सत्याग्रह कर रही है, कांग्रेस एवं उसके तथाकथित सत्याग्रही नेता क्यों नहीं सत्य को समझ रहे कि सजा मोदी सरकार ने नहीं, सूरत की एक कोर्ट ने सुनाई है। क्या कांग्रेस का ‘सत्याग्रह’ का आग्रह कहीं अधिक स्पष्टता से ‘दुराग्रह’ को उजागर नहीं कर रहा है? महात्मा गांधी ने भारत को एकजुट करने के लिए लड़ाई लड़ी, सत्याग्रह को हथियार बनाया। जबकि राहुल गांधी भारत का, गरीब और कमजोर समुदायों, सिख समुदाय और संविधान का अपमान करने के लिये सत्याग्रह का सहारा ले रहे हैं। भले वे यह सब करते हुए स्वयं को सत्याग्रही कैसे मान सकते हैं?
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता समाप्त होने के विरुद्ध कांग्रेस द्वारा किए जा रहे सत्याग्रह पर जहां भाजपा ने प्रश्न खड़े किए हैं, वहीं तमाम विपक्षी दल उनके साथ खड़े हो गये हैं।  महात्मा गांधी के सत्याग्रह और कांग्रेस के इस सत्याग्रह में उतना ही अंतर है, जितना पंचतंत्र के भगत और बगुला भगत में। यह तथाकथित सत्याग्रह अहंकार का प्रदर्शन है। प्रश्न है कि यह कथित सत्याग्रह किसके विरुद्ध है? नियम के तहत राहुल गांधी को अयोग्य घोषित होना पड़ा है, उसके विरुद्ध है? गांधीजी का सत्याग्रह भारत को आजादी दिलाने के लिये था। गांधी के अनुसार राजनीतिक साधनों की शुद्धता उतनी आवश्यक है जितनी कि श्रेष्ठता। गांधीजी ने कहा, ‘साधन एक बीज की तरह है और उद्देश्य एक पेड़ की तरह। साधन तथा उद्देश्य में वही सम्बन्ध है, जो बीज और पेड़ में। मैं शैतान की पूजा करके ईश्वर भजन के फल को प्राप्त नहीं कर सकता।’ उनके अनुसार, ‘यदि कोई व्यक्ति साधनों का ध्यान रखता है, तो उद्देश्य स्वयं अपना ध्यान रखेंगे। न केवल साध्य वरन् साधन भी शुद्ध ही होना चाहिए। उचित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मनुष्य को उचित साधन ही प्रयुक्त करने चाहिए। नीच साधनों से विश्व को कभी स्थायी सुख व सफलता प्राप्त नहीं हो सकती।’ साधनों की श्रेष्ठता में उनका कितना विश्वास था, यह उनके इस कथन से स्पष्ट है, ‘मैंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना समस्त जीवन लगाया है। फिर भी यदि यह मुझे हिंसा द्वारा ही मिल सकती है, तो में इसे नहीं लेना चाहता।’ असत्य एवं गलत का साथ देते हुए सत्याग्रह के नाम पर देशभर में सड़को पर हंगामा करने वालों को गांधी के कहे शब्दों का मनन करना चाहिए।
राहुल एवं कांग्रेस को सत्याग्रह का प्रयोग करने से पहले इसके वास्तविक दर्शन को समझना चाहिए। अन्यथा गांधी को तो कांग्रेस ने आजादी के बाद कदम-कदम पर भुनाने की कुचेष्टाएं ही की है। गांधीजी ने अपना पहला सत्याग्रह 1906 में ट्रांसवाल में सामाजिक कारणों से किया था, जबकि राहुल गांधी अपने लिए, अपने निजी कारण से, न्यायालय के द्वारा सजायाफ्ता होने के बाद न्यायालय के विरुद्ध करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इससे अधिक दुराग्रह और दंभ सत्याग्रह के आवरण में संभव नहीं है। यह उद्दंडता और निर्लज्जता है। यह आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुुराग्रह की चरम पराकाष्ठा है। स्पष्टतः राजनीतिक समस्याओं की जड़ झूठ है। बोलने वाले झूठ से जीने वाला झूठ ज्यादा खतरनाक होता है। झूठे आश्वासन, झूठी योजना, झूठे आदर्श, झूठी परिभाषा, झूठा हिसाब, झूठे रिश्ते। चिन्तन में भी झूठ, अभिव्यक्ति में भी झूठ। यहां तक कि झूठ ने पूर्वाग्रह का ही नहीं दुराग्रह का रूप भी ले लिया है। एक झूठ के लिए सौ झूठ और उसे सही ठहराने के लिए अनेक तर्क, अनेक आन्दोलन और फिर सत्याग्रह का स्वांग। लगता है राजनीति के शीर्ष लोग झूठ बोलते ही नहीं, झूठ को ओढ़ भी लेते हैं।
आज का राजनीतिक जीवन माल गोदाम में लटकती उन बाल्टियों की तरह है जिन पर लिखा हुआ तो ”आग“ है पर उनमें भरा हुआ है पानी और मिट्टी। आर्थिक झूठ को सहन किया जा सकता है लेकिन नीतिगत झूठ का धक्का कोई समाज या राष्ट्र सहन नहीं कर सकता। राहुल गांधी को महात्मा गांधी के सत्याग्रह का सहारा लेना है तो उन्हें वैसा चरित्र बनाना होगा। क्योंकि सत्य को स्वीकार नहीं करना भी झूठ को मान्य करना है। एक वर्ग पर जब दोषी होने का आरोप लगाया जाता है तब दूसरा वर्ग मौन रहता है। दरअसल, राहुल गांधी की सांसदी जानने के बाद वो पार्टियां और नेता भी कांग्रेस के समर्थन में आ गए जो उसका मुखर विरोध किया करते हैं। मसलन भारत राष्ट्र पार्टी, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने बीजेपी की जमकर आलोचना की। आप संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो यहां तक कहा कि बीजेपी सरकार ब्रिटिश शासन से भी ज्यादा अत्याचारी है। ये सभी राहुल गांधी के पिच पर आकर ‘लोकतंत्र को खत्म करने’ वाला राग ही अलाप रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल की सजा का मुद्दा विपक्ष के लिये जैसे सत्ता प्राप्त करने की सीढ़ी हो। इसीलिये समूचा विपक्ष आपसी मतभेद भूलकर एकजुट होने की तरफ बढ़ा रहा है, इन बढ़ते कदमों से बीजेपी में घबराहट होनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं। बल्कि वो चाहती ही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी का चेहरा उभरे ताकि चुनावों में उसकी बढ़त बरकरार रहे। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर जड़ पकड़ रही है। ऐसे में मोदी बनाम राहुल के शोर से बीजेपी की जमीन वापस मिल सकती है। बीजेपी की इस सोच के पीछे जमीनी सच्चाई भी है, और सत्य भी है।
राजनीति भी मूल्यों पर चले तो ही सार्थक है, सहज एवं महत्वपूर्ण है पर उन्मादी/अतिवादी राजनीति विभिन्न दलों को सत्य के हाशिये के बाहर ले जाती है। आज जो सवाल देश के सामने है उसका उत्तर कांग्रेस नेतृत्व वर्ग सच्चाई से नहीं देना चाहती। कांग्रेस हो या अन्य राजनीतिक दल झूठ को सत्य बनाकर परोसने के कारण ही आज देश वहां पहुंच गया जहां उसे नहीं पहुंचना चाहिए था। यह स्थिति केवल इसलिए उत्पन्न हुई कि राजनीतिज्ञ वोट की राजनीति के लिए जैसी अनुकूलता चाहते हैं, वैसी सच्ची बात कहकर पैदा नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय मानसिकता आज उसी स्तर पर पहुंच गई जहां देश के विभाजन के समय थी। जब देश का आम व्यक्ति कानून का पालन करता है। नोटिस मिलने पर जांच एजेंसी के समक्ष हाजिर होता है। सजा सुनाये जाने पर जेल जाता है या उस फैसले को चुनौती देता है तो वीआईपी व्यक्ति ऐसा क्यों नहीं करता? भारतीय राजनीति का कलेवर ही कुछ ऐसा है कि सच और झूठ की शक्तियों के बीच परस्पर संघर्ष निरन्तर चलता रहता है। कभी झूठ और कभी सच ताकतवर होता रहता है पर असत्य का कोई अस्तित्व नहीं होता और सत्य कभी अस्तित्वहीन नहीं होता। समाज की सत्य के प्रति तड़प सार्वजनिक/सामूहिक अभिव्यक्ति कर्म के स्तर पर हो तो लोगों की सोच में आमूल परिवर्तन खुद-ब-खुद आयेगा।
एक समानता दोनों में है कि न झूठ छुपता है और न सत्य छुपता है। दोनों की अपनी-अपनी चाल है। कोई शीघ्र व कोई देर से प्रकट होता है। झूठ जब जीवन का आवश्यक अंग बन जाता है तब पूरी पीढ़ी शाप को झेलती, सहती और शर्मसार होकर लम्बे समय तक बर्दाश्त करती है। झूठ के इतिहास को गर्व से नहीं, शर्म से पढ़ा जाता है। आज हमें झण्डे, प्रदर्शन और नारे नहीं सत्य की पुनः प्रतिष्ठा चाहिए। हर लड़ाई झूठ से प्रारम्भ होती है पर उसमें जीत सत्य से ही होती है। यह बात राहुल गांधी को समझनी होगी और उनका साथ देने वाले राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं को भी। इसी से विपक्ष समझ एवं समर्थ बन सकेगा।
विदेश में राहुल गांधी ने देश के हालात के बारे में जो कहा, उससे निश्चित ही जन-जन की असहमति ही हो सकती है, सत्ता के मोह ने, वोट के मोह ने शायद राहुल के विवेक का अपहरण कर लिया है। ऐसा लगता है कहीं कोई स्वयं शेर पर सवार हो चुका है तो कहीं किसी नेवले ने सांप को पकड़ लिया है। न शेर पर से उतरते बनता है, न सांप को छोड़ते बनता है। धरती पुत्र, जन रक्षक, पिछड़ों के मसीहा और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर का मुखौटा लगाने वाले आज जन विश्वास का हनन करने लगे हैं। जनादेश की परिभाषा अपनी सुविधानुसार करने लगे हैं। 

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