राजनीति

इशरत जहां की मौत को लेकर उठे सवाल

आज से पांच साल पहले अहमदाबाद में एक मुठभेड में चार आतंकवादी मारे गए थे, जिनमें इशरत जहां नाम की एक लडकी भी थी। उसका दूसरा साथी जावेद शेख था। दो अन्य उग्रवादी भी उसके साथ थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पाकिस्तानी नागरिक थे। इनके मरने के बाद कु छ लोगों ने यह आरोप लगाने शुरू किए कि यह लोग आतंकवादी नहीं थे और पुलिस ने इनको गोली मारकर मार दिया और मरे हुए लोगों के हाथ में हथियार थमा दिए। कुछ मानवाधिकार संगठन इस मामले को लेकर आतंकवादियों से ज्यादा उत्साह में आ गए और इस पूरे घटनाक्रम की जांच करने की मांग करने लगे। अहमदाबाद के मेटनेपोलिटन मजिस्‍ट्रेट तमंग ने पिछले दिनों अपनी जांच रपट प्रस्तुत की है, उसके अनुसार गुजरात पुलिस के कुछ अधिकारियों ने नौकरी में पदोन्नति के खातिर मुंबई से कुछ निरपराध लोगों को उठाया और उन्हें अहमदाबाद लाकर रात्रि के अंधेरे में गोली से उडा दिया। यदि तमंग पर विश्वास किया जाए तो इसका सीधा-सीधा अर्थ यही है कि पुलिस के लोग पदोन्नति के लिए निर्दोष नागरिकों को मुठभेड के नाम पर मारते है। तमंग ने शायद अपनी रपट में इस बात का खुलासा नहीं किया कि जिन पुलिस अधिकारियों ने मुंबई में, घरों में घुसकर निर्दोष नागरिक उठाए थे उनके इस चयन का आधार क्या था? ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि मुंबई में गुजरात के पुलिस अधिकारी मौहल्लों में घूमने लगे और जिस घर का दरवाजा खुला देखा वहां से एक आदमी को मारने के लिए उठा लिया या फिर जो भी घर सामने आया उसका दरवाजा खटखटाया और फिर आराम से जाकर एक-एक आदमी को उठा लाए। आखिर जगह-जगह से चार आदमी उठाए तो इसका हल्ला तो मचा ही होगा और जिनके लडके-लडकियां उठाए गए थे उन्होंने शोर-शराबा भी किया होगा, और ऐसे मामलों में आम आदमी थानों में पहुंच जाते है शोर-शराबा करते हैं लेकिन यदि इस जांच पर विश्वास कर लिया जाए तो ऐसा कुछ नहीं हुआ और जिनके लडके-लडकियों को पुलिस उठा के ले गई थी वे आराम से घरों में इंतजार करने लगे।

परन्तु केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय का कुछ और कहना है। मंत्रालय का मानना है कि इशरत जहां और जावेद शेख दोनों आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त थे इसके पुख्ता प्रमाण हैं। इसलिए जो लोग अहमदाबाद में मारे गए वे कम से कम निर्दोष नागरिक नहीं थे वे छटे हुए आतंकवादी थे। लेकिन क्योंकि राजनीतिक दलों को आतंकवाद को भी हथियार बनाकर राजनीति करनी है, इसलिए वे सुविधानुसार अपनी भाषा और ब्यान बदल लेते हैं परन्तु केन्द्र सरकार की दिक्कत यह है कि वह इशरत जहां के मामले में यह नहीं कर सकती क्योंकि गृह मंत्रालय ने न्यायालय में बाकायदा शपथ पत्र दाखिल करके इशरत जहां और जावेद शेख के आतंकवादी होने का खुलासा किया है। इस स्थिति से बचने के लिए अब मनमोहन की सरकार के गृह मंत्रालय ने एक और तरीका निकाला है मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि यह ठीक है कि ये दोनों आतंकवादी थे लेकिन आतंकवादियों को मारने का भी एक निश्चित तरीका है गुजरात पुलिस ने उन्हें जिस तरीके से मारा है वह बहुत ही निदंनीय और आपत्तिाजनक है। वैसे शायद गृह मंत्रालय ने आतंकवादियों को मारने के लिए कोई नियम और प्रक्रिया निर्धारित नहीं की होगी। पुराने उदाहरणों से ही सबक लेने का संकेत गृह मंत्रालय कर रहा होगा। आतंकवादियों से निपटने का एक तरीका तो वे ही कंधार वाला तरीका था, जिसमें खूंखार आतंकवादी को बाकायदा जहाज में बिठा कर काबुल में विदाई समारोह किया गया था। दूसरा उदाहरण अफजल गुरु का है जिसे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी फांसी की सजा सुना दी है। केन्दा्र सरकार ने उसे जिस प्रकार संभाल कर रखा है उससे यह संकेत तो मिलता ही है कि केन्द्र सरकार आतंकवादियों से निपटने के लिए किस तरीके की शिफारिश कर रही है।

इस देश में आतंकवाद से निपटने में जिस पुलिस अधिकारी का बार-बार जिक्र किया जाता है उसका नाम के.पी.एस. गिल है। गिल ने पंजाब में आतंकवाद को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की और एक प्रकार से पंजाब को बचा पाने में कामयाब हो गए। केन्द्र सरकार खुद यह कह रही थी कि पंजाब में आतंकवाद अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान के साथ छदम युद्ध ही है।

 

के.पी.एस. गिल ने उस छदम युद्ध में आतंकवादियों का सफाया करके भारतीय इतिहास में नया कीर्तिमान स्थापित किया था। जिन दिनों लगभग उस पूरी सरकारी मशीनरी ने जो आजकल तथाकथित फे क एण्काउण्टर की जांच में लगी हुई है, पूरी तरह दम तोड दिया था। पुलिस जिन आतंकवादियों को जान हथेली पर रखकर पकडती थी वे न्यायालय से बाइज्जत बरी हो जाते थे पंजाब के आतंकवाद के दिनों में शायद ही कोई आतंकवादी हो, जिसको न्यायालय से सजा प्राप्त हुई हो सारी दुनिया जानती है कि के.पी.एस. गिल ने आतंकवादियों को आतंकवादियों के तरीके से ही निपटाया और तब फेक एंकाउण्टरों की वकालत करने वाली सरकारी मशीनरी पूरी तरह गिल की पीठ थपथपा रही थी। पंजाब के उस समय के राज्यपाल सिध्दाार्थ शंकर राय ने तो गिल-बजाज नाम के बदनाम केस में भी गिल का यह कहकर बचाव किया था कि गिल इस समय पूरे राष्टन् के लिए लडाई लड रहे हैं। लेकिन जब इस लडाई में गिल जीत गए तो वे ही सरकारी मशीनरी उनके पीछे हाथ धोकर पड गई कि उन्होंने आतंकवादियों को झूंठी मुठभेडों में मारा है। जिसके कारण उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है। पंजाब के तरनतारन जिला में, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह लगभग आतंकवादियों के कब्जे में चला ही गया है, के उस समय के डीएसपी अजीत सिंह ने आतंकवाद का सफाया किया था परन्तु जब पंजाब में शांति स्थापित हो गई तो उस अजीत सिंह पर झूठी मुठभेडों के इतने मुकदमें सरकार ने दर्ज करवाए कि उसने रेलगाडी के आगे छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली।

ये ही स्थिति देश में अन्य स्थानों पर हो रही है जनता जानती है कि कौन उग्रवादी है और कौन उग्रवादी नहीं है? और उग्रवादियों से कैसे निपटना है, इसके बारे में भी जन समर्थन के.पी.एस. गिल के साथ ही है। लेकिन जब इशरत जहां और जावेद शेख जैसे दुर्दांत आतंकवादी मारे जाते है और उनसे किसी प्रकार का भी खतरा बचा नहीं रहता तो अपने घरों में छिपे हुए अनेक लोग चौकन्ने होकर सडक पर निकलते हैं और दूर से ही इस बात का इतमिनान कर लेते हैं कि आतंकवादी सच में मारा गया है और मरे शरीर में दुबारा प्राण आने की संभावना तो नहीं है। तो वे फिर उसी पुरानी कार्यशाली को अपना लेते है जिसके चलते अजीत सिंह को आत्महत्या करनी पडी और जिसके चलते गुजरात के पुलिस अधिकारी बंजारा जेल में सड रहे हैं। आतंकवाद से लडना सेमिनारों में भाषण देना नहीं है, और न ही वातानुकूलित कमरों में बैठकर जांच की प्रक्रिया पूरी करना है, न ही किसी संपादक के कमरे में बैठकर साप्ताहिक स्तम्भ के लिए इशरत जहां की मौत पर आंसू बहाना है। आतंकवाद से लडाई जान हथेली पर रखकर लडनी पडती है। जिसमें जो पक्ष पहले गोली चला देता है वह ही जीतता है। क्या मानवाधिकारवादी चाहते है? कि पुलिस पहली गोली न चलाए और आतंकवादियों को जीतने का मौका दे दे। इशरत जहां की मौत को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यह खुदा का शुक्र है कि अभी इस देश के लोग इशरत जहां के हक में नहीं है, वे उन्हीं के हक में जिन्होंने पंजाब में शांति स्थापित की है और गुजरात, छत्तीसगढ, उडीसा, पश्चिम बंगाल इत्यादि प्रांतों में शांति स्थापना के लिए लड रहे हैं।

– कुलदीप चंद अग्निहोत्री