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इस्लाम : यह कैसा धर्म ? आलोचना सहनेभर की जो ताकत नहीं रखता

 डॉ. मयंक चतुर्वेदी

शार्ली अब्दो में नरसंहार करने वाले अलकायदा के आतंकवादी भाइयों को फ्रांस के सुरक्षाकर्मियों ने ढेर कर दिया, यह खबर सुनकर दुनिया के तमाम लोगों को लगा होगा कि चलो आतंकवादी मारे गए, अच्छा हुआ। लेकिन इन दो मजहबी कुंठा से ग्रस्त आतंकियों के मारे जाने से क्या समस्या हल हो गई है? कल इन्हीं में से कोई एक था, जिसने अपने जीवन में कुछ बन जाने का सपना देखने वाली बच्ची मलाला युसुफज़ई को केवल इसीलिए ही गोलियों से छलनी कर दिया था, क्योंकि वह पढ़ना चाहती थी। ऐसे ही थे वे आतंकी, जिन्होंने  9/11 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर विमान से हमला किया और 3 हजार से अधिक लोगों को मार दिया था। मुंबई का 26/11 हमला भी कुछ इसी प्रकार का था, जिसमें जाने कितनों को बिना कारण के मौत के घाट उतार दिया गया। आज एक नहीं दो नहीं इतिहास बन चुके ऐसे अनेक सच्चे किस्से सुनाए जा सकते हैं, जिनमें मरने वाले कई बार उसी धर्म पर आस्था रखने वाले लोग थे, जिस पर मारने वाले आतंकवादी अपनी आस्था रखते हैं, किंतु दोनों में फर्क यह है कि एक धर्म को मानते हुए लकीर का फकीर नहीं था। उसने धर्म के सच्चे मर्म को समझ लिया था और दूसरा है कि धर्म का सार समझना तो दूर यदि किसी ने उसके सम्प्रदाय के बारे में जरा भी आलोचना कर दी या उसकी कोई कमियां बता दीं, तो समझिए वह उसकी नजर में ईश निंदा का भागी हो गया। अब तो इन आतंकवादियों की नजर में ऐसे आदमी को जीने का भी हक नहीं रहा।

एकेश्वरवाद पर आधारित यह कैसा धर्म-सम्प्रदाय है, जो कि आधुनिक वक्त में जहां एक ओर हमारी दुनिया दूसरे ग्रहों पर बसने की तैयारी कर रही है, तो दूसरी तरफ इस्लाम विश्व को असहिष्णु विषाक्त वातावरण दे रहा है, जिसमें यह सिर्फ स्वयं को और अपने धार्मिक क्रिया-कलापों को ही श्रेष्ठ समझता है तथा दूसरों को हिकारत की नजर से देखता है। क्या इसे भुलाया जा सकता है कि भारत का विभाजन केवल मजहबी आधार पर हुआ? यदि इस्लाम नहीं होता या उस पर आस्था रखने वाली बहुतायत संख्या धर्म के आधार पर अलग देश अलग निशान का राग नहीं अलापती और अखण्ड भारत में यदि मुस्लिमों द्वारा डायरेक्ट एक्शन के नाम पर गैर मुसलमानों का कत्लेआम नहीं किया होता, तो क्या कभी पाकिस्तान का अस्तित्व संभव था। उसके बाद भी शेष भारत और पूरी दुनिया में जितनी भी कट्टरतापूर्ण धार्मिक उन्माद ग्रस्त घटनायें घटती हैं, तो उनमें अधिकांश एक वर्ग विशेष इस्लाम को मानने वाले उस पर आस्था रखने वाले ही क्यों सम्मिलित पाए जाते हैं ? क्यों वह हमेशा ही खतरे में बना रहता है? वस्तुत: आज यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं कि इनका जवाब खुद ना तो इस्लाम के पास नजर आता है और ना ही उन लोगों के पास ही है, जो सेक्युलरिज्म की बात करते हैं।

वास्तव में पूरी दुनिया में जितने भी धर्म हैं, उनमें विशेषकर आज इस्लाम पर आस्था रखने वालों को सामूहिक या एकांतिक यह विचार जरूर करना चाहिए कि एक तरफ उसको मानने वाले शांति की बातें करते हैं, तो दूसरी ओर वही दुनिया में ऐसा धर्म बनकर क्यों उभरा है, जिसके अनुयायियों के हाथ क्या पूरा शरीर उसके रोम-रोम धार्मिक उन्माद के रास्ते पर चलते हुए खून से सने हुए हैं। विश्व इतिहास बताता है कि दुनिया की कई सभ्यताओं को सिर्फ इस्लाम ने इसीलिए समाप्त कर दिया, क्योंकि उनकी आस्था कुरान में नहीं हो सकी थी और यह संघर्ष इस्लाम-गैर इस्लाम के बीच अभी भी जारी है। आज पूरी दुनिया यजीदी समुदाय का बड़े पैमाने पर किए जा रहे जनसंहार को लगातार देख और सुन रही है, यजीदी समुदाय की महिलाओं और बच्चों को जिंदा दफन करने के साथ उन्हें गुलाम बनाया जा रहा है। बाजार में महिला-बच्चों को बोली लगाकर बेचा जा रहा है। अगवा किए गए अमेरिकी- ब्रिटिश पत्रकारों की गर्दन काटते हुई विडियो जारी किए जा रहे हैं और यह सब मजहब के नाम पर हो रहा है। आश्चर्य तो इसमें तब और अधिक होता है, जब यह देखा जाता है कि एकांगी इस्लाम में विश्वास करने वाले इस्लामिक स्टेट के सबसे पहले शिकार चरमपंथी, सूफी और गैर-सुन्नी मुसलमान बनाए जा रहे हैं, वे सूफी और गैर-सुन्नी मुसलामनों के ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों को तबाह कर रहे हैं, क्योंकि इस्लाम की एक शाखा शुद्धतावादी वहाबी कहती है कि कब्रों और मकबरों पर जाना इस्लाम के खिलाफ है। इसे लेकर जो आईएस के वहशियों द्वारा की जा रही बर्बरता है, उसको सुननेभर से रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं।

विश्व में पेरिस, जैसी निरंतर बढ़ रही घटनाओं के देखकर लगता है कि आज पूरे विश्व में आतंक का खतरा मंडरा रहा है, कहीं अलकायदा के नाम पर, तो कहीं इस्लामिक स्टेट आईएसआईएस के नाम पर। अब समूची दुनिया को यह समझकर इस्लाम के साथ व्यवहार करना होगा कि वह दुनियाँ के दूसरे धर्मों से पूरी तरह भिन्न है, यह राष्ट्रों की सीमाओं को नकारते हुए एक अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी बिरादरी की कल्पना करता है और सीधे तौर पर विश्व को दो भागों में बांट कर देखता है। दारुल इस्लाम – ऐसे तमाम मुस्लिम बहुल इलाके, जहाँ इस्लाम का शासन चलता है, सभी इस्लामिक देश इस परिभाषा के तहत आते हैं। दारुल-हरब – ऐसे देश जहाँ शरीयत कानून नहीं चलता, तथा जहाँ अन्य आस्थाओं अथवा अल्लाह को नहीं मानने वाले लोगों का बहुमत हो, अर्थात गैर-इस्लामिक देश।

वस्तुत: इस्लाम पर यकीन रखने वाले एक कौम है, यह विश्वास बनाए रखने के प्रयास दुनिया में इस धर्म के पैदा होने के बाद से लगातार हुआ है, लेकिन यह विश्व इतिहास में हर भूखण्ड में गलत साबित हुआ है, यदि ऐसा नहीं होता, तो जो कई इस्लामिक देशों के परस्पर स्वतंत्र राष्ट्र हैं, वे एक क्यों नहीं हो गए? क्यों मुस्लिम राष्ट्र आपस में अपने-अपने हितों को लेकर लड़ रहे हैं? इससे सिद्ध होता है कि जैसे मार्क्स का समाजवाद का सिद्धांत सुनने में अच्छा लगता है, व्यवहार में उसे नहीं लाया जा सकता, वैसे ही वैश्विक इस्लामिक स्टेट की अवधारणा है, जो कभी व्यावहारिक नहीं हो सकती। भले ही इसके लिए दुनिया को कई बार रक्तरंजित ही क्यों ना कर दिया जाए। 

 देखा जाय तो इस्लाम में आंतरिक लोकतंत्र सबसे कम है। आज यह बात स्वीकार्य करने में किसी को हर्ज नहीं होना चाहिए। सच पूछिए तो इस्लाम के अलावा दुनिया में ऐसा दूसरा धर्म नजर नहीं आता, जो अंदर से इतना सिकुड़ा हुआ हो कि अपने बारे में बहस मुबाहिसे के लिए तैयार ही नहीं हो सके। अल्लाह एक है, मोहम्मद उसके पैगम्बर हैं और कुरान उनके ऊपर नाजिल हुई ईश्वरीय किताब है। ये कुछ इस प्रकार की बाते हैं जिनके बारे में इस्लाम किसी बहस के लिए तैयार नहीं। यदि इस पर किसी ने प्रश्न खड़े कर दिए, तो समझ लो कि इससे इस्लाम खतरे में पड़ जाता है। दुनिया में इस्लाम के अलावा कौन सा ऐसा धर्म है जो आज आधुनिकता के दौर में यह स्वीकार्य नहीं करता कि उसमें भी कमिया हैं। हिन्दू-ईसाइयत-बौद्ध या अन्य धर्म-पंथ-संप्रदायों को माननेवाले कभी यह दंभ नहीं भरते कि उनके यहां धर्म से जुड़े धार्मिक कर्मकाण्ड में सुधार की गुंजाईश अब नहीं रही।

आज विश्व में सबसे ज्यादा तंज हिन्दू आस्थाओं और धर्म को लेकर कसे जाते हैं, पीके जैसी तमाम फिल्में बाजार में आती और चली जाती हैं, इसका कभी यह मतलब तो नहीं हुआ कि आपने हमारी ईश निंदा की है, इसीलिए अब हम हिन्दू आप पर बर्बरतापूर्वक हमला करेंगे, क्योंकि आप जीने का हक खो चुके हैं। कोई बताए कि हिन्दुओं ने कभी उनकी धार्मिक आलोचना करने पर निरपराधों के साथ खूनी खैल खेला हो। हां ! आलोचनाओं का जवाब आलोक्य के प्रकाश में देने की कोशिश जरूर की है। वस्तुत: सच बात तो यही है कि इस्लाम इतना छुई-मुई है कि जरा सी चुनौती से वह खतरे में पड़ जाता है और अपने को बचाए रखने तथा विस्तार पाने के लिए धर्मयुद्ध की जेहादी घोषण कर देता है।

भले ही फिर कई मुस्लिम विद्वान कहें कि जेहाद का अर्थ वह नहीं, जो आज दिखाई दे रहा है। यह तो आदमी की आंतरिक शुद्धि और बुराइयों पर विजय पाने के अर्थों में निहित है, पर इसके बावजूद तथ्य यही है कि जेहाद का सबसे अधिक समझा जाने वाला अर्थ गैर-इस्लामी हुकूमतों को समाप्त करने और अल्लाह की इस्लामिक स्टेट वाली हुकूमत कायम करने का प्रयास ही है। तभी तो भारत जैसे सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक देश भी इससे नहीं बच पा रहे हैं। जेहाद का यही वह विचार है, जो दुनिया के तमाम देशों अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्ड, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, चेचन्या से अफगानिस्तान और फिलिस्तीन से आस्ट्रेलिया तक विश्वभर के मुसलमान जेहादियों को एक समान अपनी ओर आकर्षित करता है। सच पूछिए तो मुसलिम उलेमा, राजनेताओं और सामान्यजन के लिए जेहाद अभी भी एक हासिल किया जा सकने वाला यथार्थ सा लगने वाला वह सपना और अभी भी पूरी हो जाने वाली वह कल्पना लोक की एक ऐसी इच्छा है, जिसके लिए हर साल हजारों-लाखों मुसलमान अपनी जान दे दे रहे हैं।

क्या इसे कोई नकार सकता है कि जब अल्लाह पर ईमान रखनेवाले मुसलमान किसी देश में अल्पसंख्यक होते हैं, तब धर्म के सच्चे अर्थों में अनुयायी और दूसरों के प्रति सहिष्णु वे सबसे ज्यादा नजर आते हैं, यहां वे अपने हितों के लिए अक्सर रोते देखे जा सकते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि उन्हें ऐसे देशों में अल्पसंख्यक मानकर विशेष रियायतें दी जा रही हैं, जो कि वहां उस देश के बहुसंख्यक समाज को भी राज्य की ओर से नसीब नहीं हैं। आज इस संबंध में भारत से श्रेष्ठ भला किसी अन्य देश का कोई उदाहरण नहीं हो सकता, जहां तमाम रियायतें मुस्लिमों को दी जा रही हैं। किसी को इस बात में कोई आपत्ति है तो वह केंद्र और राज्य सरकारों के अल्पसंख्यक मंत्रालयों-विभागों की योजनाओं और कार्यों को देख सकता है। लेकिन जैसे ही किसी स्थान पर वे बहुसंख्यक हो जाते हैं, तो तुरंत ही वहां इस्लामी हुकूमत का सपना देखते हुए उसकी कायमी करना उनकी प्राथमिकता हो जाती है। जब वे अपनी हुकूमत संख्याबल से कायम कर लेते हैं, तो अपनी सत्ता में अल्पसंख्यकों को उस प्रकार के कोई अधिकार देना नहीं चाहते हैं, जो कल तक वे स्वयं अल्पसंख्यक रहते हुए प्राप्त कर रहे थे। अपना संख्याबल प्राप्त करने के बाद उनका एक ही मकसद रहता है, जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाये उसे मार दो या उसे इतना विवश और प्रताड़ित करो कि जीवन की चाह में वह अपने वर्तमान रास्ते को छोड़कर इस्लाम की शरण में आ जाए।

अपनी योजना की सफलता के लिए इस्लाम के पैरोकार हर वह रास्ता अपनाते हैं, जिससे उनका हित सधता है। यदि यह बात सच नहीं होती तो कोई कारण नहीं था, जो आज पाकिस्तान और बांग्लादेश से लगातार हिन्दुओं और अन्य धर्मों को मानने वालों की संख्या कम से कमतर हो रही है और दूसरी तरफ भारत जैसे लोकतंत्रात्मक व्यवस्था वाले देश में मुस्लिमों की संख्या में लगातार खासा इजाफा हो रहा है। केवल यही दो देश नहीं दुनिया में जितने भी इस्लामिक देश हैं, वहां गैर मुस्लिम के लिए कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है। इस सच को दुनिया जितनी जल्दी स्वीकार कर ले, उतना ही उसका भला है, क्योंकि बीमारी जानकर ही उसका इलाज ढूंढ़ा जाना आसान होता है।

जब इस पर बहस होती है तो मुसलमान बुद्धिजीवियों की एक पूरी फौज यह बताने के लिए खड़ी हो जाती है कि नहीं जो दिखता है इस्लाम ऐसा नहीं है, यह तो प्रेम का धर्म है। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि जो बुद्धिजीवियों द्वारा प्रेम का धर्म घोषित किया जाता हो, उसी में सबसे ज्यादा अत्याचार और खून-खराबा होता है। वस्तुत: किसी भी विषय को लेकर धारणा तभी पुष्ट होती है, जब व्यवहार में वो वैसा दिखाई दे। यदि आतंकियों और कथित जेहादियों की कार्यप्रणाली इस्लाम की भावना के अनुकूल नहीं, वह इस्लाम को लांछित करती हैं और घृणित गतिविधियों में लगे आतंकी संगठन इस्लाम का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, तो हकीकत में इस्लाम को मानने वालों के कर्म में यह दिखाई दिया जाना चाहिए।  यदि उनके धर्म में कुछ चरमपंथी पूरे धर्म का मखौल उड़ा रहे हैं तो यह किसकी जिम्मेदारी है कि वह इस व्यवस्था में सुधार करें। स्वाभाविक है, उसी धर्म को मानने वालों की। तब क्यों पूरी दुनिया में जेहाद फैलाने वालों की करतूत पर इस्लाम के अनुयायी चुप बैठे हैं? आज यह बात पूरे मुस्लिम समाज को समझने की जरूरत है कि उनके चुप बैठने से ये जेहादी मानसिकता की बिमारी कल उन्हें ही ना निगलने लगे, जैसे पाकिस्तान में हालिया एक सैन्य स्कूल पर हमला करके इन जेहादियों ने बताया है।

निर्दोष लोगों की हत्या, संपत्ति की बर्बादी, लोगों को आतंकित करने का प्रयास यह इस्लाम का कौन सा चेहरा है।  क्यों इस्लाम के प्रचार में हत्याओं और धमकियों की बहुत बड़ी भूमिका है? वहीं ओ ! अहमद शाह अब्दाली, मुहम्मद बिन कासिम, शहीद सईद अहमद और पैगम्बर व उनके साथियों की तरहएक हाथ में कुरआन और दूसरे हाथ में तलवार लो और जिहाद के क्षेत्र की ओर निकलो।इराक और सीरिया की रेगिस्तान की मिटटी से उठनेवाली पुकार सुनो, ढाढस बांधो और जिहाद की मातृभूमि अफगानिस्तान की ओर निकलो।यह पुकार जो दुनियाभर के मुसलमानों को वैश्विक जिहाद के लिए आह्वान करते हुए की जा रही है, इसे किसी ओर को आगे बढ़कर नहीं खुद मुसलमानों को ही आगे आकर नकारना होगी और जेहाद के रास्ते पर जो चल पड़े हैं या चलने की तैयारी कर रहे हैं, उन्हें यह बताना होगा कि धर्म का सार मानवता की सेवा करना है ना कि हत्यायें करना। धर्म के नाम पर दुनिया में अब तक बहुत खून बह चुका है, इसे आगे नहीं बहने दिया जाएगा। बस करो, बस भी करो अल्लाह के नाम पर वैश्विक हत्यायें बंद करो। यदि हमारे धर्म में कोई कमी है तो उसकी आलोचना सहज स्वीकार्य करते हुए उन्हें दूर करने के सामूहिक और एकांतिक प्रयास किए जाने चाहिए ना कि हत्यायें।