अलग थलग दुनियाँ से फिर भी इस दुनियाँ में रहता हूँ

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श्यामल सुमन

भावना

अलग थलग दुनियाँ से फिर भी इस दुनियाँ में रहता हूँ

अनुभव से उपजे चिन्तन की नव-धारा संग बहता हूँ

 

पद पैसा प्रभुता की हस्ती प्रायः सब स्वीकार किया

अवसर पे ऐसी हस्ती को बेखटके सच कहता हूँ

 

अपना कहकर जिसे संभाला मेरी हालत पे हँसते

ऊपर से हँस भी लेता पर दर्द हृदय में सहता हूँ

 

इन्डिया और भारत का अन्तर मिट जाये तो बात बने

दूरी कम करने की अपनी कोशिश करता रहता हूँ

 

जश्न मनाया चोरों ने जब थाने का निर्माण हुआ

बना खंडहर भाव सुमन का भाव-जगत में ढ़हता हूँ

सपना

बचपन से ही सपन दिखाया, उन सपनों को रोज सजाया।

पूरे जब न होते सपने, बार-बार मिलकर समझाया।

सपनों के बदले अब दिन में, तारे देख रहा हूँ।

सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

 

पढ़-लिखकर जब उम्र हुई तो, अवसर हाथ नहीं आया।

अपनों से दुत्कार मिली और, उनका साथ नहीं पाया।

सपन दिखाया जो बचपन में, आँखें दिखा रहा है।

प्रतिभा को प्रभुता के आगे, झुकना सिखा रहा है।

अवसर छिन जाने पर चेहरा, अपना देख रहा हूँ।

सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

 

ग्रह-गोचर का चक्कर है यह, पंडितजी ने बतलाया।

दान-पुण्य और यज्ञ-हवन का, मर्म सभी को समझाया।

शांत नहीं होना था ग्रह को, हैं अशांत घर वाले अब।

नए फकीरों की तलाश में, सच से विमुख हुए हैं सब।

बेबस होकर घर में मंत्र का, जपना देख रहा हूँ।

सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

 

रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?

सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते विज्ञापन?

नियम तोड़ते, वही सुमन को, क्यों सिखलाते अनुशासन?

सच में झूठ, झूठ में सच का, क्यों करते हैं प्रतिपादन?

जनहित से विपरीत ख़बर का, छपना देख रहा हूँ।

सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।

 

प्रेम है दीपक राग

मिलन में नैन सजल होते हैं, विरह में जलती आग।

प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

 

आए पतंगा बिना बुलाए कैसे दीप के पास।

चिंता क्या परिणाम की उसको पिया मिलन की आस।

जिद है मिलकर मिट जाने की यह कैसा अनुराग।

प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

 

मीठे स्वर का मोल तभी तक संग बजते हों साज।

वीणा की वाणी होती क्या तबले में आवाज।

सुर सजते जब चोट हो तन पे और ह्रदय पर दाग।

प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

 

चाँद को देखे रोज चकोरी क्या बुझती है प्यास।

कमल खिले निकले जब सूरज होते अस्त उदास।

हँसे कुमुदिनी चंदा के संग रोये सुमन का बाग़।

प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

 

आत्मप्रवाह

कमी बहुत श्रोताओं की है वक्ताओं की नहीं कमी।

लिखने वाले भरे पड़े हैं फिर भी मैं क्यों लिखता हूँ?

 

प्यास है लेखक बन जाने की, लिप्सा है कवि कहलाने की।

किंचित् स्थापित कवियों संग, अवसर मिल जाये गाने की।

धीरे धीरे नाम बढ़ेगा, कवियों सा सम्मान मिलेगा।

पाठ्य पुस्तकों में रचना को, निश्चित ही स्थान मिलेगा।

हँसने वाले हँसा करें, पर बात यही दुहराऊँगा।

दिवा-स्वप्न साकार हुआ तो, राष्ट्रकवि बन जाऊँगा।

सार्थक इसी भाव को करने, रोज नया मैं सिखता हूँ।

इसीलिये मैं लिखता हूँ।।

 

क्षणभंगुर प्रकाश जुगनू का, अंधियारे में बहुत सहारा।

स्वयं प्रदीप्त हो अन्तर्मन में, फैलेगा एक दिन उजियारा।

काश अगर यह हो पाये तो, वह प्रकाश निज का होगा।

बासी चिन्तन उल्टी धारा, से मुक्ति संभव होगा।

सत्य कलम से निकलेगा तो, क्रांतिदूत कहलाऊँगा।

बेजुबान लोगों की भाषा, का वाहक बन जाऊँगा।।

रहता सदा भीड़ में फिर भी, अलग भीड़ से दिखता हूँ।

इसीलिये मैं लिखता हूँ।।

 

शांत झील में कंकड गिरता, लहरें तट तक जाती हैं।

साथी एक भी मिल जाये तो, मंजिल खुद आ जाती है।

एक और एक से ग्यारह बनकर, क्रांतिबीज बन सकता है।

फिर से इस भारतभूमि में, सत्य सुमन खिल सकता है।

नयी धारणा नये सोच से, नव जीवन सज जायेगा।

क्यों न हो अंधों की बस्ती, दर्पण सब बिक जायेगा।।

बौद्धिकता की अलख जगाने, एक जगह नहीं टिकता हूँ।

इसीलिये मैं लिखता हूँ।।

 

रोग

रोग समझकर अपना जिसको अपनों ने धिक्कार दिया

रीति अजब कि दिन बहुरे तो अपना कह स्वीकार किया

 

हवा के रूख संग भाव बदलना क्या इन्सानी फितरत है

स्वागत गान सुनाया जिसको जाने पर प्रतिकार किया

 

कलम बेचने को आतुर हैं दौलत, शोहरत के आगे

लिखना दर्द गरीबों का नित बस बौद्धिक व्यभिचार किया

 

बातें करना परिवर्तन की, समता की, नैतिकता की

जहाँ मिला नायक को जो कुछ उसपर ही अधिकार किया

 

सुमन भी उपवन से बेहतर अब दिखते हैं बाजारों में

कागज के फूलों में खुशबू क्या अच्छा व्यापार किया

 

जीवन का गणित

कहने को तो साँसें चलतीं हैं यात्रा-क्रम भी प्रतिपल बढ़ता जाता है।

मैंने तो देखा सौ बर्षों में मुश्किल से कोई एक दिवस जी पाता है।।

 

अचानक आज अपने जिन्दगी के दिनों का मोटे तौर पर हिसाब करने लगा। कहते हैं कि साहित्य वैयक्तिक अनुभूति की निर्वैयक्तिक प्रस्तुति है और आज उसी व्यक्तिगत अनुभव को आप सब के बीच बाँटने की कोशिश कर रहा हूँ।

एक इन्सान अमूमन लगभग सत्तर साल जीता है और साल के तीन सौ पैंसठ दिन के हिसाब से लगभग चौबीस हजार दिनों की आयु मानी जा सकती है। दिन रात मिलाकर चौबीस घण्टे होते हैं। अगर चौबीस घण्टे के समय का दैनिक हिसाब कर लिया जाय तो जीवन का हिसाब स्वतः लग जायगा यानि जितने घण्टे उतने हजार दिन।

हर चौबीस घण्टे में प्रायः हम सभी मोटे तौर पर आठ घण्टा सोते हैं और आठ घण्टा रोजी रोटी के लिये या तो काम करते हैं या भबिष्य में काम मिले, इसका प्रयास करते हैं अर्थात पढ़ाई, लिखाई, प्रशिक्षण इत्यादि। यह किसी भी आदमी के लिए अत्यावश्यक है। यानि चौबीस घण्टे में से सोलह घण्टे सिर्फ इन अनिवार्यताओं के लिए निकल गए जिस पर हमारा कोई वश नहीं होता। तो इस हिसाब से हमारे जीवन के लगभग सोलह हजार दिन सिर्फ इन दो बातों की भरपाई में ही बीत जाते हैं। अब बचे आठ हजार दिन। इस आठ हजार दिनों का भी मोटा मोटी हिसाब करने की जरूरत महसूस हुई।

यदि ध्यान से सोचा जाय तो उक्त दो महत्वपूर्ण कार्यों के अतिरिक्त कई काम ऐसे हैं जो हमें जीने के लिए करने ही पड़ते हैं। मसलन मुँह धोने से लेकर नहाने तक, कपड़ा बनबाने से लेकर साफ करने और पहनने तक, सामाजिक कार्य जैसे शादी-विवाह, श्राद्ध, आदि में शामिल होना, घर पर मित्रों का आना और मित्रों के घर जाना, बाजार के दैनिक कार्यों का निपटारा, और अन्य कई इसी तरह के दैनिक क्रियाकलापों का जब हम सूक्षमता से अध्ययन करते हैं तो पाते है कि बचे हुए आठ घण्टे में से चार घण्टे खर्च हो जाते हैं। यानि चार हजार दिन और खत्म। अब शेष चार हजार दिनों के बारे में यदि सोचें तो बचपन के कुछ दिनों निकालना होगा क्योंकि बचपन में न तो उतनी समझ होती हैऔर वह स्थिति परवशता की होती है।

सही अर्थों में यदि देखा जाय तो औसतन एक इन्सान के जीवन में मात्र ढ़ाई से तीन हजार दिन ही ऐसे होते हैं जिसे वह अपनी मर्जी से जी सकता है। जरा सोचें कि कितना कम समय है जीने के लिए और काम कितना करना है। हो सकता है कि कई लोगों को यह भी लगे कि यह एक नकारात्मक सोच है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी हैकि अगर ये बात किसी के हृदय में उतर जाय तो वह व्यक्ति कभी भी अपना समय खोटा नहीं करेगा और जिन्दगी में हर कदम सार्थकता की ओर उठेंगे। पता नहीं आप सब किस प्रकार से सोचते है? लेकिन कम से कम मेरे कदम तो उठे इस दिशा में, इसी कोशिश में हूँ।

जिन्दगी धड़कनों की है गिनती का नाम।

फिर जो बैठे निठल्ले है उनको प्रणाम।।

2 COMMENTS

  1. सुमन जी इन सारगर्भित कविताओ के लिए बहु बहुत धन्यवाद

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