कविता

रुक रुक के चलना, घुट घुट के जीने से अच्छा है……

रुक रुक के चलना, 

घुट घुट के जीने से अच्छा हैI

चल चल कर रुकना 

और घुट घुट के जीना, 

जीता इसी में संसार हैI

नादानी में सुख है,

इसी में तो परमात्मा खुश हैI

सुखी वही जिसने रुकना सीखा,

रुका वही जो नादान हैI

होशियारी में दुःख है,

इसी में तो संसार खुश हैI

रुक रुक के चलना, 

घुट घुट के जीने से अच्छा हैI 

परमात्मा की मर्जी में मौज है, 

मौज की मर्जी में मौन हैI

एकांत मौन का मान है,

भीड़ अवसाद का ज्ञान हैI

रुक रुक के चलना,

घुट घुट के जीने से अच्छा हैI

भावार्थ 

दौड़कर जो मिले वो संसार हैI

रुककर जो मिले वो परमात्मा हैI

मनुष्य इस संसार में दौड़ दौड़ कर 

विलासिता में फंसता चला जाता हैI इसी का नाम संसार हैI

परमात्मा को नादानी पसंद है और होशियारी नापसंदI नादानी में सुख हैI होशियारी और चालाकी में दुःख हैI इसी होशियारी में संसार खुशी ढूंढ़ रहा हैI जबकि सुख नादानी और कोमलता में हैI परमात्मा जो हमारे लिए करता है वही मौज़ का कारण बनता हैI अपनी मर्जी में तो दुःख और पीड़ा हैI परमात्मा की मर्जी में सुख और शांति हैI मौज़ तभी संभव है जब आप मौन हैंI एकांत मौन होना सिखाता है और भीड़ भ्रम  पैदा करती हैI भीड़ अवसाद का कारण हैI अतएव हम कह सकते हैं कि रुक रुक के चलना घुट घुट के जीने से अच्छा हैI

डॉ. शंकर सुवन सिंह