विविधा

कब तक सहता रहेगा भारत अपनी अस्मिता पर होते ये वार?

-नरेश भारतीय

वाराणसी के शीतला घाट पर ७ दिसम्बर २०१० को आरती के समय हुए आतंकवादी हमले के समाचार ने पुनरपि इस तथ्य को उजागर किया है कि वर्तमान छद्म पंथनिरपेक्षता की छत्रछाया में भारत की मूल धार्मिक उदारवादिता सुरक्षित नहीं है. इसलिए, क्योंकि यह कथित पंथनिरपेक्षता राजनीति प्रेरित होने के कारण प्राय: समूचे समाज के हितों की रक्षा नहीं कर पा रही, जिनमें हिंदू भी उसका मुख्य अंगभूत हैं. भारत का मूल हिंदू धर्म सहिष्णुतावादी है यह सर्व विदित है. वह सहज परंपरा से ही सर्व धर्म सम भाव का अनुगामी है. दुर्भाग्यवश गत अनेक वर्षों से इस परंपरागत हिंदू सहिष्णुता को समाज के एक न एक वर्ग-संप्रदाय विशेष का वोट दोहन करने के उद्देश्य से राजनीति के खिलाडियों ने भंग कर दिया है. समाज को मात्र भारतीयता के पुष्ट सूत्र में भी बांधने का सम्यक प्रयास करने की अपेक्षा उसे टुकड़ों में बाँटने का जो अपराध हुआ है उसी का दंड भुगत रहा है भारत.

भारत का बार बार इस्लामी कट्टरपंथ और पाकिस्तान प्रेरित समर्थित आतंकवादी एवं अलगाववादी वारों को सहते चले जाना और अन्ततः अमेरिका जैसे देश के दबाव में आकर कोई प्रतिरोधी कारवाई न कर पाना क्या उसके लिए लज्जास्पद नहीं बनता जा रहा? भारत के बाहर बसे भारतवंशी और अन्य लोग भी जब भारत की इस बेचारगी को देखते हैं तो समझ नहों पाते कि कब तक अपने अपमान की उपेक्षा करके आतंकवाद से लड़ने का मात्र दावा करता रहेगा भारत? दुविधा में ग्रस्त वह किस प्रकार अपनी अस्मिता कि रक्षा कर पायेगा?

क्या पहले हुए अनेक आतंकवादी हमलों की तरह इसे भी समय पा कर भुला दिया जाएगा? जो दिखाई देता है उसमें नेताओं के बयानों का वही ढर्रा है. इस हमले को बहुत बड़ा धमाका नहीं माना जा रहा. पूर्ववत लोगों को शांत रहने के अनुरोध किए जा रहे हैं. विस्फोट में मारे गए लोगों के परिवारों और आहत हुए लोगों को मुआवजा देने का तुरत आश्वासन दे दिया गया है. ये सब तो सही है लेकिन जो निरपराध ऐसी बर्बरता के शिकार हो कर अपने प्रियजनों को खो देते हैं उनका जीवन कभी भी सामान्य हो पाता है? हमलावरों को कायर कह दिया जाता है. और फिर बस कदम धीमे.

एक बार फिर इंडियन मुजाहीद्दीन नामक आतंकवादी इस्लामी कट्टरपंथी संगठन ने इस विस्फोट का दावा किया है. प्रधान मंत्री ने इसकी निंदा की और गृहमंत्री चिदम्बरम ने यह कहा कि वे पहले इस दावे की जांच करेंगे कि कहाँ तक सही है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे हमलों की सम्भावना पर राज्य सरकारों को बहुत पहले से चेतावनी केंद्र सरकार द्वारा दे दी गयी थी. उत्तर प्रदेश की सरकार पर ऐसे संवेदनशील स्थानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी की बात उन्होंने कही. तो क्या उस समय जब रक्तरंजित मानवता खून के आंसू बहा रही है केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को उनके कर्तव्य की याद दिलाना और सीधी जिम्मेदारी से पल्ला झाड लेने का अहसास सामान्य जनता को समाचार माध्यम से देना युक्तियुक्त है? आश्चर्य है कि देश का संपूर्ण नेतृत्व एकजुट हो कर कोई ठोस रणनीति निर्धारित करके एक जैसी प्रतिक्रिया देने का उपक्रम क्यों नहीं करता?

नया कुछ भी नहीं है. इसके आगे अमरीका और ब्रिटेन से सहानुभूति के कुछ शब्द सुनने को मिल जायेंगे और यदि कहीं भी यह भनक उन्हें मिली कि भारत के पास ऐसे सबूत मिल रहें हैं कि इस हमले की पृष्ठभूमि में भी कहीं पाकिस्तान का हाथ है तो पश्चिम द्वारा फिर से भारत को यह हिदायत दे दी जायेगी कि पाकिस्तान के विरुद्ध कोई तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त न की जाये. उसके बाद पहले ही की तरह से सब शांत पड़ जाएगा और आतंकवादी तत्वों को सही मिलेगी.

घटना के आस पास मंडराते कुछ तथ्यों में ऐसा बहुत कुछ स्पष्ट संकेत देता है कि विभाजनकारी इस्लामी तत्वों द्वारा देश में सामाजिक सौहार्द और शांति को भंग करने के सतत प्रयास जारी हैं. और आज जिस बात पर ध्यान केंद्रित किए जाने की नितान्त आवश्यकता है वह है बिना सोचे समझे ऐसी बयानबाजी जिसकी छाया में अब तक दोषी अपना घृणित खेल निर्बाध खेलते चले आये हैं. उन्हें अभयदान जैसा मिलता चला आया है. यही कारण है कि ऐसे आतंकवादी हमलों में कमी नहीं आयी है जिनमें हमलावरों ने धड़ल्ले के साथ देश की बहुसंख्यक हिंदू धार्मिकता पर प्रहार करना जारी रखा है. इस सन्दर्भ में जरा उन शब्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता है जो वाराणसी के शीतला घाट हमले का दावा करने वालों ने कहे हैं. ७ दिसम्बर को ही बीबीसी की एक रिपोर्ट जिसमें इंडियन मुजाहिद्दीन द्वारा उसे भेजे गए एक ईमेल के हवाले से यह कहा गया है कि इंडियन मुजाहिदीन इस हमले को छह दिसंबर से जोड़ता है. कहा है कि ‘…(छह दिसंबर) तुम्हारे देश को तब तक भयानक सपने की तरह डराता रहेगा जब तक मुसलमानों के साथ बाबरी मस्जिद के नुक़सानके लिए न्याय नहीं हो जाता है.. और यह कि ‘….तुम्हारे कोई भी मंदिर तब तक सुरक्षित नहीं जब तक भारत में वो सभी मस्जिदें जिन पर कब्ज़ा हुआ है, इज़्ज़त के साथ मुसलमानों को लौटाई नहीं जातीं.

जिस अयोध्या मामले का फैसला बरसों के विवाद को शांत करने के लिए पर्याप्त आधार प्रदान करता है और उससे सामाजिक सद्भाव का वातावरण पुष्ट होने की सम्भावना बनती है लेकिन यही तो किसी को वह स्वीकार नहीं है. या फिर सच यह है भी है कि हिंदू विरोधी तत्वों द्वारा बाबरी मस्जिद का ढिंढोरा पीट पीट कर भारत के मुस्लिम समाज को भडकाने, हिंदू आस्थाओं को चोट पहुँचाने और मंदिरों को ध्वस्त करने के घृणित अभियान की चेतावनी दे कर उसी काले इतिहास को दोहराने का दुष्प्रयास किया जा रहा है जो आक्रांता संस्कृति का परिचायक है? शायद कट्टरपंथी इस्लामी गुटों को इसका दावा करने से कोई गुरेज़ नहीं, जैसा कि इंडियन मुजाहिद्दीन के इस दावे में और अब तक हुए ऐसे ही उन हमलों के सन्दर्भ में स्पष्ट है. लेकिन जो मुस्लिम कट्टरपंथी नहीं हैं और सुख शांति के साथ भारत में हैं उनका भारतीय होने के नाते यह कर्तव्य बनता है कि वे हिंसा और आतंक की इस लहर को थामने के लिए खुला आह्वान करें. इस्लाम के नाम पर किए जाने वाले ऐसे बर्बरतापूर्ण हमलों को दुत्कार दें.

इसके साथ ही देश की राजनीति की दिशा यदि वर्तमान राजनीतिकारों ने नहीं बदली तो आस पास घटतीं ऐसी घटनाएं, आतंकवाद में उलझाव के दोषी पाए जाने वाले अफजल गुरु और कसाब जैसे अपराधियों को सही समय सज़ा देने में जानबूझ कर की जाने वाली देरी और बाहरी दबाव में कुछ ठोस न कर सकने की प्रकट ढुलमुल नीतियों के फलस्वरूप जो आतंकवाद फ़ैल रहा है उससे देश में वातावरण असुरक्षाग्रस्त होता प्रतीत हो रहा है. आतंकवाद के विरुद्ध भारत की नीति की पश्चिमी देश इसलिए भूरि भूरि प्रशंसा कर देते हैं क्योंकि अफगानिस्तान में उनकी अब तक की अपनी सफल-असफल रणनीति में उन्हें भारत से कोई व्यवधान स्वीकार्य नहीं है. पाकिस्तान को उन्होंने अपनी रणनीति का एक ऐसा मोहरा बना रखा है कि उसे अब न छोड़ते बनती है और न यथास्थिति बनाये रखते. अमरीका जानता है कि पाकिस्तान उसका निरंतर दोहन कर रहा है. अमरीका यह भी जानता है कि पाकिस्तान भारत के लिए सतत सिररदर्द बना हुआ है और सीमाओं पर घुसपैठ जारी रखता है. इस पर भी हाल में यह रहस्य भी खुला है कि मुंबई बम हमलों में पाकिस्तान के विरुद्ध प्रमाणों के बावजूद भारत ने अमरीका के दबाव के कारण पाकिस्तान के साथ रार मोल नहीं ली.

वर्ष १३ दिसम्बर २००१ में, भारत के संसद भवन पर हुए हमले में पाकिस्तान के खिलाफ सबूत थे, लेकिन भारत को अमरीकी दबाव में शांत बने रहना पड़ा. मुम्बई में हुए हमले के बाद फिर वही हुआ. क्या भारत के हित में कोई बाहरी पश्चिमिदेश कुछ कर पाए? नहीं. पाकिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर पूर्ववत बरकरार हैं. पाकिस्तान की सैनिक खुफिया संस्था आई सी आई अभी भी कश्मीरी अलगाव-वादियों को खुला समर्थन देती है. कहने को पाकिस्तान की सरकार कुछ भी कर सकने में असमर्थ है या सच यह है कि भारत के प्रति पाकिस्तान का जन्मजात दुर्भाव द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा के तहत बनाये रखना चाहती है? ये तथ्य उपेक्षा करने योग्य नहीं हैं. सब जानते हैं कि सच्चाई क्या है. जानते हैं कि भारत में सक्रिय बड़े या छोटे कट्टरपंथी आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान से प्रशिक्षण, सहायता समर्थन और आदेश निर्देश मिलते हैं. हमले होते हैं और उनके सूत्र देर सबेर पाकिस्तान के साथ जुड़े पाई जाते हैं. लेकिन इस पर भी भारत जैसा शक्तिसंपन्न देश लंबे अरसे से बने हुए इस सिरदर्द का सही इलाज नहीं ढूंढ पा रहा. क्यों?

भारत में मंदिरों पर हमलों की मुजाहिद्दीन की कथित धमकी में जिस आक्रांता इतिहास को दोहराने की गंध आती है उसे पहचानता है भारत. भारत में किसी के भी मस्तिष्क में समस्या मंदिर मस्जिद की नहीं है. अधिकांश भारतीय समाज संकीर्ण दृष्टिकोण अपना कर व्यवहार नहीं कर रहा. लेकिन इस पर भी जब देश के अंदर अपने क्षुद्र राजनीतिक लाभ हानि को सर्वोपरि रखने वाले तत्व हिंदू आतंकवाद का एक नया असत्य प्रसार कर उन्हें अभयदान देने की धृष्ठता करने लगते हैं जो देश को सामाजिक एकता के स्थान पर वस्तुतः विद्वेष और विभ्रम में धकेल कर विनाश के मार्ग पर ले जा रहे हैं तो आश्चर्य होता है. जो आतंकवादी हैं और छाती थोक कर देश का अहित करने की घोषणाएँ करते हैं उन्हें और क्या चाहिए? लेकिन शक्तिसंपन्न भारत कब तक अपनी अस्मिता पर निरंतर होते इन वारों को सहता रहेगा? कब तक देश की जनता इस प्रकार बढ़ती असुरक्षा के साये में सांस लेती रहेगी? देश के लिए अब आत्ममंथन का विषय है.