कविता साहित्‍य

जब नींद नहीं आँखों में

बेवजह रात को जब भी

मुझे नींद नहीं आती है

करवटें बदल बदल कर

रात गुज़र जाती है।

चादर की हर सिलवट तब,

कोई कहानी अपनी,

यों ही कह जाती है।

जब घर में आँगन होता था

और नींद नहीं आती थी

चँदा से बाते होती थीं,

तारों को गिनने में वो

रात गुज़र जाती थी।

हल्की सी बयार का झोंका

जब तन को छूकर जाता था,

उसकी हल्की सी थपकी,

नींद बुला लाती थी।

अब बंद कमरों मे जब

नींद नहीं आँखों में

यादों के झरोखे से अब

रात के तीसरे पहर में

नींद के बादल आते हैं

जो मुझे सुला जाते हैं।