जब नींद नहीं आँखों में

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बेवजह रात को जब भी

मुझे नींद नहीं आती है

करवटें बदल बदल कर

रात गुज़र जाती है।

चादर की हर सिलवट तब,

कोई कहानी अपनी,

यों ही कह जाती है।

जब घर में आँगन होता था

और नींद नहीं आती थी

चँदा से बाते होती थीं,

तारों को गिनने में वो

रात गुज़र जाती थी।

हल्की सी बयार का झोंका

जब तन को छूकर जाता था,

उसकी हल्की सी थपकी,

नींद बुला लाती थी।

अब बंद कमरों मे जब

नींद नहीं आँखों में

यादों के झरोखे से अब

रात के तीसरे पहर में

नींद के बादल आते हैं

जो मुझे सुला जाते हैं।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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