जलेबी नहीं है क्रांति


-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

जी हां,क्रांति जलेबी नहीं है। जिसका कलेवा कर लिया जाए। क्रांति किसी पार्टी का ऑफिस नहीं है जिसे बना लिया जाए और क्रांति हो जाए। क्रांति दोस्ती का नाम नहीं है। क्रांति मजदूर का धंधा नहीं है।गाली नहीं है। मजाक नहीं है। क्रोध नहीं है। घृणा नहीं है जिस पर जब मन आया थूक दिया जाए।

क्रांति किसी नारे में नहीं होती । उपासना में भी नहीं होती। क्रांति अंधविश्वास का नाम नहीं है। क्रांति कोई ट्रेडमार्क नहीं है। क्रांति लोगो नहीं है। क्रांति किसी की गुलाम नहीं है। क्रांति इच्छा का खेल नहीं है। कम्युनिस्ट संगठन की असीम क्षमता का नाम क्रांति नहीं है। क्रांति को आप बांध नहीं सकते। सिर्फ होते देख सकते हैं,चाहें तो भाग ले सकते हैं।

क्रांति तो सिर्फ क्रांति है। वह भगवान नहीं है,आस्था नहीं है,वह एक सामाजिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति की चेतना से स्वतंत्र है और उसे सम्पन्न करने में व्यक्तियों, मजदूरवर्ग, जनता आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। क्रांति का मतलब है मूलगामी सामाजिक परिवर्तन। मूलगामी सामाजिक परिवर्तन सामाजिकचेतना की अवस्था पर निर्भर करते हैं।

भारत में अब तक क्रांति नहीं हो पायी है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या कम्युनिस्ट पार्टियां जिम्मेदार हैं ? क्या कम्युनिस्ट नेताओं के कलह को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? भारत में कम्युनिस्ट भूल नहीं करते, विचारधारात्मक विचलन नहीं दिखाते,कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन नहीं होता, अनेक मेधावी कॉमरेड पार्टी से नहीं निकाले जाते और कम्युनिस्ट संगठित रहते,कभी गलती ही नहीं करते तो क्या भारत में क्रांति हो जाती ? जी नहीं,इसके बाद भी क्रांति नहीं होती।

क्या पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्ट क्रांति कर पाए हैं ? जी नहीं, क्रांति एक सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया है। उसे दल,विचारधारात्मक विचलन, दलीय फूट, व्यक्तियों की भूमिका आदि में संकुचित करके नहीं देखना चाहिए।

क्रांति की कुछ अनिवार्य वस्तुगत परिस्थितियां होती हैं और इन परिस्थितियों को राजनीतिक रूपान्तरण का जब कोई क्रांतिकारी संगठन रूप देता है तो बुनियादी परिवर्तन की प्रक्रिया तेज गति पकड़ लेती है।

जो लोग सोचते हैं कि कम्युनिस्ट संगठन होने मात्र से क्रांति हो जाएगी वे गलत सोचते हैं। यह भी गलत है कि कम्युनिस्टों का कोई विरोध न करे और उनके लिए समूचे देश में एकच्छत्र शासन का मौका दे तो क्रांति हो जाएगी। ये सारे प्रयोग असफल साबित हुए हैं। क्रांति किसी कल्पना का नाम नहीं है बल्कि वह ठोस भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है। विभिन्न सामाजिक वर्गों की राजनीतिक वफादारी पर निर्भर करती है।

जिस समाज में क्रांति होती है वहां सामाजिक उथल-पुथल होती है। यह सामाजिक उथल-पुथल किसी सामाजिक आवश्यकता के कारण होती है। जब संस्थान पुराने पड़े जाते हैं। तो वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं। हमें सोचना चाहिए क्या आधुनिक भारत के संस्थान जीर्ण-शीर्ण हो गए हैं ? क्या जनता की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बारे में कानून बनाने, तदनुरूप संरचनाएं बनाने और कार्यप्रणाली बदलने में संस्थान असमर्थ हैं ? क्या संस्थान अपनी अपडेटिंग कर रहे हैं ? कानून, संसद, संविधान, बाजार, धर्म आदि में अपडेटिंग हो रही है?

भारत की खूबी है कि यहां लगातार अपडेटिंग हो रही है। सामाजिक आवश्यकताओं को दमन के आधार पर कुचलने की बजाय पर्सुएशन ,कानून और नियमों के आधार पर नियमित किया जा रहा है। संस्थान यदि अपडेटिंग बंद कर दें तो क्रांति की संभावनाएं पैदा होती हैं।

संस्थान यदि डंडे के बल पर कोई चीज लागू करने की कोशिश करते हैं तो क्रांति का मार्ग प्रशस्त होता है। संस्थान अन्य के लिए स्थान नहीं दें तो क्रांति संभव है। संगठित मजदूरों की मांगों पर सरकार ध्यान नहीं दे तो क्रांति संभव है। पुराने मूल्यों और सामाजिक संबंधों के आधार पर जीना मुश्किल हो जाए और आम जनता उन्हें बदलने के लिए किसी भी हद तक कुर्बानी देने को तैयार हो जाए। जान तक की कुर्बानी देने को तैयार हो जाए तो क्रांति संभव है। ऐसी अवस्था में एकजुट कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में क्रांति की संभावनाएं प्रबल होती हैं। भारत में ये परिस्थितियां ही नहीं हैं।

भारत में क्रांति की संभावना इस लिए नहीं है क्योंकि यहां के आधुनिक संस्थानों ने क्रमशःसमयानुरूप अपने को बदला है। संगठित मजदूरवर्ग ने जब भी अपनी मांगे उठायी हैं उन पर मोटे तौर पर केन्द्र सरकार ने अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की है। हाल ही में भयानक आर्थिकमंदी के बावजूद संगठित मजदूरवर्ग को छठे वेतन आयोग के अनुसार नए वेतनमान और अन्य सुविधाएं प्रदान की गईं। इसका यह अर्थ

नहीं है कि केन्द्र सरकार मजदूर समर्थक है , जी नहीं,केन्द्र सरकार लगातार मजदूर विरोधी फैसले लेती रही है लेकिन ज्योंही वेतन और कैरियर से संबंधित मांगे रखी जाती हैं उसने सकारात्मक त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। ऐसी स्थिति में मजदूरों को बुनियादी परिवर्तन के लिए हरकत में लाना संभव नहीं है।

भारत में बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के मार्ग में उसी दिन सबसे बड़ी बाधा खड़ी हो गई जब स्वतंत्र भारत ने अपना संविधान स्वीकृत किया। इस संविधान के जरिए बुर्जुआ और सामन्ती वर्गों ने सत्ता के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया आरंभ कर दी । भारत जैसे विशाल कृषिप्रधान देश में नेहरूयुग के दौरान बुर्जुआजी को शक्तिसंपन्न बनाया गया और सामंतों के अधिकारक्षेत्र में शामिल इलाकों को अनछुआ छोड़ दिया गया। सामंतों को अधिकारहीन बनाए बिना भारत के किसानों और खेतमजदूरों का मजदूरों को समर्थन मिलना असंभव था क्योंकि बड़ी तादाद में खेतमजदूर सामंतों के खेतों में काम करते थे। खेतमजदूरों की संख्या मजदूरों से कई गुना ज्यादा है। कांग्रेस ने गावों में सामंती ढ़ांचे को तोड़ा ही नहीं। राजाओं का प्रिवीपर्स नेहरू युग में जारी रहा। इसके कारण गांवों में सामंतवाद फलता-फूलता रहा। संसद में राजाओं और बड़े सामंतों की बहुत बड़ी तादाद लगातार चुनकर आती रही है।

सामंती दबाव के कारण मजदूरवर्ग का खेतमजदूरों के साथ मोर्चा ही नहीं बन पाया। इसके अलावा क्रांति के लिए दुकानदारों और व्यापारियों में भी जनाधार बनाने की आवश्यकता थी जिसे कभी कम्युनिस्टों ने गंभीरता से नहीं लिया और दुकानदारों-व्यापारियों को संघ परिवार और कांग्रेस के ही कब्जे में छोड़ दिया। ऐसी स्थिति में जिस सशक्त सामाजिक शक्ति संतुलन के निर्माण की जरूरत थी वह हो ही

नहीं पाया। कालांतर में मजदूरों में तेजी से एक नए वर्ग ने जन्म लिया जिसे हम साइबर मजदूर कहते हैं, ये भी मजदूर संगठनों की पकड़ के बाहर हैं ऐसे में मजदूरवर्ग की सामाजिक शक्ति सीमित होकर रह गयी है।

भारत में क्रांति न हो पाने का एक अन्य बड़ा कारण है बैंकिंग व्यवस्था। केन्द्र सरकार का राष्ट्रीयकृत बैंकों के जरिए विभिन्न क्षेत्रों में ऋण वितरण करना। इसके लिए कांग्रेस ने सबसे पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और बाद में बैंकों को औजार की तरह सामाजिक-राजनीतिक संतुलन बुर्जुआजी के पक्ष में करने के लिए इस्तेमाल किया। प्रत्येक बैंक को यह तय किया कि उन्हें कितना पैसा किसानों को कर्ज देना है, कितना दुकानदार-व्यापारियों आदि को देना है और कितना मध्यवर्ग के लोगों के लिए घर वगैरह के लिए कर्ज देना है। सरकारी बैंकों से कर्ज की सुविधाएं मुहैय्या कराकर केन्द्र सरकार ने मध्यवर्ग और पेशेवर तबकों को क्रांति के दायरे से निकालकर बुर्जुआ विकास के दायरे में शामिल कर लिया।

दूसरी ओर नौकरशाही को खुली छूट दी और उसके ऊपर किसी भी किस्म का अंकुश नहीं लगाया। इससे सामाजिक शक्ति संतुलन मजदूरों और कम्युनिस्टों के विपरीत चला गया। यह संभव नहीं है कि खेत मजदूर, किसान, दुकानदार-व्यापारी, मध्यवर्ग के बिना कोई बड़ा राजनीतिक मोर्चा वामपंथी बना लें।

वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में शक्ति संतुलन अपने पक्ष में किया है इसके कारण ही उन्हें वहां 40-48 प्रतिशत तक वोट मिलते रहे हैं। बाकी इलाकों में सिर्फ संगठित मजदूरों तक ही वामपंथियों की पहुँच हो पायी है। यह वास्तविकता है।

हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस तरह कम्युनिस्ट अपने पक्ष में सामाजिक शक्ति-संतुलन पैदा करना चाहते हैं, बुर्जुआजी भी अपने पक्ष में सामाजिक शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है। बुर्जुआजी हमेशा संगठित मजदूरों के गुस्से का शमन करने की चेष्टा करता रहा है। बुर्जुआजी ने सचेत रूप से गैर-मजदूरवर्ग को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है। किसानों की 90 हजार करोड़ रूपयों की कर्जमाफी का फैसला एक वर्गीय फैसला था जिसने बुर्जुआजी का किसानों में अलगाव कम किया है।

भारत में मजदूर आंदोलन की मुश्किल यह भी है कि उसके नेताओं,सदस्यों और कार्यक्रमों में अर्थवाद हावी है । अधिकांश इलाकों में मजदूरवर्ग अभी तक सर्वहाराचेतना से लैस नहीं हो पाया है। मजदूरों में पुराने सड़-गले मूल्यों के प्रति प्रेम और आकर्षण अभी भी बचा हुआ है।

कम्युनिस्टों में संसदीय लोकतंत्र के प्रति मोह बढ़ा है। संसदीय लोकतंत्र के प्रति मोह को बढ़ाने में पश्चिम बंगाल के दीर्घकालीन संसदीय वामशासन की भी बड़ी भूमिका है। कम्युनिस्टों में संसदीयमोह का बढ़ना इस बात का संकेत है कि निकट भविष्य में कम से कम कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी बड़ी राष्ट्रव्यापी जंग में शामिल होने नहीं जा रही हैं। संसदीयमोह का अर्थ है अब संघर्ष नहीं सांकेतिक प्रतिवाद करो।

जनता के असंतोष को कम्युनिस्ट राजनीतिक पूंजी में तब्दील न कर लें इस ओर कांग्रेस ने बड़े ही सुनियोजित ढ़ंग से समय-समय पर ध्यान दिया और अपने वर्गीय दोस्तों के हितों की रक्षा की। इसके कारण उसे कम्युनिस्टों के राजनीतिक प्रसार को सीमित करने में मदद मिली।

7 COMMENTS

  1. प्रो डा मधुसूदन की बात गहरे अर्थ में वाजिब है …..फ़्रांसिसी क्रांती ,अक्तूबर क्रांती या चीनी क्रांती के बरक्स भारत में अंध धार्मिकता अर्थात साम्प्रदायिकता एक बड़ी अभेद्य दीवार है …जिस देश में २५०० साल से अहिंसा परमोधर्म या भवति भिक्षाम देहि का मंत्रोच्चार होता रहा हो ,जिस देश में -गौ धन गज -धन ,वाजि धन और रतन धन खान ….
    जब आवे संतोष धन ,सब धन ,धूरि सामान …..
    का सिद्धांत लागू हो ..वहां पर कम्युनिस्ट क्रान्ति तो क्या कोई भी क्रांति असंभव है .
    इसका एक फायदा भी है की चलो समाजवाद न सही किन्तु धर्मों का पाखण्ड वाद भी सफल नहीं हो सकता …यही वजह है की भारत को किसी खास मजहब में ढालने की कोशिशें सदियों से असफल रहीं हैं …श्रीराम तिवारी

  2. mere uprokt comment mein ekmukhya baat to chhoot hi gayee ki jitna bhrashtaachaar bhaarat mein aaj hai,utnaa to shaayad Roos mein kraanti ke samay nahi hi rahaa hogaa.yah aur baat hai ki Roos bhi aaj bharaashtaachar ke maamale mein bahut aage hai.

  3. तिवारीजी ने इतने विशेषण जोड़ दिए की अब कुछ कहने को बचा ही नहीं.भारत में किसी क्रांति के न सफल होने का एक कारण यह भी है की हम सबकुछ भगवान के भरोसे छोड़ देते हैं भगवान् की जड़ यहाँ इतनी गहरी है की उससे ऊपर उठकर कुछ करना यहाँ आसान नहीं है.मेरे विचार से क्रांति तभी संभव है यदि हम सचमुच दिशा परिवर्तन में विश्वास करते हों.मेरे विचार से रूसी क्रांति के समय जो रूस की हालत थी उससे बेहतर हालत हमारी शायद आज भी नहीं है.भारत में जितनी भूखमरी,बेरोजगारी या बिसंगति आज है,मैं नहीं समझता की रूसी क्रांति के समय वहां इससे जयादा ये सब चीजें थी.अतः भारत में क्रान्ति के bishaya में सोचने के लिए इन सब बातों पर भी ध्यान देना होगा.आज हमारे जो नक्सल नेता सोच रहे हैं की वे क्रान्ति कर सकेंगे,उन्हें भी अंत में hathiyaar डालना ही पड़ेगा,यह मेरा विश्वास है.unki asfalataa ka ek anya aaran bhi hai.usako chalaane walon ne kabhi bhookh ka saamanaa nahi kiyaa.atah bhookh ki antahpeeda ko ve samajh bhi nahi sakate.bhookh ki baat karanaa bhi unke liye glaimar hai.Arundhati Roy ka haal ka lambaa lekh dhekh kar to mujhe aur jyadaa aisa lagane lagaa hai.

  4. lajabaab…bemishaal……behtareen…..shaandaar…jaandaar….vajandaar…..imaandaar…aalekh badhai……kranti ki is vyaakhya ke liye dhanywad….kranti ke maarg ki ek or badi badha hai….dharmaandhta+saamprdaayikta,iska bhi jikr hona tha ki nahi?

  5. भारत जैसे देश की परिस्थितियों का आपने अच्छा विश्लेषण किया है , मेरे विचार से भारतीय वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग के विचार एवं व्यव्हार में अंतर के कारन क्रांति के मार्ग से दूरी लगातार बढाती जा रही है .

  6. चतुर्वेदी जी आजका आपका लेख, मेरी दृष्टिमें विचारोत्तेजक है, और मेरी मान्यताएं भी कुछ कुछ ऐसी ही है। भारत का चित्त मानस “उत्क्रांति शील” है, इस लिए क्रांति यहां होगी, यह बहुतांश में असंभव प्रतीत होता है। इसका मौलिक कारण मेरी दृष्टिमें हिंदुत्व प्रेरित सर्व समन्वयी भारतीय (मेरा शब्द हिंदु ) संस्कृति ही है। यही इसका रहस्य है। चार वेदों से–>१०८ उपनिषद –>१८ पुराण–>१८ उप पुराण–> ६ दर्शन–>४ योग–३३ कोटि देवता–>रामकृष्ण, अरविंद,योगानंद, रमण महर्षि,गांधी, विनोबा, हेडगेवार, अंबेडकर, —इत्यादि इत्यादि; यह सारे छोटे बडे अंशिक रूपमें अपडेटींग ही समझे जाएं।। बार बार इस समाजमें करेक्षन करते रहें हैं। हमेशा इस धाराका जल बहता रहा है, तो वह सडना असंभव हैं।महाराज, इसी लिए हम सनातन भी हैं। बहता पानी-रमता जोगी।
    फिर सारे आपही के शब्द ===>
    “भारत की खूबी है कि यहां लगातार अपडेटिंग हो रही है। सामाजिक आवश्यकताओं को दमन के आधार पर कुचलने की बजाय पर्सुएशन ,कानून और नियमों के आधार पर नियमित किया जा रहा है। संस्थान यदि अपडेटिंग बंद कर दें तो क्रांति की संभावनाएं पैदा होती हैं।”
    ==यही अपडेटींग को आप/हम कितनी सक्षमता से क्रियान्वित कर सकते हैं, उस पर हमारा भाग्योदय अवलंबित है।== ॥सर्वेषां अविरोधेण(न?)॥

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