राजनीति

जम्मू-कश्मीर की मूल समस्या और उसका संवैधानिक समाधान

– धाराराम यादव

देश की स्वतंत्रता ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वातंत्र्य अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत प्राप्त हुई जिसके अनुसार तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता के आधीन भारत को दो भागों में विभाजित करके दोनों भागों को डोमिनियन स्टेट्स प्रदान किया गया था। जिसमें से एक का नाम भारत एवं दूसरे का पाकिस्तान रखा गया। देश भर की देशी रियासतों को उसी अधिनियम में निहित प्रावधानों के अन्तर्गत यह अधिकार दिया गया था कि वे दोनों डोमिनियनों में से जिनमें उचित समझें विलीन कर लें अथवा अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखें। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने अपनी सूझ-बूझ, राजनीतिक एवं कूटनीतिक कौशल तथा उच्च कोटि की दूरदर्शिता का सदुपयोग करते हुए देश की 562 देशी रियासतों को भारत में विलय कराकर एक सशक्त देश का निर्माण किया था, इनमें हैदराबाद और जूनागढ़ की वे रियासतें भी शामिल थीं जिनके राजप्रमुख मुस्लिम समुदाय से संबंधित थे और भारत के बीच में रहकर पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे। उनके लिए गृह मंत्री द्वारा बाध्य होकर हल्का बल प्रयोग भी किया गया था। उस समय एक रियासत जम्मू-कश्मीर के मामले को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथ में रखा। उस राज्य की स्थिति विशेष प्रकार की थी। वहां के महाराजा हरिसिंह (डॉ. कर्ण सिंह के पिता) स्वयं हिंदू थे किंतु मुस्लिम जनसंख्या वहाँ बहुमत में थी। महाराजा हरिसिंह ने कुछ अज्ञात कारणों से भारत में विलय करने में आनाकानी करते हुए काफी विलम्ब कर दिया। अनुमान लगाया गया कि वे जम्मू-कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। इसी बीच 20 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान के संस्थापक कायदेआजम जिन्ना के निर्देश पर पाक-कबायली और पाक सेना द्वारा जम्मू-कश्मीर पर सशस्त्र आक्रमण कर दिया गया और नागरिकों पर वीभत्स अत्याचार किये गये। जिन्ना जम्मू-कश्मीर पर विजय प्राप्त करके श्रीनगर में शीघ्र चाय पीना चाहते थे।

कहा जाता है कि राज्य के मुस्लिम सैनिक आक्रमणकारियों से मिल गये और 5-6 दिनों के भीतर ही कबायली और पाक सेना की मिली-जुली टुकड़ी राज्य की राजधानी श्रीनगर और हवाई अड्डे के काफी निकट पहुँच गयी। इस गंभीर परिस्थिति का आकलन करके 26-27 अक्टूबर, 1947 को महाराज हरिसिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करके जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की औपचारिकता पूरी कर दी। विलय के तत्काल बाद भारत की सेनाएं हवाई मार्ग से श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरना शुरू हो गयीं और पाक प्रेरित कबायलियों और वहाँ की सेना की भारतीय सेनाओं ने राज्य के बाहर की ओर खदेड़ना शुरू कर दिया। उसी समय भारत की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू द्वारा एक गंभीर कूटनीतिक गलती करते हुए पाकिस्तानी आक्रमण के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में शिकायत दर्ज करा दी गयी। जहाँ से तत्काल युद्ध विराम की घोषणा कर दी गयी। भारतीय सेनाओं ने बढ़ते कदम रोक दिये गये। इस रुकावट के कारण जम्मू-कश्मीर के कुल क्षेत्रफल 2,22,236 वर्ग किलोमीटर के लगभग एक तिहाई 78,114 वर्ग किलो मीटर पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं और जिसे पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ कहता है। पाकिस्तान भारतीय कश्मीर को ‘गुलाम कश्मीर’ कहकर सम्बोधित करता है और उसके शासक विगत् 6 दशकों से रह-रह कर आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर में अवैध रुप से प्रवेश कराकर विध्वंसक कार्यवाही कराते रहते हैं। वहाँ के शासक खुले आम यह घोषणा करते रहते हैं कि वे जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता संघर्ष का न केवल समर्थन करेंंगे, वरन् स्वतंत्रता सेनानियों को उनके संघर्ष में सभी प्रकार का सहयोग भी देंगे।

26-27 अक्टूबर, 1947 को भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के विलय के उपरांत उस राज्य की संवैधानिक स्थिति वही होनी चाहिए थी जो राजस्थान की रियासतों सहित 562 देशी रियासतों की भारत में विलय के बाद हो गयी थी किन्तु यह अब तक नहीं हुआ। उसे विशेष दर्जा देकर अलगाववाद को बढ़ावा देने का कार्य स्वयं केन्द्र की कांग्रेस सरकारों द्वारा किया गया।

ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारतीय स्वातंत्र्य अधिनियम’ के प्रावधानों के अनुसार जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराज हरिसिंह द्वारा भारतीय संघ में विलय हेतु 26-27 अक्टूबर, 1947 को निर्धारित विलय-प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त वह राज्य (जम्मू-कश्मीर) पूरी तरह देश का अभिन्न अंग बन गया किन्तु तत्कालीन केन्द्रीय सत्ता की ढुल-मूल नीति, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनमत संग्रह के प्रस्ताव और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 (संक्रमणकालीन अस्थायी अनुच्छेद) आदि के कारण जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा कायम रहा। यहां तक कि स्वतंत्रता के बाद उस राज्य में प्रवेश के लिए ‘परमिट’ लेने की व्यवस्था बहाल की गयी जिसके विरुद्ध तत्कालीन भारतीय जनसंघ ने देश व्यापी आंदोलन छेड़ दिया। आन्दोलन को धार देने के लिए जन संघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बिना परमिट राज्य में प्रवेश का प्रयास किया जिस पर जम्मू-कश्मीर की तत्कालीन शेख अब्दुला सरकार ने डॉ. मुखर्जी को गिरफ्तार करके कारागार में डाल दिया जहां 23 जून, 1953 को संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। यह जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में पूर्ण विलय के लिए दिया गया किसी भारतीय का पहला और महत्वपूर्ण बलिदान था।

तब से अब तक गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है। जम्मू-कश्मीर के लिए एक अलग संविधान बनाया गया है जो 1956 से वहां लागू है। पूरे देश में जम्मू-कश्मीर एक मात्र ऐसा राज्य है जहाँ एक अलग संविधान लागू है जिसके अनुसार जम्मू-कश्मीर विधान सभा के विधायकों का कार्यकाल 6 वर्ष निर्धारित है जबकि देश के अन्य सभी राज्यों के विधायकों का कार्यकाल केवल पांच वर्ष ही रखा गया है। जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा भी नियत किया गया है। भारतीय संसद द्वारा पारित कोई कानून जम्मू-कश्मीर में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि वहां की विधान सभा उसे लागू करने का प्रस्ताव न पारित कर दे नितांत ‘अस्थायी एवं संक्रमण कालीन’ अनुच्छेद-370 (संविधान में इस अनुच्छेद का यही विशेशण लिखा है) को निरस्त करने की मांग देश के पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा ‘साम्प्रदायिक’ घोषित कर दी गयी है। यह अत्यंत आश्चर्यजनक विडंबना है कि जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की मांग देश के मूर्धन्य पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा साम्प्रदायिक करार दे दी गयी है। रह-रह कर जम्मू-कश्मीर विगत् 6 दशकों से अधिक समय से सुलग रहा है। नब्बे के दशक के प्रारंभ में (1990-92) तक उस राज्य की स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी कि वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं (कश्मीरी पंडितों) को राज्य से पलायन करना पड़ा और वे कश्मीरी पंडित जिनकी संख्या 4-5 लाख बतायी जाती है, विगत् बीस वर्षों से अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में भटक रहे हैं। उनका कोई पुरसा हाल नहीं है। देश का कोई पंथनिरपेक्ष दल उन हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति तक व्यक्त करने को तैयार नहीं है। उन्हीं दिनों आतंकियों से मिलकर वहाँ के अलगाववादियों ने यह घोषणा कर दी कि जो भी व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में भारत का राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा झंडा) लेकर दिखायी पड़ेगा उसे गोली मार दी जायेगी। उस राज्य में केवल राजभवन (राज्यपाल के निवास) एवं सुरक्षा बलों के शिविरों को छोड़कर अन्य किसी स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराना बंद कर दिया गया।

ऐसी विषम परिस्थितियों में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने खुलेआम यह घोषणा कर दी कि वे 26 जनवरी, 1992 को जम्मू-कश्मीर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस के उपलक्ष में राष्ट्रीय तिरंगा झंडा फहरायेंगे। आतंकियों ने घोषणा कर दी कि डॉ. जोशी को तिरंगा फहराने के पूर्व जो यदि गोली मार देगा, उसे वे दस लाख रुपये इनाम देंगे और डॉ. जोशी तिरंगा फहराने में सफल हो गये, तो उन्हें वे दस लाख रुपया पुरस्कार स्वरूप देंगे। डॉ. मुरली मनोहर जोशी इस धमकी से डरे नहीं, झुके नहीं और उन्होंने कन्या कुमारी से श्रीनगर की यात्रा करके निर्धारित तिथि 26 जनवरी, 1992 को राज्य के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर देश के सम्मान की न केवल रक्षा की, वरन् निर्विवाद रूप से यह भी सिद्ध किया कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और वहां भारतीय तिरंगा फहराने से कोई रोक नहीं सकता। केन्द्र सरकार द्वारा हजारों करोड़ रुपये का पैकेज देकर भी जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों का दिल नहीं जीता जा सका। वे पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाते हैं। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने उस समय डॉ. जोशी की कन्याकुमारी से श्रीनगर की यात्रा रोकी तो नहीं, किन्तु सार्वजनिक रूप से यह घोषणा अवश्य कर दी थी कि भारत सरकार डॉ. जोशी की सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती। यदि हृदय पर हाथ रखकर सच्चाई बयान की जाये, तो जम्मू-कश्मीर की मूल समस्या घाटी में मुस्लिमों का बहुसंख्यक होना है। बचे-खुचे 4-5 लाख कश्मीरी पण्डितों को वहां की बहुसंख्या द्वारा पहले ही निर्वासित किया जा चुका है। संविधान के अनुच्छेद 370 एवं जम्मू-कश्मीर के संविधान की विभिन्न धाराओं के अनुसार भारत के किसी क्षेत्र का नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो जमीन-जायदाद खरीद सकता है और न स्थायी रूप से वहां बस सकता है। यह अवश्य है कि जम्मू-कश्मीर के निवासी भारत में ही कहीं भी जमीन-जायदाद खरीद कर बस सकते हैं, कहीं भी व्यवसाय या नौकरी कर सकते हैं। इस वर्ष संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित देश की प्रतिष्ठित परीक्षा (आई.ए.एस.) में जम्मू-कश्मीर के डॉ. फैसल शाह ने टॉप किया है। देश भर में जम्मू-कश्मीर के निवासियों के प्रति कोई भी भेदभाव नहीं है। जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी संगठन हुरियत कान्फ्रेस जब चाहता है, घाटी में बंद आयोजित कर देता है। जगह-जगह पाकिस्तानी झण्डे फहरवा देता है। जम्मू -कश्मीर में राज्यपाल रह चुके एस. के. सिन्हा ने स्पष्ट कहा है कि अगर वहाँ अवाम को भड़काकर सुरक्षाबलों पर पत्थर चलवाया जायेगा तो सुरक्षा सैनिक उन पत्थरबाजों को माला नहीं पहनायेंगे। वहाँ शांति बहाली के लिए आवश्यक है कि अनुच्छेद 370 निरस्त करके जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करके भारत का अभिन्न अंग बनाया जायी, निर्वासित कश्मीरी पंडितों को पुनः वहां ससम्मान और सुरक्षित बसाया जाये। भारत के किसी भाग के निवासी को वहां जमीन-जायदाद खरीद कर बसने की सुविधा प्रदान की जाय तब वह भारत का अभिन्न अंग हो जायेगा। आबादी के इसी प्रकार के असंतुलन के कारण 63 वर्ष पहले देश विभाजन कराकर पाकिस्तान बना था, अब जम्मू-कश्मीर में वही असंतुलन आतंकवाद की समस्या पैदा कर रहा है।

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार, समाजसेवी एवं अवकाश प्राप्त सहायक आयुक्त, वाणिज्यकार है।