राजनीति

झारखंड: इस (कुर्सी) प्यार को मैं क्या नाम दूं

-पंकज झा

फिर छिड़ी रात बात कुर्सी की. फिर मलाई के लिए लार टपकाने का दौर शुरू. फिर खंड-खंड झारखण्ड के टुकड़े में हिस्सेदारी के लिए जंग. फिर ‘राष्ट्रवाद’ नाम के चिड़िये का पंख नोच खसोट लेने की जद्दोजहद. शिकायत और किसी से नहीं भाजपा से है. उस भाजपा से जिसका आधार रहा है भावनात्मकता पर आधारित इकाई हिन्दुस्थान को प्रतिष्ठित करना. मां भारती की लाज हेतु सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहना. किसी भी क्षेत्रीय, अराष्ट्रीय समूहों को बेनकाब करना. लेकिन इसको क्या कहें जब शिकारी खुद ही शिकार हो जाय. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को मंगलवार को भाजपा के विधायक दल का नेता चुना लिया गया. पार्टी ने झामुमो और आजसू के साथ मिलकर राज्य में नई सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया है. बहरहाल.

पार्टियों से अपेक्षा यह नहीं है कि वह सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ ना करें. लोग भाजपा से यह भी उम्मीद नहीं करते कि जब बाकी पार्टियां देश का बंटाधार करते रहे तब वह केवल ‘राम भजन’ में मग्न रहे. राजनीति में ज़ाहिर है हर नीति का केंद्र ‘राज’ ही होता है और होना भी चाहिए. लेकिन सवाल तो यह है कि आखिर किस कीमत पर? कोई तो लक्ष्मण रेखा खीची ही जानी चाहिए ना? पार्टी स्वयं को दूसरों से अलग होने का दावा करती रही है. लोगों को उसके दावों पर भरोसा भी रहा है. तो उसकी जिम्मेदारियां तो निश्चय ही बढ़ जाती है ना कि वह कम से कम ऐसा दिखे भी. लोहिया कहा करते थे कि ‘लोकराज लोकलाज से ही चलता है.’ तो जब भाजपा भी सत्ता के लिए हर तरह का लिहाज़ छोड़ बेशर्मी के साथ सत्ता की बंदरबांट में सन्नद्ध रहे तब आखिर उम्मीद किस्से की जाय?

वैसे तो राजनीति में लगभग हर चीज़ भूली जा सकती है. वक्त की नज़ाकत समझ राजनीति में दोस्त को दुश्मन या इसका उलटा बना लेने में भी परहेज़ नहीं होती. थोडा सभ्य तरीके से लोग कहते भी हैं कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. लेकिन किस सीमा तक आखिर? सबसे बड़ी आपत्ति इस गठवन्धन से यही है कि वह नक्सलियों के समर्थन से चलेगी. यह कोई रहस्य नहीं है कि जिस झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ फिर-फिर साझेदारी हो रही है उसके केवल दो सांसदों में शिबू सोरेन के अलावा दूसरा दुर्दांत नक्सली कामेश्वर बैठा है. समर्थन देने वाले झामुमो विधायकों में से एक तो केवल इसलिए राज्यपाल के समक्ष परेड के लिए हाज़िर नहीं हो पाया क्युकी वह नक्सल मामले में ही जेल में बंद है. इसके अलावे समर्थन देने वाले कम से कम तीन विधायक ऐसे होंगे जो नक्सली हैं या रहे हैं. तो क्या भाजपा अब अपने प्राण तत्व ‘राष्ट्रवाद’ से भी किसी तरह का समझौता करने से भी नहीं हिचकेगी? झारखण्ड की राजनीति पर सामान्य नज़र रखने वाले भी यह समझते हैं कि यह सरकार भी कोई टिकाऊ नहीं होने जा रही है. आज-तक झामुमो ने किसी को भी समर्थन देने के बदले उच्चतम कीमत वसूलने की बाद भी चैन से नहीं रहने दिया. तो केवल कुछ दिनों, चंद लम्हों के लिए भी राज कर लेने में ऐसा क्या आकर्षण है कि पार्टी अपनी ‘पूजी’ ही गवां लेने को आतुर और तत्पर है? यह वही शिबू हैं जिसने नरसिम्हा राव सरकार को समर्थन देने के बदले अपने चार सांसदों को करोड़ों में बेचा था. लोकतंत्र के इस तरह मिट्टी पलीद होने की शुरुआत उसके साथ ही हुई थी. इसी मामले में अपने ही सचिव रहे शशिनाथ झा की ह्त्या होने को भी लोग भूले नहीं हैं. पडोसी राज्य बिहार में जहां अभी-अभी पार्टी को जनता का सामना करना है किस मूंह से वहां इस मामले पर सफाई देगी?

इसके अलावा बात चाहे चिरुडीह नरसंहार में दर्ज़नों अल्पसंख्यकों को भून देने के आरोप का हो या हत्याकांड के एक अन्य मामले में अदालत में मुख्यमंत्री रहते सशरीर उपस्थित होने के शर्म का. मुख्यमंत्री रहते हुए उपचुनाव में अपने घर का विधान सभा सीट भी गवाने का ‘रिकार्ड’ कायम करने वाले शिबू में आखिर ऐसा क्या है जिसके कारण भाजपा सब कुछ गवाने पर आतुर है, समझ से पड़े है. हर बार, हर तरह से जिस व्यक्ति ने तमाम परम्पराओं, लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे कर केवल स्वार्थ संधान किया हो उसके साथ सरकार साझा करने की मजबूरी को समझना मुश्किल ही है.

हां अगर इस एपिसोड से सबसे ज्यादा खुश कोई हो सकता है तो वह कांग्रेस है. सत्ता की बंदरबांट में लगे नेताओं को क्या ठहर कर एक बार भी सोचने की फुर्सत नहीं है कि आखिर कांग्रेस चुप क्यू है? जो पार्टी इसी राज्य में अपने राज्यपाल शिब्ते रजी की बदौलत अच्छी खासी सरकार को जबरन बर्खास्त करवा दिया हो. परोसी बिहार में बूटा सिंह का उपयोग कर बहुमत कि नितीश सरकार को निकाल बाहर किया हो. गोआ में राज्यपाल ज़मीर का उपयोग कर जिसने इसी तरह से भाजपा से जबरन कुर्सी छीन ली हो. सता के लिए किसी भी हद तक चली जाने वाली वह कांग्रेस भी अगर केवल दूर बैठे तमाशा देख रही हो तो सामान्य लोगों के लिए भी इशारा समझना मुश्किल नहीं है. लेकिन अफ़सोस कि पार्टी के मंजे हुए नेताओं को यह समझ नहीं आ रहा है.

पिछली बार इस लेखक ने लिखा था कि जिस तरह नक्सली एम्बुश लगा कर विरोधियों का सफाया करते हैं उसी तरह इस मामले में भाजपा भी कांग्रेस के एम्बुश का शिकार हो गयी. ज़ाहिर है नक्सल मामले में बात-बात पर आन्ध्र प्रदेश में पी डब्लू जी से समझौता किया जाने का जो आरोप भाजपा लगाती रही है अब वह किस मूह से लगायेगी? कांग्रेस के लिए इससे बड़ी जीत और क्या हो सकती है कि वह यह सन्देश दे सके कि तुम भी मेरे ही जैसे निकले. और रही बट झारखण्ड के शासन का तो वह तो उसकी जेब में रहेगा ही. कटौती प्रस्ताव पर मतदान के समय ही शिबू ने यह स्पष्ट कर ही दिया है कि जब भी ज़रूरत होगी वह कांग्रस की सेवा में जजीर ही रहेंगे. आखिर जिस ‘सीबीआई के दुरूपयोग’ को बाजिब रूप से बीजेपी ने राष्ट्रीय मुद्दा बनाया है वह अस्त्र तो कांग्रेस के पास है ही. चाहे तो मंत्री पद या अन्य लाभ देकर या फिर सीबीआई का भय दिखा कर जब भी ज़रूरत होगी शिबू को अपने अनुसार घुमाने में यूपीए सक्षम तो है ही. तो पिछली गलतियों से सबक ना लेते हुए केवल चंद लम्हों के लिए सत्ता हासिल करने की फ़िराक में भाजपा ने फिर से जिस हठधर्मिता का परिचय दिया है, वास्तव में उसके दूरगामी नकारात्मक परिणाम से इनकार नहीं किया जा सकता. और उसकी यह भूल लम्हों की खता सदियों की सज़ा के रूप में इसलिए नहीं मानी जायेगी क्युकि उसने अपनी हाल की ही गलतियों से सबक लेने की कोशिश नहीं की है.