कविता

झिरिया

lifeझंकृत होती दुनियावीं कामनाओं के स्वर

और

अपुष्ट अप्रकटित

कुछ पुरानी इक्छायें,

ढूँढते हुए अपनें मूर्त आकार को

आ गईं थी इस गली के मुहानें तक।

 

अपनें दबें कुचलें रूप

के साथ

कुछ उपलब्धियों का

असहज बोझ उठायें

उन सब का

गली से अन्तरंग होना

और उससे तारतम्य में हो लेना

एक रूपक ही था।

 

रूपक

और बिम्ब सभी में देखा तो था

बचपन की उस

सहजता भरी

बहुत गहरी झिरिया को।

 

झिरिया

जो गाँव से बहुत दूर थी

फिर भी

सुगम्य ही होती थी

मन में आती कुछ बातों के लिए।

 

अब जब सोचतें हैं

बड़ी दुर्गम लगती है

झिरिया

जबकि

पाँव कुछ अधिक सुदृढ़ हैं

और

कई दूसरी गलियों की परिभाषाओं से

करनें लगें है संघर्ष।