केंद्र में आए हिंदुत्व और मोदी

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modiप्रमोद भार्गव

भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की 76 सदस्यीय जो नर्इ टीम वजूद में आर्इ है, उससे साफ है कि एक तो भाजपा आक्रामक हिंदुत्व के अपने सनातन अजेंडे को आगे बढ़ा रही है, दूसरे उसने प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी की दावेदारी अनौपचारिक रुप से सार्वजनिक कर दी है। क्योंकि संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से जिस तरह से मोदी विरोधियों को दूर रखा गया है, वह इस बात की चतुरार्इ भरी कोशिश है कि यह शीर्ष इकार्इ वक्त आने पर बिना किसी झंझट के प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के नाम पर मुहर लगा सके। आक्रामक हिंदुत्ववादी चेहरों को जिस तरह से अहमियत दी गर्इ है, उससे साफ है कि भाजपा की धमनियों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का वैचारिक रक्त तेजी से दौड़ने लगा है।

छह साल बाद भाजपा के संसदीय बोर्ड में मोदी की गरिमापूर्ण वापिसी और उनके पंसद के नेताओं को बड़ी संख्या में पदों से नवाजा जाना, इस बात की तसदीक है कि 2014 के लोकसभा चुनाव की रणनीति को आकार देने में उन्हीं की अहम भूमिका होगी। केंद्रीय चुनाव समिति की सदस्यता मिलना भी इस बात का संकेत है कि उन्होंने चुनाव रणनीति के पहले चरण में प्रवेश पा लिया है। मोदी को महत्व मिलने की वजह कर्इ हो सकती हैं, लेकिन संघ और मोदी की इच्छा के अनुरुप पार्टी का पुनर्गठन करने की प्रकि्रया से साफ हो जाता है कि पार्टी ने 2014 का लक्ष्य साधने के ऐसे उपाय सुनिशिचत कर लिए हैं, जिससे उसे मोदी को आगे बढ़ाने में दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़े। इसी लिहाज से वरुण गांधी, उमा भारती और अमित शाह को अहम जिम्मेदारियां दी गर्इ हैं। प्रभात झा, मुरलीधर राव और थावरचंद गहलोत जैसे संघ के चहेतों को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह देकर पुरस्कृत किया गया है। यही नहीं संघ से सीधे जुड़े रामलाल को फिर से महासचिव बनाया गया है। जाहिर है, एक बार फिर भाजपा आम चुनाव के राजनीतिक पटल पर हिंदुत्व का कार्ड खेलने जा रही है। उत्तरप्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर भाजपा की निगाह टिकी है। यहां एक ओर उमा भारती के उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों से मतदाता को लुभाने की कवायद होगी, वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी की काट के लिए उन्हीं के वंशज वरुण गांधी को मैदान में उतारा गया है।

भाजपा आक्रामकता की ओर बढ़ रही है, यह इस बात से भी साफ हुआ है कि उदार व स्वच्छ छवि वाले नेताओं को हाशिये पर डाल दिया गया है। यहां तक की लालकृष्ण आडवाणी की बात को भी वजन नहीं दिया गया। आडवाणी और सुषमा स्वराज मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को संसदीय बोर्ड में प्रवेश नहीं दिला सके। यह आडवाणी के कद को घटाने की कवायद है। साथ ही जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, रविशंकर प्रसाद, कलराज मिश्र, नजमा हेपतुल्ला, भगतसिंह कोष्यारी और षांता कुमार से भी पार्टी ने किनारा करके जता दिया है कि भाजपा एक बार फिर उन्हीं मुददों और नारों के सहारे अपनी किस्मत आजमाना चाहती है, जो पिछले कर्इ चुनावों में पिट चुके हैं। दरअसल भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद संघ फिर से नितिन गडकारी को अध्यक्ष बनाने की पुरजोरी में लगा था, लेकिन इस जोर-जबरदस्ती के खिलाफ सबसे पहले यशवंत सिन्हा ने आवाज बुलंद की, जिसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी है। नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री बनने की राह में भी ये बुजर्ुगवार बड़े रोड़ा थे। इनके उलट प्रधानमंत्री पद पर मोदी की दावेदारी का खुलकर समर्थन करने वाले बलबीर पुंज, मीनाक्षी लेखी और स्मृति र्इरानी को उपाध्यक्ष बना दिया गया। तय है, मोदी का दबदबा संघ और राजनाथ पर हावी रहा है।

यह मोदी के प्रभाव का ही नतीजा है कि गुजरात के पूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह को भी महासचिव बना दिया गया। ये वही अमित शाह हैं, जिनकी सोहराबुददीन फर्जी मुठभेड़ कांड की साजिश रचने के आरोप में राज्य मंत्रीमण्डल से छुटटी कर दी गर्इ थी और उन्हें करीब तीन माह जेल के सींखचों के पीछे भी रहना पड़ा था। शाह अभी भी जमानत पर जेल से बाहर हैं। इस चेहरे को आगे लाकर राजनाथ सिंह राजनीति में शुचिता व राजनीति को अपराध मुक्त करने का क्या संदेश देना चाहते हैं, इस रहस्य से तो वही पर्दा उठा सकते हैं ? हां, इस रणनीति से यह संकेत जरुर फूटता है कि देर-सबेर मोदी पूरी तरह केंद्रीय राजनीति के कर्णधार बनते हैं तो गुजरात में मोदी के विकल्प अमित शाह हो सकते हैं। मोदी की महिमा का प्रभाव बिहार में भी झलका है। नीतिश कुमार के कटटर विरोधी सीपी ठाकुर को पदोन्नती देकर जद को आर्इना दिखा दिया है कि वह राजग गठबंधन से गांठ खोलने के लिए स्वतंत्र हैं। इधर मोदी को रोकने के लिए ही, नीतीश कांग्रेस से रिष्ते जोड़ने में लगे हैं। तय है, भाजपा में मोदी का जो कद बढ़ा है, वह राजग में नए समीकरण रचने की बुनियाद रखेगा।

हालांकि मोदी को प्रधानमंत्री की दौड़ में आगे लाने की व्यूहरचना भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की जयपुर में आयेजित बैठक में ही रच दी गर्इ थी। नरेन्द्र मोदी भी इस बैठक में कुछ इस तरह पेश आए थे कि कालांतर में भाजपा का भविष्य उन्हीं के कंधे ढोने वाले हैं। इसी समय से वे अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि भी उभारने में लगे हैं, जो मोदी को अखिल भारतीय असितत्व विस्तार के लिए जरुरी भी है। क्योंकि उनकी प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन कर उभरने की महत्वाकांक्षा भी तभी पूरी हो सकती है, जब उनकी बहुसमाजों और बहुधर्मावलंबियों में स्वीकार्यता बढ़े। इस उपाय में मोदी प्रत्यक्षतौर से लगे भी हैं। इस बैठक में उन्होंने इसीलिए अपने भाशण की शुरुआत सवा सौ करोड़ देशवासियों के संबोधन के साथ की थी। इसीलिए मोदी अब अवाम को बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक दृशिट से नहीं देख रहे हैं। क्योंकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति से वे गुजरात में तो पद और प्रतिष्ठा हासिल करने में कामयाब हो सकते हैं, किंतु राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह संभव नहीं है।

अब भाजपा अजेंडे के दो विपरीत ध्रुवों पर सवार होकर आगे बढ़ रही है। पहला अजेंडा दलगत रणनीति अपनाने का है, जिसके तहत वह आक्रामक हिंदुत्व और उसके पुरोधा नरेंन्द्र मोदी को आगे बढ़ा रहा है। पार्टी अजेंडे का दूसरा पहलू व्यकित केंदि्रत है, जिसे वह मोदी के जरिए विकास और सुषासन जैसे सर्वस्वाकार्य मुददों को लेकर आगे बढ़ रही है। इसलिए जब मोदी दिल्ली के श्रीराम कालेज में छात्रों से रुबरु होते हैं तब ‘स्वराज के अभाव में ‘सुराज की जरुरत पर जोर देते हैं और ‘वैशिवक परिदृष्य में विकास की अवधारणा का मंत्र पढ़ते दिखार्इ देते हैं। भाजपा और संघ का यही वह गुप्त अजेंडा है जो मोदी के रथ को दिल्ली की तरफ हांक रहा है। लेकिन राजनाथ सिंह भाजपा, संघ और मोदी जिस अजेंडे को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, उसकी पहली अगिनपरीक्षा कर्नाटक के विधानसभा चुनाव हैं। कर्नाटक में ऐसी अटकलें मुखर है ंकि भाजपा इस राज्य में अपनी सत्ता बचा नहीं पाएगी। अब देखना यह है कि मोदी की जादूगरी कर्नाटक को बचाने में कामयाब होती है अथवा नहीं ? यह चुनौती इसलिए भी मजबूत है क्योंकि इस राज्य में हाल ही में संपन्न हुए निकाय चुनाव में भाजपा तीसरे स्थान पर रही है। ऐसे में राजनाथ की नर्इ टोली से करिश्मे की उम्मीद है ?

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