
-मनमोहन कुमार आर्य
हम शरीर नहीं अपितु एक चेतन आत्मा है जो अत्यन्त अल्प परिमाण वाला है। हमारा आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म एवं अदृश्य है। मिलीमीटर वा इसके खण्डों में भी हम इसकी लम्बाई, चौड़ाई व ऊंचाई आदि को नहीं जान सकते। यह अभौतिक होने व स्थूल न होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता। हमारा यह आत्मा चेतन होने के ज्ञान व कर्म करने की क्षमताओं से युक्त है और अपने पूर्व व वर्तमान जन्मों के कर्मों के सुख व दुःख रुपी फलों को भोगता है। मनुष्य व अन्य प्राणियों को उनके कर्म-फलों का भोग ईश्वर द्वारा व उसकी व्यवस्था से कराया जाता है। वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन व चिन्तन-मनन से कर्म-फल सिद्धान्त समझ में आ जाता है। आजकल लोग वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन से दूर हैं, इसलिये वह जीवन के इस महत्वपूर्ण ज्ञान व रहस्यों से अपरिचित एवं अनभिज्ञ हैं। उनकी इस अज्ञानता से उन्हें अत्यधिक हानि होती है। यदि वह वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तो वह जन्म एवं मृत्यु के कारण, इससे होने वाले दुःखों तथा इससे बचने के लिये अत्यन्तानन्द की प्राप्ति के उपायों को जानकर उनका सेवन कर आनन्द के पर्याय मोक्ष की प्राप्ति में प्रयत्नशील होकर उसे प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर के साक्षात्द्रष्टा एवं वेदों के ज्ञान से सम्पन्न ऋषि दयानन्द ने इन सब रहस्यों को जानने के लिये अत्यधिक तप वा पुरुषार्थ किया था। वह देश भर में घूमें थे और देश के विद्वानों के पास जाकर उन्होंने प्रश्नोत्तर कर उनसे ईश्वर के सत्यस्वरूप, जीवात्मा के स्वरूप सहित मृत्यु पर विजय पाने के उपायों पर जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। वह इस मार्ग पर चलते हुए योग्य योग गुरुओं के सम्पर्क में भी आये थे और उनसे ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाली योग विद्या को सीख कर उसमें निष्णात हुए थे। इसके बाद उन्हें प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से वेद-वेदांगों का अध्ययन करने का सौभाग्य मिला जिससे वह वेद एवं वैदिक साहित्य को पूर्णतः समझने में सक्षम हुए थे। ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित जन्म-मरण के कारण और सभी दुःखों से मुक्त होने के उपायों व साधनों को जानकर उन्होंने अपने गुरु की प्रेरणा से देश में वेद और वैदिक मत का प्रचार प्रसार किया और सभी श्रोताओं के प्रश्नों का समाधान करने के साध धर्माधर्म विषयक अनेक जानकारियों से युक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याविभविनय आदि ग्रन्थों की रचना की।
परमात्मा, जीवात्मा एवं प्रकृति अनादि, नित्य, अविनाशी एवं अमर सत्तायें है। ईश्वर अजन्मा है। वह कभी जन्म नहीं लेता। उसके जन्म लेने का कोई हेतु भी नहीं है। ऐसा कोई कार्य नहीं है जो ईश्वर अपने निराकार व सर्वव्यापक स्वरूप में रह कर न कर सके। वह अपने निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान स्वरूप में रहकर ही इस सृष्टि का निर्माण करता व इसका पालन करता है। इस कारण अवतारवाद की मान्यता मिथ्या है। राम व कृष्ण आदि ईश्वर के अवतार नहीं अपितु वैदिक धर्म एवं संस्कृति का पूर्णतया पालन करने के कारण विश्व इतिहास के श्रेष्ठतम् महापुरुष हुए हैं। हमारे सभी ऋषि-मुनियों का जीवन व आचरण भी वेदानुकूल एवं राम व कृष्ण के समान ही आदर्श, त्याग व तप से परिपूर्ण हुआ करता था। ईश्वर अजन्मा है इससे अवतारवाद का खण्डन हो जाता है। ईश्वर स्वरूप से सर्वव्यापक है तो वहीं जीवात्मा स्वरूप से एकदेशी व ईश्वर से व्याप्य है। व्याप्य का अर्थ है कि ईश्वर जीवात्मा के भीतर भी व्यापक व विद्यमान है। यह जीवात्मा अल्पज्ञान व कर्म की सामर्थ्य से युक्त सत्ता है। अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगने के लिये ही ईश्वर इसको इसके कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देता है। परमात्मा ने जीवों को सुख व दुःखों को भोगते हुए मानव योनि में जन्म व मरण के बन्धनों को तोड़ने व इससे मुक्ति प्राप्त करने का अवसर भी दिया है। मोक्ष के स्वरूप व जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होने के उपायों को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का नवम समुल्लास पढ़ना चाहिये। वहां इसके विविध पहलुओं की विवेचना कर मोक्ष के सत्यस्वरूप को पाठकों को सामने रखा गया है। मोक्ष विषयक जो ज्ञान सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होता है वह विश्व साहित्य में सुलभ नहीं है। इसका कारण यह है कि मोक्ष विषयक ज्ञान ईश्वर एवं उसके साक्षात्कर्ता ऋषि ही मनुष्यों को प्रदान कर सकते हैं। ऋषि परम्परा भारत में ही महाभारत काल तक रही है और उसके सहस्रों वर्ष बाद ऋषि दयानन्द ने ऋषित्व प्राप्त कर उसे पुनर्जीवित किया था। उनके बाद यह परम्परा पुनः समाप्त हो गई। वर्तमान की मनुष्य जाति का सौभाग्य है कि ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में मोक्ष व नाना विषयों का जो ज्ञान दिया है वह सदा-सदा के लिए मानव जाति का मार्गदर्शन कर सकता है मनुष्य उससे अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों को जानकर उन्हें प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होकर उन्हें सिद्ध कर सकते हैं।
मनुष्य का जन्म इस लिये होता है कि हमारी आत्मा का अस्तित्व है। इसे अपने पूर्वजन्मों के उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगना है जिसे इसने अभी भोगा नहीं है। परमात्मा का अस्तित्व व सत्ता भी अनादि व नित्य है। अनादि व नित्य सत्ता की न कभी उत्पत्ति होती है और न कभी नाश अर्थात् अभाव ही होता है। परमात्मा, जीवात्मा और कारण प्रकृति अनादि काल से विद्यमान हैं और अनन्त काल तक विद्यमान रहेंगे। ऐसा समय कभी नहीं आयेगा कि जब इनका अभाव वा नाश हो। इस कारण से जीवात्मा के जन्म व मरण की प्रक्रिया अनन्त काल तक चलती रहेगी। गीता में भी योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने कहा है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनर्जन्म भी अवश्य होता है। इस जन्म व पुनर्जन्म का कारण आत्मा की अनादि व नित्य सत्ता का होना है। आत्मा का अस्तित्व सदा से है और सदा रहता है इस कारण इसका जन्म व मृत्यु और उसके बाद पुनर्जन्म का चक्र चला आ रहा है और इसी प्रकार से सदा चलता रहेगा। इस तथ्य व ज्ञान को सभी मनुष्यों को बिना समय गंवायें समझना व जानना है और इसे जानकर ही हमें अपने वर्तमान जीवन की दिशा को तय करना है। वेद, ऋषियों का साहित्य, ऋषि दयानन्द का जीवन व उनके ग्रन्थ हमारे जीवन की दिशा व आचरण विषयक ज्ञान देकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमें मात्र ऋषि ग्रन्थों का अध्ययन व उस पर गम्भीर चिन्तन-मनन करना है और जहां जो शंका है उसका वैदिक वा आर्य विद्वानों से समाधान करना है। हमें तथाकथित लोभी गुरुओं से बचना होगा अन्यथा हम अपने जीवन के यथार्थ मार्ग पर चलने से भटक सकते हैं और जीवन के उद्देश्य से भटक कर दुःखों को प्राप्त हो सकते हैं। हमें यह ध्यान रखना है कि हम कोई भी काम बिना सत्य व असत्य को विचार कर न करें। हमें अपनी प्रत्येक प्राचीन वा नवीन परम्परा की सत्यता की पुष्टि करनी चाहिये। मूर्तिपूजा एवं फलित ज्येतिष में विश्वास करना ऐसे कृत्य व बातें हैं जिन पर विश्वास करने से मानव जाति की बहुत क्षति हुई है व आगे भी होगी। अतः हमारे सभी आचरण व व्यवहार सत्य पर आधारित होने चाहिये और इसके लिये हमें सत्यार्थप्रकाश व वेद के स्वाध्याय सहित सत्पुरुषों व ज्ञानियों की संगति करनी होगी। सत्यार्थप्रकाश ऐसा ग्रन्थ है जो हमारे लिये सच्चे गुरु व सत्संगति के सभी लाभों को प्रदान करता है। हमने अपने जीवन में इसका लाभ स्वयं लिया है। इसी अनुभव के आधार पर अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिये हमने यह बातें लिखी हैं।
बन्धुओं! हमारा जीवन तेजी से आगे बढ़ रहा है। हमारी मृत्यु का समय निकट आता जा रहा है। हमें आलस्य त्याग कर अपनी मृत्यु व उसके बाद के जीवन के विषय में विचारना चाहिये। विचार करके हमें बहुत से नवीन तथ्यों का ज्ञान होगा जिसे वर्तमान में हम जानते नहीं हैं। पहला मुख्य तथ्य तो यह है कि मरने के बाद हमारी आत्मा का अस्तित्व बना रहेगा और निश्चय ही इसका पुनर्जन्म होगा। हमारा व आपका पुनर्जन्म हमारे इस जन्म के कर्मों के आधार पर होगा जिनका भोग इस जन्म व जीवन में नहीं हो सका है। इस जन्म में हम प्रायः पूर्व जन्मों के उन कर्मों का भोग करते हैं जिनका भोग शेष रहता है। संसार में नियम भी है कि पहले पुराना कर्ज चुकाओं और फिर नया ले सकते हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही परमात्मा ने हमारा जन्म व जाति, आयु और सुख-दुःख आदि निश्चित किये थे। हमारा अगला जन्म हमारे इस जन्म व इससे पूर्व के अभुक्त कर्मों के आधार पर होगा। यदि हमारे इस जन्म के अधिकांश कर्म शुभ होंगे, हमने ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र–यज्ञ, परोपकार के कार्य, माता–पिता–आचार्यों–दीन–दुखियों की सेवा की होगी तो निश्चित रूप से हमें मनुष्य योनि में विद्वान व धार्मिक माता–पिताओं के परिवारों में जन्म मिलेगा। यदि हमारे कर्म इस कसौटी के अनुरुप नहीं होंगे तो हमें पशु–पक्षियों की अन्य योनियों में जन्म मिलेंगे। अपने आगामी जन्म वा जन्मों को सुधारना व बिगाड़ना हमारे अपने हाथों में है। परमात्मा ने 24 घंटों का दिन व रात बनाई है। हमें प्रतिदिन एक या आधा घंटा इस विषय पर विचार करना चाहिये। प्रतिदिन हमें अपने कर्मों का निरीक्षण भी करना चाहिये। हमें देखना चाहिये कि क्या हमारे आज के सभी कर्म शुभ थे या नहीं? वेद और हमारे ऋषियों ने ज्ञान देकर हमें सावधान किया है। सभी ऋषि हमारे पूर्वज व हमारे हितैषी थे। हमें उनकी सदाशयता से लाभ उठाना है। समय निकल जाने के बाद लौटता नहीं है। जो समय बीत रहा है वह वापिस नहीं आयेगा। हमें आज और अभी अपने जीवन की दिशा व कर्तव्यों का निर्धारण करना है। हम संसार के सभी लोगों को उनके कर्तव्य बोध और सत्यासत्य के निर्णय के लिये सत्यार्थप्रकाश पढ़ने की सलाह देते हैं। मानना न मानना सब मनुष्यों का विशेषाधिकार है। ओ३म् शम्।