जो छा रहा वह जा रहा !

जो छा रहा वह जा रहा !
जो छा रहा वह जा रहा, ना संस्कार बना रहा;
प्रारब्ध है कुछ ढा रहा, ना लोभ पैदा कर रहा !

मन मोह से हो कर विलग, लग संग मन-मोहन सजग;
नि:संग में सब पा रहा, वह हो असंग घुला मिला !
खिल खिला कर है वह खुला, गुम हो के वो ख़ुद से मिला;
वह पा लिया उद्गम कला, विज्ञान का वर सिलसिला !

सब उसी के हैं हो गए,वे उर विहंगम खो गए;
सपने कहाँ कुछ रह गए, जब अपने ‘आपन’ हो गए !
तापों से नाता ना रहा, तप से ज्यों वास्ता हो गया;
‘मधु’ का मनोरथ बढ़ रहा, प्रभु का प्रयोजन ढल रहा !

 

हर देश काल फुरा रहा !
हर देश काल फुरा रहा, हर पात्र चेतन कर रहा:
चितवन में चित बन घुस रहा, प्रति प्राण संग खेला रहा !

है बदलता हर भूमि कण, नित नवलता हर राष्ट्र गण;
संस्कृति कृति प्रकृति सगुण, प्रकटा रही प्रणवित पुरुष !
प्रणिपात दे प्रौढा विधा, प्रायोजना का पथ सुधा;
पुलकित प्रफुल्लित प्रीति दे, वह दूर करता हर द्विधा !

सुविधा बढ़ा सहयोग ला,पारस्परिक विनिमय जुड़ा;
हर जीव निष्कंटक हुआ, संकट परे सुखमय हुआ !
हर कोई प्रष्फुट हो रहा, वह तटस्थित तन्मय रहा;
‘मधु’ तरन्नुम डूबा रहा, उन्नत हिये मन नत रहा !

 

कब जोड़ना कब छोड़ना !
कब जोड़ना कब छोड़ना, है जानता मन-मोहना;
रेशम सी डोरी खींचता, रहता है वह भी उन्मना !

पाता कहाँ वह रख गोद ही, पड़ता सिखाना चलन भी;
मन जीव के है बोध भी, चलना चहे वह स्वयं भी !
गिरता व पड़ता जब चले, विश्वास निज पैरन करे;
निगरानी नज़रों में रहे, है तभी तो हिम्मत बढ़े !

अभ्यास और प्रयास से, इन क़यासों के दौर से;
जब प्रकटता सामर्थ्य है, तब होते वे कृतकृत्य हैं !
नित ध्यान से औ मनन से, होते हैं जब अभ्यस्त से;
ना रहता ‘मधु’ संग सलौना, जग छोड़ जाता खिलौना !

 

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