कश्मीर-स्वायत्तता बनाम विस्थापितों की समस्या?

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि कश्मीर का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने के लिये बहुत कुछ तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू की अपरिपक्वता एवं अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में उनकी नासमझी उत्तरदायी है। जिसे हम दशकों से भुगत रहे हैं, लेकिन जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि कश्मीर मामले को पंजाब की तरह से हल किया जाना चाहिये। यह अनुचित और अविवेकपूर्ण बात है। पंजाब और कश्मीर को एक ही नजर से नहीं देखा जा सकता। हाँ आतंक से निपटने के मामले में हमें स्पष्ट नीति बनानी चाहिये और देश के किसी भी कौने में सिर उठाने वाले आतंक के विरुद्ध कठोरतम निर्णय लेने से नहीं हिचकना चाहिये, बेशक आतंकवादी कोई भी क्यों न हों।

प्रधानमन्त्री के एक बयान को आधार बनाकर कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता के सम्बन्ध में, देश के लोगों की चिन्ता जायज है। ऐसा कोई भी निर्णय भारत संघ को कमजोर करने वाला सिद्ध होगा। अत: भारत सरकार को ऐसे किसी भी प्रकार के ऐसे निर्णय से बचना चाहिये, जो बाद में अन्य प्रान्तों के लिये नजीर बने। यदि केन्द्र सरकार देश के लोगों की चिन्ता को दरकिनार करके कश्मीर को गैर-जरूरी स्वायत्तता प्रदान करने के लिये संसद में कोई विधेयक लाती है तो विपक्षी दलों से उस विरोध की उम्मीद नहीं, जो कि जरूरी है। अत: देश की एकता तथा अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिये समर्पित देशभक्त नागरिकों को ऐसे किसी भी निर्णय के विरोध में सडकों पर उतरने के लिये मानसिक रूप से पहले से ही तैयार होना होगा।

इसके साथ-साथ हम सभी भारतीयों को केवल भावनाओं में बहकर ऐसी बातें नहीं करनी चाहिये, जो देश के माहौल को खराब करती हों या नयी पीढी को कश्मीर की समस्या को ईमानदारी से देखने और निर्णय करने से रोकती हों, क्योंकि इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसलिये हमें नेहरू की एक राजनैतिक गलति के साथ-साथ यह भी याद रखना चाहिये कि 14 एवं 15 अगस्त, 1947 की रात्री को भारत विभाजन के समय केवल पाकिस्तान और भारत नाम के दो राष्ट्रों का ही जन्म नहीं हुआ था, बल्कि उस समय अखण्ड कश्मीर भी भारत संघ या पाकिस्तान का हिस्सा नहीं था। बाद में घटित घटनाओं के परिणामस्वरूप कश्मीर सरकार ने विवश होकर, कश्मीर के भारत में विलय का समझौता किया था। हम सभी जानते हैं कि विवशता में किये गये समझौते या निर्णयों के परिणाम बहुत कम सकारात्मक होते हैं। शिमला समझौता भी इसका उदाहरण है।

इस पृष्ठभूमि में अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी के सामने सम्मानपूर्वक खडे रहने के लिये, भारत सरकार का यह वैधानिक दायित्व है कि वह तत्कालीन कश्मीर सरकार के साथ हुए समझौते का सम्मान एवं क्रियान्वयन ईमानदारी से करे। यही नहीं कश्मीर के भारत में विलय के समय तत्कालीन भारत सरकार और कश्मीर सरकार के बीच हुए करार को सम्मान दिया जाना सभी भारतीय नागरिकों को भी कानूनी और नैतिक दायित्व है।

एक सवाल यह भी उठाया जाता है कि कश्मीर के भारत में विलय के करार को भारत सरकार समाप्त क्यों नहीं कर देती। ऐसा कहने वाले कानून और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ भारत की गरिमा का आकलन करने में भावनाओं को बीच में लाते हैं और ऐसे विचारक भारत संघ का गलत अर्थ लगाने का दुराग्रह करते हैं। बीज को समाप्त करके वृक्ष की रक्षा करना बुद्धिमतापूर्ण तर्क नहीं है। हाँ विलय के करार को संशोधित किया जा सकता है। जिसे समझने की जरूरत है। वर्तमान करार को समाप्त करके, भारत संघ के हित में नया करार करने के लिये जम्मू एवं कश्मीर राज्य में ऐसे दल या गठबन्धन को पूर्ण बहुत मिलना जरूरी है, जो कश्मीर के भारत में विलय के समझौते को वर्तमान सन्दर्भों में नया रूप देने को राजनैतिक रूप से तैयार हो। जब तक ऐसा नहीं होगा, कश्मीर समस्या को लेकर भावनाओं में बहने या भावनाओं को भडकाने से कोई समाधान सम्भव नहीं है।

लेकिन यदि विलय सम्बन्धी वर्तमान करार को समाप्त नहीं कर पाना संवैधानिक और ऐतिहायिक बाध्यता है, तो इसका अर्थ ये भी नहीं है कि देश के प्रति संदिग्ध भारतीय कश्मीरियों की जायज-नाजायज मांगों के समक्ष भारत सरकार को नतमस्तक हो जाना चाहिये। सवा सौ करोड भारत के लोगों का सशक्त नेतृत्व करते हुए केन्द्र सरकार को अपनी रीढ की हड्डी मजबूत रखनी होगी। जिससे आतंकियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देने वालों को कडा सन्देश जाये। जरूरत पडने पर आतंकियों के विरुद्ध लगातार और योजनाबद्ध अभियान चलाकर, लिट्टे की तरह उनके सफाये पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। ऐसे मामलों में मानव अधिकारों का सवाल भी खडा होता है, मैं स्वयं भी मानव अधिकारों का पैरोकार हूँ, लेकिन जब बात हद से आगे निकल जाये और सेना एवं पुलिस के प्रति क्रूरता का वर्ताव हो रहा हो, तो फिर कुछ न कुछ तो करना ही होगा।

उपरोक्त के साथ ही हमें यह भी याद रखना होगा कि कश्मीर से विस्थापित लोगों की पुन: वापसी पर भी विचार करना होगा। जिसके लिये किसी दल विशेष को जिम्मेदार ठहराकर गाली देने या कोसने से कुछ भी हल नहीं निकलने वाला। क्योंकि विस्थापित लोगों की पुन: कश्मीर में वापसी सम्भव नहीं हो पाने के लिये केवल काँग्रेस या यूपीए सरकार ही दोषी नहीं है, बल्कि सभी राजनैतिक दल समान रूप से जिम्मेदार हैं, जो कभी न कभी इस देश पर राज कर चुके हैं।

कोई साधारण व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता है कि राजनीति करने और अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिये कश्मीर के विस्थापितों की बातें तो खूब की जाती हैं, लेकिन कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जाता है। अन्यथा क्या कारण है कि छोटी-छोटी बातों पर संसद में ताण्डव करने वाले राजनैतिक दल कश्मीर से विस्थापित किये गये लोगों की पुन: वापसी के लिये संसद में जरूरत के अनुसार आवाज तक नहीं उठाते?

क्या यह समय की मांग नहीं कि कश्मीर विलय के प्रस्ताव की शर्तों को ध्यान में रखते हुए, कश्मीर के मूल वासिन्दों को वापस कश्मीर में बसाया जावे और कश्मीर पर निर्णय लेते समय या कश्मीर की सरकार के चुनाव के समय इन विस्थापितों को भी शामिल किया जावे।

क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि विस्थापितों की समस्या का समाधान नहीं होने तक भारत सरकार पर निर्णायक दबाव बनाने के लिये क्रमिक भारत बन्द हो, हर दिन कहीं न कहीं भारत यात्रा चलती रहे और संसद का संचालन तब तक रुका रहे, जब तक कि सरकार निर्णय लेकर क्रियान्वयन की समयबद्ध योजना पेश नहीं कर देती है! कौन करेगा यह सब? निश्चय ही उन्हीं दलों को करना होगा, जिन्हें इस मुद्दे पर वोट मिलते हैं और जो इस मुद्दे को बार-बार उठाते रहने का नाटक करते रहते हैं। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? इसके पीछे भी गहरी साजिश की बू आती है! कुछ दलों के लिये जानबूझकर कश्मीरी विस्थापितों का मुद्दा जिन्दा रखना राजनैतिक जरूरत है। जिससे उन्हें वोट मिलते रहें और इस देश का माहौल शान्त एवं सौहार्दपूर्ण नहीं बन पाये।

ऐसे हालातों से निपटने के लिये प्रत्येक भारतीय को आगे आना होगा। लेखक अपना काम कर रहे हैं, लेकिन जिन लोगों को कश्मीर विस्थापितों के दर्द का अहसास है, उन्हें अपने-अपने गॉव, कस्बे और शहर में इस बात के लिये आवाज उठानी होगी और मुद्दे को अंजाम तक पहुँचाये बिना रुकना नहीं होगा, तब ही कुछ आशा की जा सकती है। अन्यथा तो लोगों को गुमराह किया जाना और हिन्दू-मुसलमानों को भडकाने के नाम पर रोटी खाने वालों का एवं पेड न्यूज राईर्स का धन्धा चलता रहेगा।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

5 COMMENTS

  1. में डॉ. पुरषोत्तम मीणाजी के मूल आलेख का; तथा टिप्पणीकर्ता को दिए गए जबाब का समर्थन करता hun .halanki मेरी राय उस एतिहासिक घटना क्र्म में आंशिक रूप से जुदा है .में तीन बिंदु प्रस्तुत करता हूँ
    एक -इतिहास के उस मोड़ पर जबकि हमारे तत्कालीन नेतृत्व के पास .न तो धन था ;न सेन्य्बल था ;न वहां की जनता या राजा हरीसिंह का स्पस्ट समर्थन था तो ऐसे विपरीत माहोल में हम होते तो क्या करते ?
    दो -कश्मीर को साम्प्रदायिक नजरिये से देखा जाए या कश्मीर बनाम शेष भारत के बरक्स्स देखा जाए .
    तीन -जिस मुद्द्ये पर पूरा देश एकमत है उस पर बुधीजीवियों को किस सीमा तक अपने वैयक्तिक विचार रखना चाहिए ?

  2. samsaya ko pakadate pakadate samsya se bahut dur ho gaye.370 ka jikr tak nahi,lakho karodo rupaye jo diye ja chuke hai,unka kya??algavad ki agni me tustikaran ka gi padega to kya hoga??jis preakar sardar vallabh bhai patel ne jodhpur,junagarh our haidarabad ki riyasato ko vilay karvaya vese hi vo kashmir ko bhi kara dete agar neharu ne bich me tang nahi adayi hoti,kashmir ki samsya usaka muslim bahul hona hai our 370 ka hona,sarkar turant prabhav se sareloktantrik adhikar kashmir me{jammu our ladhdhak se nahi} se khatm kare,our chun chun kar alagav vadiyo our atangavadiyo ko mare ya vishtapit kare tatha yojana bad karike se vaha deshbhakt hindu-sikho ko basaye,tab hi vo samsya suljhegi nahi tokabhi ant nahi hoga esaka.
    akhir 40 lakh logo ke liye 114 karod log kyo apmanit ho our kyo hamara paisa un algavadiyo ki god bhare????fir bhi santulan banane ki koshsh ki usake liye sadhuvad.

    • आदरणीय पुरोहित जी,

      आपने टिप्पणी देकर मेरे लेखन को सम्रद्ध किया है, इसके लिए आपका आभारी हूँ. आपकी ओर से अनेक सवाल उठाये गए हैं, सभी पर मेरी ओर से स्पष्टीकरण लिखना इस स्तर पर मेरी नज़र में उचित नहीं है, क्योंकि अभी और भी पाठकों की राय मिलने की आशा की जा सकती है, लेकिन फिर भी आदरणीय कुछ बातें अवश्य कहना चाहता हूँ :-

      १-आदरणीय पुरोहित जी, हर व्यक्ति का सोचने या विश्लेषण करने का तरीका अलग होता है, यदि कोई आपके तरीके से नहीं लिखता है, तो क्या यह भी लेखन का दोष है?

      २-अपने पहली ही पंक्ति में लिखा है कि_

      जबकि इस लेख में आदरणीय पुरोहित जी, मैंने इस बारे में ही सबसे अधिक जोर दिया है, जिसे मैं आपको नहीं समझा सका ये मेरे लेखन का भी दोष समझ सकता हूँ.

      आगे से प्रयास करूंगा कि आप जैसे पाठकों को समझ में आ सकने वाली भाषा में लिखा जाये. आपके द्वारा उठाये गए विषय पर मेरी ओर से लिखे गए विवरण को मैं यहाँ फिर से प्रस्तुत कर रहा हूँ :
      ———————————–
      “…………..14 एवं 15 अगस्त, 1947 की रात्री को भारत विभाजन के समय केवल पाकिस्तान और भारत नाम के दो राष्ट्रों का ही जन्म नहीं हुआ था, बल्कि उस समय अखण्ड कश्मीर भी भारत संघ या पाकिस्तान का हिस्सा नहीं था। बाद में घटित घटनाओं के परिणामस्वरूप कश्मीर सरकार ने विवश होकर, कश्मीर के भारत में विलय का समझौता किया था। हम सभी जानते हैं कि विवशता में किये गये समझौते या निर्णयों के परिणाम बहुत कम सकारात्मक होते हैं। शिमला समझौता भी इसका उदाहरण है।

      इस पृष्ठभूमि में अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी के सामने सम्मानपूर्वक खडे रहने के लिये, भारत सरकार का यह वैधानिक दायित्व है कि वह तत्कालीन कश्मीर सरकार के साथ हुए समझौते का सम्मान एवं क्रियान्वयन ईमानदारी से करे। यही नहीं कश्मीर के भारत में विलय के समय तत्कालीन भारत सरकार और कश्मीर सरकार के बीच हुए करार को सम्मान दिया जाना सभी भारतीय नागरिकों को भी कानूनी और नैतिक दायित्व है।
      एक सवाल यह भी उठाया जाता है कि कश्मीर के भारत में विलय के करार को भारत सरकार समाप्त क्यों नहीं कर देती। ऐसा कहने वाले कानून और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ भारत की गरिमा का आकलन करने में भावनाओं को बीच में लाते हैं और ऐसे विचारक भारत संघ का गलत अर्थ लगाने का दुराग्रह करते हैं। बीज को समाप्त करके वृक्ष की रक्षा करना बुद्धिमतापूर्ण तर्क नहीं है। हाँ विलय के करार को संशोधित किया जा सकता है। जिसे समझने की जरूरत है। वर्तमान करार को समाप्त करके, भारत संघ के हित में नया करार करने के लिये जम्मू एवं कश्मीर राज्य में ऐसे दल या गठबन्धन को पूर्ण बहुत मिलना जरूरी है, जो कश्मीर के भारत में विलय के समझौते को वर्तमान सन्दर्भों में नया रूप देने को राजनैतिक रूप से तैयार हो। जब तक ऐसा नहीं होगा, कश्मीर समस्या को लेकर भावनाओं में बहने या भावनाओं को भडकाने से कोई समाधान सम्भव नहीं है।

      लेकिन यदि विलय सम्बन्धी वर्तमान करार को समाप्त नहीं कर पाना संवैधानिक और ऐतिहायिक बाध्यता है, तो इसका अर्थ ये भी नहीं है कि देश के प्रति संदिग्ध भारतीय कश्मीरियों की जायज-नाजायज मांगों के समक्ष भारत सरकार को नतमस्तक हो जाना चाहिये। सवा सौ करोड भारत के लोगों का सशक्त नेतृत्व करते हुए केन्द्र सरकार को अपनी रीढ की हड्डी मजबूत रखनी होगी।…”
      ———————————————————
      आशा है कि इसे एक बार फिर से पढ़कर आप अपनी विद्वता से परिपूर्ण टिप्पणियों से मुझे और मेरे लेखन को कृतार्थ करेंगे.

      शुभकामनाओं सहित!

      • शंसोधन :
        २-अपने पहली ही पंक्ति में लिखा है कि_

        को इस प्रकार पढ़ा जावे :

        २-अपने पहली ही पंक्ति में लिखा है कि_
        “370 ka jikr tak nahi,”

  3. हकीकत बयां करती लेख.बहुत बढ़िया ढंग से आपने जमीनी हकीकत पे रौशनी डाली है.

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