कान्हा मारे पिचकारी गालन पर

 आत्‍माराम यादव

फागुन चैत महीने में मदनोत्सव मनाने की प्रथा रही है जो आदिकाल से एक सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है । इस उत्सव का दूसरा प्रचलित नाम होली भी है। प्राचीन ग्रंथो में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीहरि के भक्त प्रहलाद को उसके पिता हिरणाकष्यप मारना चाहते थे किन्तु जब सभी उपाय असफल हो गये तब उनकी बहिन होलिका जिसे आग में न जलने का गुमान था, वह प्रहलाद को मारने की नीयत से अपनी गोद में लेकर बैठी ताकि प्रहलाद जल जाये किन्तु देवयोग से प्रहलाद बच गया और होलिका जल गयी तभी से मदनोत्सव के रूप में प्रचलित त्यौहार का एक स्वरूप होली के रूप में मनाने के चलन की शुरुआत हुई जो आज भी बदतूर जारी है। मदनोत्सव ऋतुपरिवर्तन का उत्सव है जहां समस्त मानवीय प्रवृत्तियों को आनन्द और उल्लास से भरकर उनमें सहज स्नेह का संचार करने के साथ आपस के वैचारिक वैमनस्यता ओर विवादों को होली के अवसर पर रंग गुलाल के साथ गले मिलने सा साथ ही विस्मरण कर समाज में भाईचारा कायम करने का संदेश देना है।

         कामदेव की प्रेयसी रति का सौन्दर्य इसी फाल्गुन मास की अवधि में बेनकाब होता है जिसमें सारा जगत झूम उठता है। कामदेव और रति को प्रकृति का सहचर भी कहा है जहां धरती पर चारों और प्रकृति हरी-भरी,फूलों से सजी होती है और बसंत की सुरभित वायु पशु पक्षियो को आकर्षित करने के साथ भ्रमरों को पागल बना देती है ऐसी स्थिति में सामान्य मनुष्य कैसे बच सकता है। बसंतोत्सव वास्तव में मदनोत्सव है जो होली के रूप में परिणित है। कहते है राम-कृष्ण अवतार से पूर्व मे भी जंगलों में रहने वाले आदिवासी इस त्यौहार को फसलों के आने पर प्रमोदोत्सव के रूप में मनाते आये है। भगवान श्रीकृष्ण  श्रृंगार के देवता है और कामदेव उनके पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेते है इसके पूर्व वे शिव जी की तपस्या भंग करने के कारण भस्म किए जाने पर बिना रीर के प्रकृति को श्रृंगारित करते है। महारास में स्याम सावरे का पारलौकिक लीला का वर्णन है वहीं होली पर रंग खेलते हुये उनकी लौकिक लीला सभी को आनन्द देती है-

मोहन भर पिचकारी खींचे, मारी जोवन बीचें।

मारी पिचकारी लौट गयी सारी, हम देखत रईं नीचें।।

हाथ लगाय भवन के भीतर, चली गयी दृग मीचें।

इतने में पीछे पर मोहन, लगे गुलाल उलीचें।।

गंगाधर मचरई गोकुल में, रंग केसर की कीचें।

          होली पर रंग-गुलाल अबीर का बड़ा महत्व रहा है और कुंजबिहारी रसिक शिरोमणि महारास के महानायक श्याम सलौने के बिना होली का आनन्द अधूरा है इसलिये होली कवियों के मनों को भी गुदगुदाती रही है और वे कृष्ण  तथा गोपियों की होली की मस्ती को प्रगट करने से नहीं चूके है और हरेक ने अपने अपने भावों में इसकी व्याख्या की है। होली की प्रतीक्षा प्रेमियों को विरहाग्नि में दग्ध करती है और मनभावन साजन के आने पर अनोखी प्यास रंगों से शांत होती है लेकिन जिनको पति-वियोग से प्रतीक्षा में समय गुजारना पड़ता है उन कामनियों को ये रंग पीड़ा देते है इसे ईसुरी कवि यों व्यक्त करते है –

हमपे नाहक रंग न डारो, घरै न प्रीतम प्यारे।

फीकी फाग लगत बालम बिन,  अपने मनै बिचारौ।

असई ज्वाला उठत बदन में, नाहि जरे पै जारौ ।

केसर अतर गुलाब न छिरकों, पिचकारी ना मारो

ईसुर हम पै हाल दिनन में, खैंचे श्याम  किनारों ।

जब प्रेमी परदेश गया हो तब यह होली प्रेमिका के लिये बड़ी कष्टप्रद होती है और उसकी याद होली पर सताती है। प्रेमियों में दीवानगी इतनी होती है कि वे दिल में याद  करके  तड़फते है और स्मृतियों में गोते खाते है। जिन प्रेमिकाओं के प्रेमी उनके पास नहीं है वे अटारियों पर खड़ी अपने यौवन को व्यर्थ समझ उदास व दुखी है और पूछने पर अपने सपने का इजहार करती है कि-

दिल डारें अटा पै काय ठाड़ी।

काहे ठाड़ी कैसी ठाड़ी दिल डारे, अटापै काहे ठाड़ी।

कै तोरी सास नदॅद दुख दीनों, कै तौरे सैया ने दई गारी।

ना मोरी सास ननंद दुख दीनी, ना मोरे सैया ने दई गारी।

मायके के पार सपने में दिखे, आई हिलोर फटे छाती।

गोपिका श्याम के सलौने मुख को निहारना चाहती है किन्तु उनकी मनोव्यथा को फाग में कोई समझने को तैयार नहीं है। यही दशा उस गृहणी की होती है जिसका पति होली के मौके पर घर में नहीं है और वह पति के विरह में एक एक पल में होली की सुहावनी रात में उसकी कमी को बड़ी पीड़ा के साथ गुजारती हुई याद करती है-

फागुन में न जियऊॅ रसमाती,

अजहूं कंत घरहॅू न आये।

बालम विदेसवा का छायें

बसंत न लागय कई से पठावहुं पाती।

अजहॅू कंत घरहॅू न आये

सूनी सेजरिया जियरा घबड़ावई

विरहा सतावई आधी रात।।

सबके महलिया मा दिअना वरतु हई

मोरे लेखे जग अंधियार।

सबसे महलिया मा धूम मची हई।

मोरे लेखे कांदई कीच।

कंत घर हॅूं नाहिं आये।।

होली के इस आनन्दोत्सव में गीतों में मानवीय अतृप्त भावनाओं का दौर दिखता है वही रासबिहारी नटवर नागर श्रीकृष्ण की प्रेममयी लीलायें है । मजा तब आता है जब जितने रंग होली में नहीं उससे कहीं अधिक रंग साहित्य की पिचकारियों से फूटे पड़ते है। पद्यकर कवि की व्याख्या में नायिका के रंग में कृष्ण पर उसका रंग चढ़ता है या कृष्ण का रंग में गोपिका रंगी जाती है का सुन्दर चित्रण देखिये –

या अनुराग की फाग लखों जहॉ रागनी राग किशोर-किसोरी

त्यौं पद्यकर घाली चली, फिर लाल ही लाल गुलाल की झोरी।।

जैसी की तैसी रही पिचकी, कर काहू न केसर रंग में बोरी।

गोरी के रंग में भीजिगौ सॅावरों, सांवरे के रंग में भीजिगी गौरी।

 भारत देश अनूठा है यहा ग्रामीण क्षैत्रों मे होली के अवसर पर सुबह से देर रात तक लोग  ढोल-मजीरे, झाझर आदि की मधुर स्वरों में कर्णप्रिय गीत गाकर लुभाते है जो मन को असीम आनन्द से भर देते है। किसी कवि ने अयोध्‍या का जिक्र कर अवधपति राम और लक्ष्मण को रंगों से खेलते हुये बताया कि इस पावन होली की मादकता पर राम लक्ष्मण ढोलक-मजीरा बजाते  रंगते हुये नाचते लगते है-

राजा बल के द्वारे मची-होरी।

कोना के हाथ ढुलकिया सौहे, कौना के हाथ मजीरा।

रामा के हाथ ढुलकिया सौहेलक्ष्मण के हाथ मजीरा।

कोना के हाथ रंग की गगरिया, कोना के हाथ अबीर झोली।

राम के हाथ रंग की गगरिया, लक्ष्मण के हाथ अबीर झोली।

राजा बल के द्वारे मची होरी।

       राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त के दिल को भी होली ने छुआ और उन्होंने (साकेत मे) अपनी भावनाओं को प्रकृति और उसके यौवन अर्थात फसलों से जोड़ते हुये लिखा है-

काली काली कोयल बोली, होली होली होली।

हॅसकर लाल-लाल होठों पर हरियाली हिल डोली।

फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की  पीली-पीली चोली 

ऋतु ने कवि-शशि के पलड़ों पर तुल्य-प्रकृति निज तौली

सिहर उठी सहसा क्यों मेरी भुवन भावना भोली।।

राधा ओर कृष्ण के बिना होली की कल्पना करना बेमानी होगी। अनेक कवियों ने कृष्ण को होली पर रंग का बड़ा खिलाड़ी बताया है वहीं बुन्‍देलखण्‍ड के कवि इ्र्रसुरी होली का चित्रण करते हुये कहते है कि होली पर कृष्ण राधा का रूप रख लेते है और राधा गोपाल बनकर रंगों का आनन्द लेती है-

ऐसी पिचकारी घालनकहाँ सीख लई लालन।

तक के तान दई बेंदा पेढुरक लगी है गालन।।

अपुन फिरे रंग रस में भीजें, कि जै रहे ब्रज बालन।

मारी चोट ओट लै कड़ गई, लगी करेजे सालन।।

माधो बनी राधिका ईसुर, राधा बनी गोपालन।।

      होली पर रंगों की प्यास गहराती है जिसमें अगर बिरह पीड़ा न हो और जिसके साथ होली की मस्ती करनी है उसकी प्रतीक्षा न करनी हो तो जो स्नेह का आनन्द आता है वह अवर्णीय है। साधारण इंसान तो क्या गिरधर नागर भी होली के रंगों से जीभर खेलने के बाद शांत होते है-

हित लागो कुंवर किसोरी  को, मोहन से राधा गोरी को।

चलन चलगी दिन पै दिन मारग नए नेह की डोरी को ।।

दरसत बंक विलोकन में हो मजा कछू चित चोरी को।

बढ़त अनन्द चन्द्रमुख निरखत, जैसे चित्तचकोरी को।

मनभावन सुख पूर होय सब, समयो पावे होरी को।।

होली पर ब्रज का पूरा आकाश रंगों से लाल हो जाता है और नन्दबाबा का महल सहित महल के द्वार व गलिया  रंग-अबीर गुलाल से रंग जाती है। कन्हैया होली खेलते कभी थकते नहीं दिखते वे रंग-अबीर की झोली लिये गोपियों से होली खेलने के बाद भी राधा के साथ होली खेलने की मुराद लिये उन्हें आमंत्रित करते है और राधा के आने के बाद राधा के गोरे तन पर रंग-अबीर मल देते है-

तुम बिन कड़ी जात जा होरीश्रीबृषभानु किसोरी 

प्रीति लगाय प्रान तरसाएहिरदे करी कठोरी।।

देर सुन बृभानु लली खां, भरे अबीरन झोरी।

आगे आय मिलौ हॅस-हॅस के,  हो वैं चूमा चोरी।।

मुरलीधर घाटी के अंगनमलत स्याम रे रोरी।

      होली पर प्रकृति भी रंगी होती है। फाल्गुन मास की मादकता देखते बनती है जब धरती हरियाली की चादर को ओढ़कर खेतों में गेहॅू और चने के पौधों को लहलहाती है और खेतों में होली पर फसल पक चुकी होती है। बसंत का यही आनन्द कामदेव और रति की पूर्ण यौवनमयी चर्मोत्कृष्टता से जगत में मादकता का संचार करता है। कवियों द्वारा गाये गये गीत, फाग, राई, रसिया, आदि देश के विभिन्न अंचलों में सुबह से देररात तक गूंजते रहते है और फागुन में गुलाबी ठंड जीवन में एक स्फूर्ति पैदा करती है तब फ़ागोत्सव पर राई का मोहक नृत्य ओर फाग गीत का यह सिलसिला होली के दिन से रंगपंचमी तक चलता है ओर रही सही कसर पूरी करने के लिए यह होली पर्व युवाओं को गोरे गालों पर गुलाबी ठंडक के साथ रंग लगाने का मजा रोमांचित करता है जो हमारे देश की संस्कृति का अभिन्न अंग बना हुआ है जिसे सदियों से हम आज भी जी रहे है।

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