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कॅथोलिक डॉ. डेविड फ्राव्ले कैसे हिन्दू बनें ?

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-डॉ. मधुसूदन

(एक) डॉ. डेविड फ्राव्ले के उद्धरण:

ॐ== “पश्चिम की संस्कृति से भारत की यौगिक संस्कृति की ओर बढा तो जाना कि वह  अतिशय विस्तरित तो है ही,पर असीमित ज्ञान के प्रकाश से और परमानंद  से सराबोर भी  है।”

ॐ==पता चला कि “पश्चिम की आध्यात्मिकता में न कोई गहराई है; न उसका  कोई (परमार्थ) परम-अर्थ है।”

ॐ==”मैं हिंदू धर्मको मानवों  की किसी मर्यादा से बँधा  नहीं मानता, वह,ब्रह्मांडीय परम्परा है। ऐसी परम्परा  जो मनुष्य को सारे बंधनों से उपर उठा देती है।”

ॐ==अन्य रिलीजनों-और मज़हबों  ने मुक्ति की राह पर भी मनुष्यको बंदि बना कर जकड लिया है। वाह वाह क्या  ढपोसली नाम मात्र मुक्ति है?
मुक्त हो पर हमारे ही, रिलीजन को फोलो करने के लिए बँधे हो?


ॐ==भारतीय  आध्यात्मिक चेतना ही, पूरी ओतप्रोत होकर भारत में प्रसरी है: यह चेतना  ही उस (भारतीय)सभ्यता की आधारशिला है। 

(दो) “मैं हिन्दू कैसे बना”

“मैं हिन्दू कैसे बना,” ( या मेरा वैदिक धर्म का शोध) यह एक पुस्तक का नाम है। लेखक है डॉ. डेविड फ्राव्ले।
“How I became a Hindu: MY DISCOVERY OF VEDIC DHARMA.” इस २०८ पृष्ठों की पुस्तक का सारांश लेखक ने इस आलेख में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। आलेख द्वारा गागर में सागर भरने का ऐसा प्रयास, आज कल घर वापसी के विषय में जो चर्चाएँ चली हैं; उन्हें ध्यान में रख कर किया है। एक बुद्धिमान पर कट्टर कॅथोलिक परिवार में जन्में, डॉ. डेविड फ्राव्ले का वृत्तान्त प्रस्तुत है।

(तीन) प्रस्तावना:
प्रस्तावना में ही लेखक  कहता है; कि यह पुस्तक पश्चिम से पूर्वकी ओर का, मेरा बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्रवास वर्णन करती है। This journey moves from the Western world of materialism to the greater universe of consciousness that permeates India and was the basis of her older civilization. यह प्रवास पश्चिम के भौतिक विश्व से उस वैश्विक भारतीय  चेतना की ओर  बढता है, जो पूरी ओतप्रोत होकर भारत में प्रसरी है: यह चेतना  ही उस (भारतीय)सभ्यता की आधारशिला है।  यह मेरा आंतरिक प्रवास एक आध्यात्मिक तीर्थ यात्रा है, भारतके आध्यात्मिक हृदय की ओर।

(चार) आध्यात्मिक संस्कृति: 
भारत ने आध्यात्मिक संस्कृति  को दूसरे किसी भी देश की अपेक्षा अधिक प्रभावी ढंगसे टिकाया (विकसाया) है। भारत का लक्ष्य है, ऐसा आध्यात्मिक रूपान्तर जिस ने मुझे अंतरबाह्य आमूलाग्र बदल दिया, साथ में उत्सुकता पैदा की। जानने के लिए, प्रेरित किया कि, मैं कौन हूँ; इस कारण, साथ साथ मेरी अपनी, और दुनिया की  अनुभूति का  चित्र भी  बदला।
मैं ने अपने स्वयं के अस्तित्व को पूर्व (भारत) की संस्कृति की आत्मा में इतना पूरी तरह डूबा दिया, कि, न मात्र मेरी पश्चिमी पहचान मिटी, मेरी विचार की पद्धति और जन्मजात वृत्ति (instinct) भी मिट गयी। मैं पश्चिम की संस्कृति से भारत की यौगिक संस्कृति की ओर बढा जो अतिशय विस्तरित तो है ही, पर असीमित ज्ञान के प्रकाश से और परमानंद  से सराबोर भी है।

मेरे लिए, यह प्रवास बहुत कठिन और चुनौती भरा था। मैं बार बार  गिरा, बहुत निराश भी हुआ। बहुत बार मैंने  वापस लौटने का भी विचार आया। कई बार लौटा भी। गिरा भी बहुत बार, पर हर बार फिरसे खडा हुआ, और आगे बढा।

(पाँच) पारिवारिक पृष्ठभूमि आडे आयी:
मुझे मेरी वैयक्तिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि को ही नहीं, पर समस्त  शिक्षा और पूरी सभ्यता जिसके साथ मैं घुल मिल गया था, उस को भी पार करना पडा। इसके लिए मुझे दृढता से स्थापित  हो चुकी, मेरी सोचने की, कल्पनाओं की, अनुभूतियों की, आदतों से भी छुटकारा आवश्यक था। जब वापस दृष्टि डालकर देखता हूँ, तो, स्पष्ट लगता है, कि, पश्चिम की आध्यात्मिकता में न कोई गहराई है; न उसका कोई परम-अर्थ है। {वह परमार्थ विहीन परम्परा है।}

फलस्वरूप  अब मैं  सनातन (हिंदू) धर्म की ओर अपनत्व से देखता हूँ। अब मैं  वैदिक परम्परा को अंदर के सद्स्य की भाँति देखता हूँ। जैसे हिंदू परम्परा मेरी ही कौटुम्बिक परम्परा ना हो; मेरा अपना श्वासोश्वास ना हो; मेरा अपना लहू ना हो। मैं हिंदुत्व को किसी शोधकर्ता की उदासीन दृष्टि से नहीं देखता। या किसी भोले-भाले और उत्सुक पाश्चात्य की स्वप्निल दृष्टि से भी नहीं देखता।

(छः) हिंदू धर्म मानव  की मर्यादा से बँधा नहीं। 
मैं हिंदू धर्मको मानवों  की मर्यादा से बँधा  नहीं मानता, वह,ब्रह्मांडीय परम्परा है। ऐसी परम्परा  जो मनुष्य को सारे बंधनों से उपर उठा देती है।

(सात) लेखक: कभी आसमान को भी आप बाँट कर टूकडे कर सकते हो?
उदाहरणार्थ: जैसे, हमारी संस्कृत भाषा में ही शब्द हैं, महदाकाश, चिदाकाश, परमाकाश। और उनके अर्थ भी अलग अलग ही है। रिलिजन क्या और मज़हब क्या, कैसे सारे परमाकाश के बराबर हो सकता है? परमाकाश का एक हिस्सा रिलिजन या मज़हब हो सकता है; बराबर कैसे होगा? यह हमारी संस्कृत भाषा को अकेली आध्यात्मिकता की भाषा भी बना देती है।
विचार कीजिए, अपने मुक्त विचारों की टिप्पणी दीजिए; (शायद)उत्तर के लिए, ७ जनवरी तक रूकने का अनुरोध करता हूँ।