कालाधन वापिसी की बढ़ी उम्मीद

प्रमोद भार्गव

download (3)आखिकार काले धन के चोरों पर कार्रवाही शुरू होती दिखाई देने लगी है। देश की जनता के लिए यह खुशी की खबर है क्योंकि काले चोरों ने घूसखोरी और कर चोरी के सुरक्षा कवच के चलते ही तो जनता की खून पसीने की कमाई को चूना लगाकर देश से बाहर भेजा है। स्विटजरलैंड ने अपनी बैंकिंग के रहस्यों पर पड़ा पर्दा खोल देने का निर्णय लिया है। अंतरराष्‍ट्रीय मुहिम के तहत हुए बहुपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर के साथ ही अब स्विस बैंकों की गोपनीयता भंग होने जा रही है। गौरतलब है कि भारत समेत कई देशों की सरकारें लंबे समय से स्विस बैंकों में जमा कालेधन की जानकारी हासिल करने की कोशिशों में लगीं थीं। अब 58 देशों से समझौता हो गया है। दरअसल इन बैंकों में खाता खोलते वक्त ग्राहक से धन के स्रोत की जानकारी नहीं मांगी जाती थी। अलबत्ता इसे गुप्त रखा जाता था। इस कारण से दुनिया के भ्रष्‍ट राजनेता, उद्योगपति और नौकरशाह इन बैंकों में अपनी काली कमाई रखते थे।

स्विस सरकार समझौते के तहत अपने बैंक खातों की जानकारी देने के लिए समझौते के अनुसार वचनबद्ध हो गई है। फिर भी इस प्रक्रिया को अमल में लाने की दृष्टि से अभी वक्त लगेगा। इसे अभी संसदीय वैधानिकता और स्विटजरलैंड में मौजूद प्रत्यक्ष लोकतंत्र के प्रावधान के अनुसार इस समझौते को जनमत संग्रह की अनुमति देनी होगी। बावजूद यह उम्मीद बड़ी है कि देर-सबेर कालेधन पर पड़ा ताला खुल जाऐगा। स्विस नेशनल बैंक मुताबिक 2011 में स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा रकम 14 हजार करोड़ रुपये थी, जो अब 2012 में घटकर 9 हजार करोड़ रुपये रह गई। क्योंकि जमा खेरों को भारत में चले भ्रष्‍टाचार के खिलाफ अभियानों से यह आशंका हो गई थी कि सरकार कालेधन की वापिसी के लिए ठोस कदम उठायेगी। उनकी शंकाएं सही थीं। एक अनुमान के मुताबिक देश का 35 लाख करोड़ रुपये कालाधन दुनिया के विभिन्न बैंकों में जमा है। जिसका सबसे बड़ा ठिकाना स्विस बैंक है।

हालांकि आयकर विभाग जिनेवा में एसएसबीसी बैंक के 782 खातों की जांच कर रहा है। भारतीयों के इन खातों में तीन हजार करोड़ रुपये जमा होने की आशंका है। इस बैंक के खाताधारियों में तीन सांसद और एक मुंबई का बड़ा उद्योगपति शामिल हैं। सांसद हरियाणा, उत्तर-प्रदेश और केरल के हैं। इनमें से एक सांसद के खाते में दो सौ करोड़ और उद्योगपति के खाते में आठ सौ करोड़ रूपये जमा होने का पता चला है। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में दावा किया गया है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाम से भी स्विस बैंक में भी खाता है, जिसमें 25 लाख फ्रैंक (फ्रांस मुद्रा) जमा हैं।

हमारे देश में जितने भी गैर कानूनी काम हैं, उन्हें कानूनी जटिलताएं संरक्षण का काम करती हैं। कालेधन की वापिसी की प्रक्रिया भी केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसे ही हश्र का शिकार होती रही है। सरकार इस धन को कर चोरियों का मामला मानते हुए संधियों की ओट में काले धन को गुप्त बने रहने देना चाहती थी। जबकि विदेशी बैंकों में जमा काला धन केवल करचोरी का धन नहीं है, भ्रष्टाचार से अर्जित काली-कमाई भी उसमें शामिल है। जिसमें बड़ा हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों का है। बोफोर्स दलाली, 2 जी स्पेक्ट्रम,कोयला घोटाला और राष्ट्रमण्डल खेलों के माध्यम से विदेशी बैंकों में जमा हुए कालेधन का भला कर चोरी से क्या वास्ता ? यहां सवाल यह भी उठता है कि सांसद कोई ऐसे उद्योगपति नहीं हैं जिन्हें आयकर से बचने के लिए, कर चोरी के समस्या के चलते विदेशी बैंकों में कालाधन जमा करने की मजबूरी का सामना करना पड़े। यह सीधे-सीधे घूसखोरी से जुड़ा आर्थिक अपराध है। इसलिए प्रधानमंत्री और उनके रहनुमा दरअसल कर चोरी के बहाने कालेधन की वापिसी की कोशिशों को इसलिए पलीता लगाते रहे हैं जिससे कि नकाब हटने पर कांग्रेस को फजीहत का सामना ना करना पड़े। पूरी दुनिया में कर चोरी और भ्रष्ट आचरण से कमाया धन सुरक्षित रखने की पहली पसंद स्विस बैंक रहे हैं। जिनेवा स्विट्जरलैंड की राजधानी है। यहां खाताधारकों के नाम गोपनीय रखने संबंधी कानून का पालन कड़ाई से किया जाता है। यहां तक की बैंकों के बही खाते में खाताधारी का केवल कोड नंबर रहता है, ताकि रोजमर्रा काम करने वाले बैंककर्मी भी खाताधारक के नाम से अंजान रहें। नाम की जानकारी बैंक के कुछ आला अधिकारियों को ही रहती है। ऐसे ही स्विस बैंक से सेवा निवृत एक अधिकारी रूडोल्फ ऐलल्मर ने दो हजार भारतीय खाताधारकों की सूची विकिलीक्स को भी सौंपने का दावा किया था। स्विस और जर्मनी के अलावा दुनिया में ऐसे 69 ठिकाने और हैं जहां काला धन जमा करने की आसान सुविधा हासिल है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने भी एक संकल्प पारित किया है। जिसका मकसद था कि गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जाम काला धन वापिस लाया जाए। इस संकल्प पर भारत समेत 140 देशों के हस्ताक्षर हैं। यही नहीं 126 देशों ने तो इसे लागू कर काला धन वसूलना भी शुरू कर दिया है। यह संकल्प 2003 में पारित हुआ था, लेकिन भारत सरकार इसे टालती रही। आखिरकार 2005 मेंउसे हस्ताक्षर करने पड़े। स्विट्जरलैंड के कानून के अनुसार कोई भी देश संकल्प को सत्यापित किए बिना विदेशों में जमा धन की वापिसी की कार्रवाई नहीं कर पाएगा। हालांकि इसके बावजूद स्विट्जरलैंड सरकार की संसदीय समिति ने इस मामले में भारत सरकार के प्रति उदारता बरतते हुए दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी दे दी है। इससे जाहिर होता है कि स्विट्जरलैंड सरकार भारत का सहयोग करने को तैयार है।

हालांकि दुनिया के तमाम देशों ने कालेधन की वापिसी का सिलसिला शुरू भी कर दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में दुनिया में आई वह आर्थिक मंदी थी, जिसने दुनिया की आर्थिक महाशक्ति माने जाने वाले देश अमेरिका की भी चूलें हिलाकर रख दी थीं। मंदी के काले पक्ष में छिपे इस उज्जवल पक्ष ने ही पश्चिमी देशों को समझाइश दी कि काला धन ही उस आधुनिक पूंजीवाद की देन है जो विश्वव्यापी आर्थिक संकट का कारण बना। 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका की आंखें खुलीं कि दुनिया के नेता, नौकरशाह, कारोबारी और दलालों का गठजोड़ ही नहीं आतंकवादी ओसामा बिन लादेन भी अपना धन खातों को गोपनीय रखने वाले बैंकों में जमा करता था।

इस सुप्त पड़े मंत्र के जागने के बाद ही आधुनिक पूंजीवाद के स्वर्ग माने जाने वाले देश स्विट्जरलैंड के बुरे दिन शुरू हो गए। नतीजतन पहले जर्मनी ने ‘वित्तीय गोपनीय कानून’ शिथिल कर काला धन जमा करने वाले खाताधारियों के नाम उजागर करने के लिए स्विट्जरलैंड पर दबाव बनाया और फिर इस मकसद पूर्ति के लिए इटली, फ्रांस, अमेरिका, भारत एवं ब्रिटेन आगे आए। अमेरिका की बराक ओबामा सरकार ने स्विट्जरलैंड पर इतना दबाव बनाया कि वहां के यूबीए बैंक ने कालाधन जमा करने वाले 17 हजार अमेरिकियों की सूची तो दी ही 78 करोड़ डॉलर काले धन की वापिसी भी कर दी। अब तो मुद्रा के नकदीकरण से जूझ रही पूरी दुनिया में बैंकों की गोपनीयता समाप्त करने का वातावरण बनना शुरू हो चुका है। इसी दबाव के चलते स्विट्जरलैंड सरकार ने कालाधन जमा करने वाले देशों की सूची जारी की है। स्विस बैंक इस सूची को जारी करने में देर कर भी सकता था, लेकिन इसी बैंक से सेवा निवृत्त हुए रूडोल्फ ऐल्मर ने जो सूची विकिलीक्स के संपादक जूलियन अंसाजे को दी थी, उसके दबाव मंे भी यह बहुपक्षीय संधि संभव हुई।

स्विस बैंकों में गोपनीय तरीके से काला धन जमा करने का सिलसिला पिछली दो शताब्दियों से बरकरार है। लेकिन कभी किसी देश ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। आर्थिक मंदी का सामना करने पर पश्चिमी देश चैतन्य हुए और कड़ाई से पेश आए। 2008 में जर्मनी की सरकार ने लिश्टेंस्टीन बैंक के उस कर्मचारी हर्व फेल्सियानी को धर दबोचा जिसके पास कर चोरी करने वाले जमाखोरों की लंबी सूची की सीडी थी। इस सीडी में जर्मन के अलावा कई देशों के लोगों के खातों का ब्यौरा भी था। लिहाजा जर्मनी ने उन सभी देशों को सीडी देने का प्रस्ताव रखा जिनके नागरिकों के सीडी में नाम थे। अमेरिका, ब्रिटेन और इटली ने तत्परता से सीडी की प्रतिलिपी हासिल की और धन वसूलने की कार्रवाई शुरू कर दी।

संयोग से फ्रांस सरकार के हाथ भी एक ऐसी ही सीडी लग गई। फ्रेंच अधिकारियों को यह जानकारी उस समय मिली जब उन्होंने स्विस सरकार की हिदायत पर हर्व फेल्सियानी के घर छापा मारा। दरअसल फेल्सियानी एचएसबीसी बैंक का कर्मचारी था और उसने काले धन के खाताधारियों की सीडी बैंक से चुराई थी। फ्रांस ने उदारता बरतते हुए अमेरिका, इंग्लैंड, स्पेन और इटली के साथ खाताधारकों की जानकारी बांटकर सहयोग किया। दूसरी तरफ ऑर्गनाइजेशन फॉर इकॉनोमिक कार्पोरेशन एण्ड डवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने स्विट्जरलैंड समेत उन 40 देशों के बीच कर सूचना आदान-प्रदान संबंधी 500 से अधिक संधियां हुईं। शुरूआती दौर में स्विट्जरलैंड और लिश्टेंस्टीन जैसे देशों ने आनाकानी की, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए। अन्य देशों ने भी ऐसी संधियों का अनुसरण किया, लेकिन भारत को अब जाकर खाताधारकों की जानकारी साझा करने का अधिकार इस बहुपक्षीय संधि से मिला है। अब सरकार को कालाध वापिसी के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाने की जरुरत है।

2 COMMENTS

  1. काले धन के विरुद्ध सर्वप्रथम २००९ के चुनावों के दौरान श्री लाल कृष्ण अडवाणी जी ने आवाज़ बुलंद करनी शुरू की थी.उसी समय जी-२० देशों की लन्दन में बैठक चल रही थी और ओ ई सी डी तथा जी-२० के द्वारा एक ग्रुप का गठन किया गया था.उसकी अध्यक्षता के लिए श्री मनमोहन सिंह से आग्रह किया गया था लेकिन उन्होंने अज्ञात कारणों से अपने कदम पीछे खींच लिए.उसके बाद बाबा रामदेव ने इस बारे में अभियान छेड़ दिया.उन्ही दिनों स्विस बेन्कर्स असोसिएशन के अध्यक्ष का बयान आया जिसमे कहा गया की अनुमानित तौर पर स्विस बेंकों में भारतीयों का लगभग १.९ ट्रिलियन यु.एस. डालर जमा है जो उस समय के मुद्रा विनिमय दर के अनुसार लगभग ९४ लाख करोड़ रुपये के बराबर बैठता था.उसके बाद इसमें लगातार तेज़ी से गिरावट आनी शुरू हो गयी.और आज इसमें घटकर केवल नौ हज़ार करोड़ रूपया रह गया है.जून २०११ में स्विट्जरलेंड में एक अंतर्राष्ट्रीय धनाढ्यों की गुप्त बैठक हुई थी और उन्ही दिनों सोनिया गाँधी अपने परिवार और बारह अन्य व्यक्तियों,जिन्होंने इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अपना उल्लेख वित्तीय सलाहकार के रूप में दर्ज किया था,के साथ एक निजी विमान से स्विट्जरलेंड गयी थीं.उसके बाद से ही वहां से भारतियों का कालाधन तेजी से खिसकाना शुरू हो गया.आज हमारा फोकस स्विट्जरलेंड पर ही है जबकि दुनिया के सत्तर से अधिक देश टेक्स हेवेन कहलाते हैं.भारतीय धन के स्विट्जर्लेंड से खिसकने के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सोने की कीमत में तेज़ी आनी शुरू हो गयी.कहीं इसका कारण ये तो नहीं की भारतियों का काला धन सोने में बदल गया हो.और बेंकों के लोकर में रखा गया हो?नकद रकम का हिसाब रहता है लोकर में रखे धन का कोई हिसाब बेंकों के पास नहीं रहता है.

    • गुप्ता जी —
      धन्यवाद। आपकी बात सही ही प्रतीत होती है। साथमें सारा दक्षिण अमरिका टैक्स हेवन ही है। ऐसे देश हैं, जो आपकॉ दूसरा पासपोर्ट भी दे देंगे।
      सारे सोने की कीमते भी इसी कारण बढती-घटती रहती है।
      कुशल रहें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,847 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress