राजनीति

कल्याण सिंहः आ अब लौट चलें

कभी भाजपा के दिग्गज नेता रहे और अब विश्वसनीयता का संकट

kalyansinghकल्याण सिंह को आखिर क्या हुआ है कि उन्हें फिर भगवान राम की याद आ गयी है। दरअसल कल्याण सिंह राजनीतिज्ञों की उस परंपरा का हिस्सा बन गए है जिसके लिए सच समय के साथ बदलता रहता है। कल्याण सिंह ऐसे कैसे बने यह एक अलग विमर्श का मुद्दा है लेकिन वे ऐसे बन गए हैं यह एक कड़वा सच है। कल्याण सिंह, एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार दे रहे थे और इंटरव्यू के आखिरी हिस्सों में उन्होंने लगभग हर सवाल के जवाब में यही कहा –धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद। जाहिर तौर पर उनके पास अब कहने को कुछ नहीं है। विचारधारा के प्रति समर्पण, ईमानदारी, व्यापक जनाधार,संगठन क्षमता और प्रशासनिक दक्षता जैसी बातें अब उनके लिए अप्रसांगिक हैं। जबकि यह सारे विशेषण कभी उनके संदर्भ में बहुत प्रासंगिक हुआ करते थे। उप्र की जनता सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए कल्याण सिंह का जो कद और प्रभाव उभरकर सामने आया था उसने उनमें एक बड़ा नेता होने की सारी संभावनाएं प्रकट कर दी थीं।

बाद के दिनों में अयोध्या आंदोलन की छाया में वे प्रबल बहुमत पाकर मुख्यमंत्री भी बने। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि वे अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी के बाद भाजपा के भविष्य के रूप में देखे जाने लगे। पहली बार जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनकी ईमानदार छवि और प्रशासनिक कुशलता के किस्से लखनऊ से लेकर दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में गूंजते रहे। विवादित ढांचे की शहादत के बाद भी उप्र की आमजनता और संगठन में उनके प्रति भरोसा बना रहा। वे एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व बन चुके थे। किंतु राजनीति में सारा कुछ यथावत कहां चलता है। वे अपने ही दल की आंतरिक राजनीति का शिकार बन गए। स्थानीय नेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते उन्हें दिल्ली के नेताओं से लड़ा दिया। जिन कुसुम राय की काफी चर्चा होती रही है कि कल्याण सिंह उन्हें काफी ज्यादा महत्व देते हैं। वही कुसुम राय आज भाजपा से राज्यसभा की सदस्य हैं। कल्याण सिंह अपने प्रथम मुख्यमंत्रित्व काल में जहां व्यापक सरोकारों वाले नेता साबित हुए वहीं जब उन्हें दुबारा मुख्यमंत्री बनाया गया तो मिलीजुली सरकार होने के कारण उनका पूरा कार्यकाल विवादों से धिरा रहा। पहली सरकार में जहां कल्याण सिंह माफियाओं के लिए सिरदर्द थे तो दूसरी बार माफिया उनकी सरकार में मंत्री बने बैठे थे। सो उनका इकबाल खत्म सा हो गया। फिर रही सही कसर कुसुम राय ने पूरी कर दी। इसके साथ ही भाजपा का एक धड़ा जिसमें खुद मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी, उनके पीछे लगा ही था। हालात ऐसे बनाए गए कि कल्याण अपने दिग्गज नेताओं अटल जी और लालकृष्ण आडवानी से ही भिड़ गए। केंद्र में मंत्री बनाए गए पर वह उन्हें रास नहीं आया। जिस तरह से उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया गया वह बात उन्हें दंश देती रहती थी। कल्याण सिंह दिल से ज्यादा दिमाग से काम कम लेते हैं। सो वे दिल की बात कई बार सार्वजनिक रूप से कहने में संकोच नहीं करते। उनका यही स्वभाव उन्हें दल के शीर्ष नेतृत्व की नजर में अप्रिय बनाता गया। आज हालात यह हैं कि भाजपा उप्र में कहीं नहीं है तो इसका कारण यही है उसके पास कल्याण सिंह का कोई विकल्प नहीं है। कल्याण पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय क्रांति दल नाम से अपनी पार्टी बना कर उप्र में भाजपा की लुटिया डुबोने में कामयाब रहे। भाजपा को बुरी पराजय मिली। वे फिर भाजपा में लौटे किंतु दल में बहुत कुछ बदल चुका था। कल्याण सिंह जो चाहते थे वह होना संभव भी नहीं था। सो वो अपने इस दौर में कभी भाजपा के साथ बहुत सहज न रह पाए। चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री का प्रत्याशी धोषित कर चुनाव भी लड़ा गया किंतु जो होना था वही हुआ, बसपा की प्रबल बहुमत से सरकार बनी। लोकसभा चुनावों में हालात यह हुए कि कल्याण सिंह एक लोकसभा सीट के लिए पार्टी छोड़कर फिर चलते बने और इस बार उनके साथ मुलायम सिंह यादव थे। यह ऐसा समय था जिसने कल्याण सिंह की रही- सही विश्वसनीयता भी खत्म कर दी। एक ऐसा नेता जो अपनी दृढ़ता, ईमानदारी, सच बोलने के लिए जाना जाता था उसका ऐसा हश्र देखने लायक था। चुनावों में मुलायम को जब झटका लगा तो वे भी कल्याण सिंह से पल्ला झाड़ने के लिए मजबूर हो गए। सच कहें तो कल्याण सिंह ने अपने पल-पल बदलते बयानों, व्यवहार से अपनी स्थिति बहुत हास्यापद बना ली है। विश्वसनीयता और प्रामणिकता के मोर्चे पर वे बेहद दयनीय दिखते हैं। अब जब वे पुनः एक नया दल बनाकर राम की शरण में वापस लौट आए हैं तो उनके दावों और वादों को कितना विश्वसनीय माना जा सकता है।

भाजपा के लिए भी यह सोचने का समय है कि उसके जनाधार वाले नेताओं उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, शंकर सिंह वाधेला का जो हाल हुआ है उसके लिए वह खुद कितनी जिम्मेदार है ? क्या भाजपा के तंत्र में कोई ऐसी कमी है कि वह उर्जा के रचनात्मक इस्तेमाल में विफल हो जाती है ? ये सारे नेता उसके तपे तपाए नेता रहे हैं क्या कारण है कि भाजपा उनके लिए अपने दिल और दल में इतनी जगह नहीं बना पाती कि वे सहज होकर अपनी राजनीतिक पारी अपने मूल दल के साथ ही खेल सकें। कल्याण सिंह का प्रसंग इस बात की गवाही है कि राजनीति में आपका एक गलत कदम किस तरह आपको हास्यास्पद बना देता है और दिशाहीन भी। कल्याण सिंह आज जिस स्थिति में उसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। धैर्य के अभाव ने उन्हें राजनीति के रेगिस्तान में ला पटका है। यहां से वे कौन सी राह पकड़ते हैं इसके लिए थोड़ा इंतजार तो करना ही पड़ेगा। फिलहाल कल्याण के लिए तो हारे को हरिनाम जैसी ही स्थिति है। फिलहाल तो कल्याण सिंह विश्वसनीयता के संकट से धिरे हैं ऐसे में उन्हें राम का नाम कितनी मदद कर पाएगा कहा नहीं जा सकता।

-संजय द्विवेदी