कर्तव्यों व जि़म्मेदारियों पर भारी पड़ती टीआरपी की होड़

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trpतनवीर जाफ़री
मीडिया को समाज का दर्पण माना जाता है। हमारे भारतीय लोकतंत्र मे तो इसे गैर संवैधानिक तरीक़े से ही सही परंतु इसकी विश्वसनीयता तथा जि़म्मेदारी के आधार पर इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा से नवाज़ा गया है। अख़बारों में छपने वाली खबरें अथवा रेडियो या टीवी पर प्रसारित होने वाले समाचार या इस पर दिखाई जाने वाली विभिन्न विषयों की वार्ताएं अथवा बहस आम लोगों पर अपना महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ती हैं। मीडिया का हमारे समाज में इतना महत्व है कि देश में शांति बनाए रखने या अशांति फैलाने में भी यह अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। परंतु बड़े अफ़सोस की बात है कि आज यही मीडिया अपने कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों से विमुख होता दिखाई दे रहा है। और मात्र अपनी टीआरपी बढ़ाने अर्थात् टेलीवीज़न रेटिंग प्वाईंटस अर्जित करने के मक़सद से या व्यवसायिक दृष्टिकोण से मीडिया का दुरुपयोग किया जाने लगा है। टेलीविज़न के क्षेत्र में ख़ासतौर से इस प्रकार की प्रवृति बहुत तेज़ी से पनपती देखी जा रही है।
पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में एक प्रतिष्ठित मीडिया हाऊस द्वारा अपना एक वार्षिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। उस कार्यक्रम मे टीवी जगत की एक ऐसी प्रसिद्ध परंतु बदनाम शिख्सयत को सम्मानित किया गया जो रिश्वतख़ोरी तथा घोटालों में संदिग्ध तो था ही साथ-साथ उस पर एक महिला के संबंध में ग़लत रिपोर्ट प्रसारित कराए जाने का भी आरोप था। अफ़सोस की बात तो यह है कि ऐसे संदिग्ध पत्रकार को महिलाओं के क्षेत्र में अच्छी रिपोर्टिंग किए जाने के लिए ही सम्मानित किया गया। सोशल मीडिया में इस पत्रकार को सम्मानित किए जाने की काफी आलोचना की गई। कुछ लोगों ने तो इस विषय पर यहां तक लिखा कि उसके सम्मानित होने से तो गोया सम्मान से ही विश्वास उठ गया है। वैसे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया पहले की तुलना में अब ऐसी कई बातों को लेकर अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। टीवी चैनल्स संचालित करना तो गोया एक तमाशा सा बन गया है। यदि कोई धनाढ्य व्यक्ति अपराधी गतिविधियों में या घोटालों में शामिल होता है और टीवी चैनल्स उसकी करतूतों को बेनक़ाब करते हैं तो वही व्यक्ति अपने धनबल से अपना टीवी चैनल चलाकर स्वयं मीडिया परिवार का हिस्सा बन जाता है और शत-प्रतिशत व्यवसायिक तरीके से अपने चैनल को चलाने लगता है। उसे इस बात की क़तईफ़िक्र नहीं होती कि जिस पेशे को उसने शुरु किया है वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है और उसके पेशे के अपने कर्तव्य तथा कुछ ज़िम्मेदारियां भी हैं।
आजकल कई नए-नए क्षेत्रीय टीवी चैनल्स में जिस स्तर पर पत्रकारों की भर्ती की जा रही है वह पैमाना तो बहुत हैरान करने वाला है। चैनल के संचालक या संपादक अथवा निदेशक यह भी नहीं देख रहे हैं कि जिस व्यक्ति के हाथों में वे अपने चैनल का लोगो लगा हुआ माईक थमा रहे हैं वह अपराधी है, सट्टेबाज़ है, अनपढ़ है उसे किसी विशिष्ट व्यक्ति से सवाल पूछना तो दूर उसे पत्रकारिता की एबीसीडी भी नहीं आती। आजकल ऐसे चैनल अपने पत्रकारों को तनख़्वाह अथवा पारिश्रमिक के नाम पर तो कुछ भी नहीं देते बजाए इसके उसी पत्रकार से कैमरा ख़रीदने को कहते हैं तथा उसके पास कार अथवा मोटरसाईकल है या नहीं यह भी सुनिश्चित करते हैं। शैक्षिक योग्यता तो पूछी ही नहीं जाती। ज़रा सोचिए ऐसा पत्रकार किसी मीडिया हाऊस से जुडऩे के बाद अपनी हेकड़ी बघारते हुए ब्लैकमेलिंग या सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए लोगों को  डराने-धमकाने का काम करेगा या नहीं? ऐसे कथित पत्रकारों से भला मीडिया के सम्मान तथा उसके कर्तव्यों व ज़िम्मेदारियों को निभाने की उम्मीद भी क्या की जा सकती है जो पत्रकार पत्रकारिता के विषय में कुछ जानता ही न हो? और जो पत्रकार पत्रकारिता की समझ रखते भी हैं वे भी अपने स्वामियों के इशारे पर कुछ ऐसा कर दिखाने की कोशिश करते हैं ताकि जनता उनके चैनल की तरफ़ आकर्षित हो और उनके चैनल की तथा किसी कार्यक्रम विशेष की टीआरपी बढ़ती रहे। इसके लिए चाहे उन्हें ‘रस्सीका सांप’ क्यों न बनाना पड़े वे इससे भी नहीं हिचकिचाते। उदाहरण के तौर पर इन दिनों देश में असहिष्णुता जैसे विषय को लेकर एक फ़ुज़ूल की बहस छेड़ दी गई है। टीवी चैनल्स में मानो परस्पर प्रतिस्पर्धा हो गई है कि कौन सा चैनल किस मशहूरफ़िल्मी हस्ती से सहिष्णुता व असहिष्णुता के विषय पर कुछ ऐसा बयान ले ले जो उसके लिए ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाए।फ़िल्मोद्योग के लोग बेशक आम लोगों की ही तरह संवेदनशील होते हैं। इनमें कई बड़े कलाकार ऐसे भी हैं जो समय-समय पर दान,चंदा अथवा सहयोग देकर जनकल्याण संबंधी कार्य भी करते रहते हैं। परंतु इसमें भी कोई शक नहीं कि यह वर्ग एक व्यवसायिक वर्ग है। इन्हें देश व समाज की चिंताओं से पहले यही देखना होता है कि इनकी फ़िल्में  हिट हो रही हें अथवा नहीं। इनकी सफलता व असफलता का पैमाना इनकी फ़िल्मों की लोकप्रियता पर ही निर्भर करता है। लिहाज़ा इसमें कोई दो राय नहीं कि प्राय: इन लोगों को समाज का हर वर्ग प्रिय तथा एक समान दिखाई देता है। इनके लिए धर्म-जात,क्षेत्र या वर्ग आदि की कोई अहमियत नहीं होती। इनके लिए सभी इनके सम्मानित दर्शक व प्रशंसक होते हैं। परंतु पिछले कुछ दिनों से यह देखा जा रहा है कि कुछ विशेष अभिनेताओं से असहिष्णुता संबंधी प्रश्र पूछकर टी वी चैनल्स द्वारा अपनी तो टीआरपी बढ़ाई जा रही है परंतु ऐसा कर इन कलाकारों के लिए मुसीबतें खड़ी की जा रही हैं। किसी धर्म विशेष से जुड़ा कोई अभिनेता यदि इस विषय पर अपने मन की या अपने परिवार की कोई बात सामने रख देता है तो टीवी एंकर गला फाड़-फाड़ कर उस की बातों को एक अपराधपूर्ण बात की तरह पेश करता है। परंतु यही बात अगर किसी अन्य धर्म का व्यक्ति कहे तो उसपर चर्चा भी नहीं होती।टीवी चैनल्स का आख़िर यह कौन सा पैमाना है?
इसी प्रकार हमारे देश में यदि आतंकवाद से जुड़ा या किसी आतंकवादी संगठन से संबंध रखने का कोई संदिग्ध व्यक्ति पकड़ा जाता है तो टीवी चैनल्स इतना शोर मचाते हैं गोया दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी पकड़ गया हो। हालांकि गिरफ़्तार किया गया कोई भी व्यक्ति प्रारंभिक दौर में केवल संदिग्ध ही होता है। परंतु टीवी चैनल्स उस की गिरफ़्तारी की ख़बर इस तरह पेश करते हैं गोया गिरफ़्तारी के समय ही अदालत ने उसे अपराधी क़रार दे दिया हो। परंतु यदि कोई अमन-शांति व भाईचारे की ख़बरें समाज से निकलती हैं उनपर यही चैनल ध्यान नहीं देते। गोया विवादित अथवा क्राईम संबंधी खबरें चीख़-चीख़ कर सुनाने से इनको अपनी  लोकप्रियता बढ़ती नज़र आती है और अपने चैनल की टीआरपी बुलंदी पर जाती दिखाई देती है। इन दिनों आतंकवाद के नाम पर आईएस अर्थात् इस्लामिक स्टेट से जुड़ी ख़बरें लगभग प्रतिदिन प्रत्येक चैनल पर किसी न किसी राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय समाचार के संदर्भ में सुनाई देती हैं। जैसे हमारे देश में कहीं आईएस का झंडा लहराया गया, कोई व्यक्ति आईएस से संबंधित नेटवर्क का हिस्सा नज़र आया, कोई आईएस के लिए भर्ती करने का आरोपी दिखाई दिया तो कोई आईएस के लिबास में नज़र आया आदि।
एक और ख़बर अक्सर सुनने में आती है कि आतंकवादियों के कुकर्मों की आलोचना तथा इसका विरोध अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा ठीक ढंग से नहीं किया जाता। यहां तक कि पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने भी इसी आशय का बयान दिया था जिसे लेकर मीडिया में ख़ूब चर्चा हुई थी। परंतु पिछले दिनों देश की सबसे प्रमुख सूफ़ी दरगाह अजमेर शरीफ़ में होने वाले सालाना उर्स के दौरान लाखों मुसलमानों की मौजूदगी में देश के लगभग सत्तर हज़ार भारतीय मुस्लिम मौलवियों ने आईएसआईएस,तालिबान,अलक़ायदा तथा अन्य कई आतंकी संगठनों के विरुद्ध एक फतवा जारी करते हुए कहा कि यह आतंकी संगठन इस्लामी संगठन नहीं हैं बल्कि यह संगठन मानवता के लिए एक बड़ा खतरा हैं। यहां न केवल देश के सत्तर हज़ार मौलवियों व मुफ़्तियों ने फ़तवा जारी किया बल्कि इससे संबंधित एक फ़ार्म पर लाखों मुसलमानों से दस्तख़त भी करवाए गए जिसमें सभी ने एक स्वर से इन आतंकवादी संगठनों को ग़ैर इस्लामी बताया,इनकी गतिविधियों को ग़ैर इंसानी कऱार दिया तथा पेरिस पर हुए आतंकवादी हमले सहित दुनिया में हर स्थान पर होने वाले आतंकी हमलों की घोर निंदा की गई। परंतु इतनी बड़ी ख़बर पर ध्यान देना किसी टीवी चैनल ने ज़रूरी नहीं समझा। बड़े आश्चर्य की बात है कि आतंकवाद का एक संदिग्ध तो किसी टीवी चैनल के लिए उसकी टीआरपी बढ़ाने का कारक बन जाता है परंतु सत्तर हज़ार मौलवियों द्वारा एक स्वर से आतंकवाद व आतंकवादी गतिविधियों के विरुद्ध फ़तवा जारी करना इन्हीं टीवी चैनल्स के लिए कोई अहमियत नहीं रखता? इसे आख़िर टी वी पत्रकारिता का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है? क्या यह इसका प्रमाण नहीं है कि टीवी पत्रकारिता अपने कर्तव्यों व अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोडक़र केवल अपनी टीआर पी को बढ़ाए जाने के एकसूत्रीय एजेंडे पर अमल कर रही है?

 

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  1. यही हाल रहा तो लोग टीवी देखना और अखबार बांचना छोड़ देंगे। मैंने तो 5 साल से छोड़ रखा है।

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