राजनीति

कश्मीरः अब पत्थरों के बदले गोलियां

dsc_0438सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल कश्मीर हो आया। नतीजा क्या निकला? उल्टा ही हुआ! गृहमंत्री राजनाथसिंह ने पूरी कोशिश कर ली। न जाकर भी देखा और जाकर भी देख लिया। पहले खुद जाकर देखा, फिर सबको ले जाकर देख लिया। हुर्रियतवालों के हाथों अपनी उपेक्षा भी देख ली। शरद यादव, सीताराम येचूरी, डी. राजा वगैरह को जीलानी ने अपने घर में घुसने तक नहीं दिया। वे अपना-सा मुंह लेकर लौट आये। जिन सैकड़ों लोगों से यह प्रतिनिधि-मंडल मिला, क्या उन्होंने पत्थरफेंकू नौजवानों से शांति की अपील की? यदि वे अपील करते तो क्या उसका जरा-सा भी असर उन लड़कों पर होता?

तो फिर नतीजा क्या निकला? यही कि सारे मामले से अब प्रीतिपूर्वक नहीं, यथयोग्य ढंग से निपटा जाए। पत्थरफेंकू जवानों पर अब छर्रे नहीं चलाएं जाएंगे लेकिन उनको भड़काने वाले नेताओं पर कड़ी निगरानी रखी जाएगी। अलगाववादी नेताओं के पासपोर्ट जब्त किए जाएंगे, ताकि वे विदेश-यात्राएं नहीं कर सकें। उनके बैंक-खातों और नकद लेन-देन पर निगरानी और जांच भी कड़ी की जाएगी। उनकी सुरक्षा पर खर्च भी काटा जाएगा। हिंसक तत्वों के खिलाफ जवाबी कार्रवाई काफी कड़ी की जाएगी।

इतना सख्त रवैया सरकार पहले भी अपना सकती थी लेकिन उसने अच्छा किया कि पहले उसने इंसानियत की राह पकड़ी। अब वह वही करेगी, जो सरकारें अक्सर करती हैं। यदि लड़के पत्थर चलाएंगे तो वह गोलियां चलाएगी। यह बहुत ही बुरा होगा। कई गुना ज्यादा लोग मरेंगे लेकिन कश्मीरियों का कोई फायदा नहीं होगा। दुनिया में उनकी कोई नहीं सुनेगा, क्योंकि उनकी बगावत पाकिस्तान से जुड़ गई है और पाकिस्तान आतंकवाद से जुड़ गया है। यदि वह हिंसा 60 दिन क्या, 600 दिन भी इसी तरह से चलती रही तो भी उनके लिए कोई आंसू गिराने वाला देश सामने नहीं आएगा।

कश्मीर के नौजवान यह क्यों नहीं समझते कि उनके कश्मीर को न भारत से अलग किया जा सकता है और न ही पाकिस्तान से। हां, दोनों कश्मीरों को आपस में मिलाया जा सकता है और उन्हें ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता दी जा सकती है। इसी स्वायत्तता का नाम आजादी है, खुदमुख्तारी है। जो लोग अपने आपको कश्मीरियों का नेता कहते हैं, वे इस आजादी पर भी बात नहीं करना चाहते तो वे चाहते क्या हैं? यदि वे चाहते हों कि कश्मीर एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बन जाए तो उसका विरोध भारत से भी ज्यादा पाकिस्तान करेगा।