केजरीवाल के बयान पर राजनीति नहीं आत्ममंथन की ज़रूरत

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तनवीर जाफरी

प्रशासनिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से दु:खी तथा इसमें राजनैतिक दखलअंदाजि़यों से तंग आकर अरविंद केजरीवाल ने भारतीय राजस्व अधिकारी का पद त्याग दिया था। जिस लाल बत्ती लगी गाड़ी को हासिल करने के लिए इस देश में न जाने क्या-क्या यत्न किए जाते हैं उस लाल बत्ती की गाड़ी व ठाठ-बाठ को ठुकराकर सार्वजनिक जीवन में लौटकर भ्रष्टतंत्र के विरूद्ध संघर्ष करने का फैसला करने जैसी उनकी कुर्बानी को नकारा नहीं जा सकता। निश्चित रूप से यह किसी राष्ट्रभक्त व्यक्ति की ही सोच हो सकती है। यह वही अरविंद केजरीवाल हैं जिन्हें देश में सूचना के अधिकार कानून का ‘भागीरथ’ माना जाता है।

परंतु पिछले दिनों उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के दौरान जिस प्रकार केजरीवाल ने भारतीय संसद के ‘माननीय’ सदस्यों को आईना दिखाने को काम किया है वह राजनीतिज्ञों के लिए अपमान का कारण बन गया है। सभी राजनैतिक दल केजरीवाल के विरूद्ध उसी प्रकार से लामबंद होते दिखाई दिए जैसे कि यह माननीय संसद अपनी तनख्वाहें व भत्ते आदि बढ़ाए जाने जैसे मुद्दे पर सर्वसम्मति से एकजुट हो जाया करते हैं। सभी दलों के सांसद एक स्वर से यह कहते सुनाई दिए कि केजरीवाल को ऐसा नहीं कहना चाहिए था, उन्होंने संसद का अपमान किया है,उन्होंने लोकतंत्र के मंदिर को बदनाम किया है तथा भारतीय संसद पर गलत आरोप लगाए हैं। केजरीवाल पर मुकदमा चलाए जाने की बात भी कुछ नेताओं द्वारा कही गई। गौरतलब है कि अपने भाषण में केजरीवाल ने कहा था कि संसद में गु़ंडे,बलात्कारी व लुटेरे लोग बैठे हैं और इनकी वजह से देश की संसद ही एक समस्या बन गई है। उन्होंने बताया कि इस समय संसद में 163 ऐसे माननीय सांसद हैं जिनपर अपराधिक मुकद्दमें चल रहे हैं। उनका यह बयान माननीय सांसदों को रास नहीं आया।

इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि देश की संसद भारतीय लोकतंत्र के मंदिर का ही एक विराट स्वरूप है। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक इस संसद में तमाम ऐसे लोग विभिन्न पदों पर आसीन देखे गए जोकि न केवल अपने बेहतरीन चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत करते थे बल्कि नैतिकता की भी जीती-जागती मिसाल हुआ करते थे। क्या पक्ष तो क्या विपक्ष सभी आज भी रेलमंत्री के रूप में स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री के उस त्यागपत्र को याद करते हैं जोकि उन्होंने मात्र एक रेल दुर्घटना में स्वयं को जि़म्मेदार मानते हुए दे दिया था। क्या शास्त्री जी की सोच की तुलना आज के किसी तथाकथित सद्चरित्र नेता के साथ की जा सकती है। आए दिन संसद में मंत्रियों पर अनैतिकता के तमाम आरोप लगते रहते हैं। संसद के पूरे के पूरे सत्र शोर-शराबे में समाप्त हो जाते हैं। सत्र स्थगित कर दिए जाते हैं ।

परंतु अनैतिकता के आरोप पर त्याग पत्र देना तो बहुत दूर की बात है मंत्री महोदय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। इसका भी एक कारण है। दरअसल आरोपित मंत्री भी यह भलीभांति जानता है कि हम पर आरोप लगाने वाले तथा हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले भी दरअसल कितने पानी में हैं तथा उनकी नैतिकता व चरित्र का क्या स्तर है। इसीलिए वह त्यागपत्र न देने पर अड़ा रहता है और अपने ऊपर लगने वाले सभी आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताकर बड़ी ही चतुराई से अपनी कुर्सी बचा ले जाता है। क्या शास्त्री जी के उस युग की संसद की आज के माहौल से तुलना की जा सकती है?

 

सात वर्ष पूर्व एक प्रतिष्ठित दैनिक हिंदी समाचार पत्र में मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था ‘सांसद हैं या चंबल के डाकू’? हालांकि यह शीर्षक मेरा दिया हुआ नहीं बल्कि संपादित था। फिर भी उस आलेख में तमाम ऐसे तथ्य शामिल किए गए थे जोकि इस शीर्षक को मज़बूती प्रदान करते थे। इस आलेख को लेकर हिमाचल प्रदेश की विधानसभा में भी उस दिन काफी हंगाम बरपा हो गया था। कई विधायकों ने यह बात कही कि लेखक ने ऐसा क्यों लिखा? जबकि कई विधायक ऐसे भी थे जिन्होंने उसी सदन में यह सवाल किया था कि लेखक को आखर ऐसा लिखना क्यों पड़ा? इसी प्रकार केजरीवाल के कहने का अंदाज़ कुछ अलग ज़रूर हो सकता है |

परंतु वास्तविकता तो यही है कि जो बात अरविंद केजरीवाल ने कही है वही देश की निष्पक्ष जनता की सोच बन चुकी है भले ही यही जनता स्वयं किन्हीं परिस्थितियोंवश इस प्रकार के अवांछित व असामाजिक तत्वों को चुनने के लिए मजबूर भी क्यों न हो जाती हो। यदि चंबल के डाकुओं,गैंगस्टर्स, बाहुबलियों, दबंगों, हत्यारों, बलात्कारियों व लुच्चे-लफं गों के सांसद चुने जाने की बात हम एक किनारे भी कर दें तो भी हमारे देश के सफदेपोश दिखाई देने वाले माननीय सदस्य भी संसद की मर्यादा को तार-तार करने में कोई कम भूमिका नहीं निभाते।

याद कीजिए, सन् 2005 का वह समय जबकि देश के एक निजी टीवी चैनल ने अप्रैल 2005 से लेकर दिसंबर 2005 तक लगातार 9 महीने लंबा एक स्टिंग आप्रेशन चलाया। जिसमें पूरे देश ने देखा कि किस प्रकार देश के ग्यारह सफेदपोश सांसद जिनमें दस लोकसभा सदस्य तथा एक राज्यसभा का सदस्य शामिल था, संसद में प्रश्र पूछने के बदले में पांच हज़ार रुपये से लेकर एक लाख दस हज़ार रुपये तक की रिश्वत ले रहे थे। इनमें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी व राष्ट्रीय जनता दल के सांसद तो थे ही परंतु देश को नैतिकता व चरित्र का पाठ पढ़ाने वाली तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा के ही 6 सांसद शामिल थे। ऐसे ज़मीरफरोश सांसदों की क्या पूजा की जानी चाहिए? क्या यह हमारे देश के गरिमामयी सांसद कहे जाने योग्य हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि यह ‘माननीय’सांसद देश की जनता व अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व ज़रूर करते हैं।

परंतु वास्तव में यह सम्मान के योग्य हरगिज़ नहीं। बजाए इसके ऐसे अपराधी,चरित्रहीन व लालची प्रवृति के लोग अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों तथा वहां के मतदाताओं को बदनाम ही करते हैं। उपरोक्त घटना के कुछ दिनों बाद ही चार सांसद कबूतरबाज़ी के आरोप में भी पकड़े गए। मज़े की बात तो यह है कि इनमें से एक सांसद वह भी था जोकि संसद में प्रश्र पूछने के बदले में पैसे लेने के आरोप में रंगे हाथों पकड़ा जा चुका था। अब ज़रा ऐसे सांसद के हौसलों की कल्पना कीजिए कि वह व्यक्ति सांसद चुने जाने के बाद अवैध तरीके से पैसे कमाने का कितना चाहवान है।

एच.डी. देवगौड़ा के प्रधानमंत्रित्वकाल में देश ने वह नज़ारा भी देखा है जबकि एक केंद्रीय मंत्री को मंत्रिमंडल से केवल इसलिए त्यागपत्र देना पड़ा था क्योंकि वह अपराधी था तथा उसके ऊपर जघन्य अपराधों के कई मुकदमे चल रहे थे। क्या फूलनदेवी हमारे देश की संसद की गरिमा को ‘चार चांद’ नहीं लगा चुकी हैं? ऐसे और भी कई नाम हैं जिन्हें कि पूरा देश भलीभांति जानता है। संसद को दागदार व अपराधियों की शरणस्थली बनाने में अरविंद केजरीवाल या संसद से बाहर बैठे लोगों की नहीं बल्कि स्वयं राजनैतिक दलों की सबसे बड़ी भूमिका है। राजनैतिक दल पहले तो इनकी दबंगई व बाहुबल का लाभ उठाने के लिए इनसे समर्थन मांगते हैं। बाद में इन्हें पार्टी की ओर से प्रत्याशी बनाकर चुनाव लड़वाते हैं। और इस प्रकार वे अपनी तिकड़मबाजि़यों के बल पर चुनाव जीतकर लोकतंत्र के मंदिर में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। और अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा पूर्व में संरक्षण दिए गए इन बाहुबली सांसदों को यदि कोई पार्टी अपनी छवि बचाने के लिए इनसे दूर रहने का स्वांग रचती है तो ऐसे लोग स्वयं अपनी पार्टी बनाकर या स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडक़र सदन तक निर्वाचित होकर पहुंचने की कोशिश करते हैं।

ऐसे में बहस कतई इस विषय को लेकर नहीं होनी चाहिए कि अरविंद केजरीवाल ने क्या कहा। बल्कि बहस का विषय यह होना चाहिए कि उन्हें ऐसा क्यों कहना पड़ा और आगे ऐसे क्या उपाय किए जाएं जिससे कि मेरे जैसा कोई लेखक या केजरीवाल जैसा कोई सामाजिक कार्यकर्ता लोकतंत्र के मंदिर तथा उनके सदस्यों पर उंगली न उठा सके। अन्यथा यदि देश की संसद का प्रयोग सांप्रदायिकता फैलाने, देश में धार्मिक उन्माद बढ़ाने, रिश्वत, भ्रष्टाचार व धनार्जन का माध्यम बनाने, बाहुबलियों,गुंडों, गैंगस्टर्स, अपराधियों व दबंगों को पार्टी प्रत्याशी बनाकर या समर्थन देकर उन्हें संसद तक लाने के लिए किया जाता रहेगा तो इस प्रकार की आवाज़ें निश्चित रूप से भविष्य में भी उठती रहेंगी। इसमें कोई शक नहीं कि देश की संसद भारतीय लोकतंत्र का एक मंदिर ज़रूर है परंतु यह इस संसद के सदस्यों पर ही निर्भर करता है कि वे अपने नैतिकतापूर्ण आचरणों से सदैव यह प्रमाणित करते रहें कि यह एक सम्मानित,पूजनीय व आदर योग्य स्थान है न कि वह जोकि हमारे जैसे लोग लिखते या केजरीवाल जैसे लोग बोलते हैं।

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  1. तनवीर जाफरी जी ,आपने जो विचार प्रकट किये हैं,वह उन सब नागरिकों के विचार का प्रतिनिधत्व करते हैं,जो देश की संसद की गरिमा को समझते हैं,फिर भी केजरीवाल की तरह वक्तव्य देने को या उनको समर्थन करने को बाध्य हो गए हैं.पर वे लूटेरे,भ्रष्टाचारी ,कपटी और बलात्कारी जो इस पवित्र संस्थान को दूषित कर रहे हैं ,उनको तब तक क्या अंतर पड़ता है जब तक विभिन्न तबकों में बंटी हुई जनता उनको समर्थन देने को तैयार हैं?.यह केजरीवाल भी मानते हैं और आप या हम भी मानते हैं कि संसद में अभी भी कुछ अच्छे लोग हैं ,पर उनकी संख्या उतनी नहीं ,जितनी प्रमाण के अभाव में दिख रही है.वैसे लोग मुट्ठी भर ही बचे हैं जो वास्तव में अच्छे कहे जा सकते हैं.अतः संसद में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उनकी संख्या अधिक है,जिनकी गिनती लूटेरों,धोखेवाजों , बलात्कारियों, में की जा सकती है.यह विडम्बना ही है किवैसे लोगों को हम ने ही वहां भेजा है,अतः जागरूकता की आवश्यकता आम जनता के लिए है ,जो ऐसे लोगों को वहां न भेजे और अगर वह पहले से अच्छा होने के बावजूद वहां जाने पर मनमानी करने लगे तो उसे दुबारा मौक़ा न दें.

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