भ्रष्टाचार के कानूनी पेच

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हिमकर श्याम

निस्संदेह, बहुचर्चित पशुपालन घोटाला कई नजरिए से अनूठा है. इसमें सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञ, नौकरशाहों, माफिया, ठेकेदारों व अन्य ने सरकारी खजाने से करोड़ों रूपये का घोटाला किया. सावर्जनिक धन के लूट का यह खेल निरंतर और निर्बाध रूप से कई वर्षों तक चला. बिहार सरकार के पशुपालन विभाग ने स्कूटर, मोपेड से गाय-भैंस ढोए थे. चारा की आपूर्ति भी स्कूटर से की गयी थी. बाद में फर्जी आपूर्ति दिखा कर कोषागारों से अरबों की अवैध निकासी कर ली गयी थी. चारा घोटाले के कुल 64 मामले चल रहे हैं, इसमें से 53 मामले झारखण्ड के हैं.

गुरूवार को सीबीआई की अदालत में एक आरोप पत्र दाखिल किया गया जिसमे लालू प्रसाद, डा. जगन्नाथ मिश्रा और उनके कुछ सहयोगियों को इस घोटाले में आरोपी बनाया गया. एक मौजूदा सांसद और एक पूर्व सांसद भी आरोपी हैं. अदालत में लालू समेत सभी आरोपियों का बयान दर्ज करने की कार्रवाई पूरी हो चुकी है. अभी आरोप तय हुए हैं. अब उस पर फिर से जांच की जाएगी फिर कहीं जाकर कोई मामला बनेगा. इसमें कोई शक नहीं कि अन्य मामलों कि तरह ही यह मामला भी वर्षों तक चलता रहेगा, बहसें चलती रहेगी, बयान बदलते रहेंगे, गवाह मिटते रहेंगे. चारा घोटाले में अभियुक्तों की कुल संख्या 1432 है. इनमें से कुछ अब इस दुनिया में नहीं रहें और हो सकता है लंबी प्रक्रिया के दौरान कुछ और नहीं रहेंगे. अंततः इस मामलें में भी कोई कारगर नतीजा नहीं निकलेगा.

यह आरोप पत्र बताता है कि ताकतवर लोगों के भ्रष्टाचार की जांच की गति कितनी धीमी हो सकती है और भ्रष्टाचार के खात्मे की राह में कितने कानूनी पेच हैं. सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर क्यों सीबीआई को यह आरोप तय करने में 16 साल का समय लग गया. पशुपालन विभाग में पैसे की गड़बड़ी की पहली आशंका सीएजी ने सन 1985 में व्यक्त की थी. अगर शुरू में ही इस पर रोक लग जाती, तो इसका इतना विस्तार नहीं होता. यह घोटाला करीब 950 करोड़ रूपये का है. घोटाला प्रकाश में धीरे-धीरे आया और जांच के बाद पता चला कि ये सिलसिला वर्षों से चल रहा था. उसके बाद भी इसकी जांच को रोकने की पूरी-पूरी कोशिश की गई, लेकिन पटना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की दखल से यह मामला सीबीआई को सौंपा गया. कोई पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि घपला कितनी रकम का है.

इस घोटाले को लेकर तब बड़ा राजनीतिक बवाल खड़ा हो गया था और इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी. सीबीआई का शायद ही कोई ऐसा मामला होगा जिसमें सर्वोच्च न्यायालय या पटना उच्च न्यायालय ने उस तरह का हस्तक्षेप करने की जरुरत महसूस की होगी जैसी पशुपालन घोटाले में महसूस की गयी. इसी घोटाले ने छानबीन के जिम्मेवार संयुक्त निदेशक और सीबीआई निदेशक के बीच मतभेद को सार्वजानिक कर दिया था. यह आरोप पत्र 1994 से 1996 के बीच 46 लाख रुपये के घोटाले को लेकर है. उस वक्त लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे और डा. जगन्नाथ मिश्रा बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. चारा घोटाले के मामले में लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्र एक से ज्यादा बार जेल जा चुके हैं और लालू प्रसाद यादव को इसके चलते बिहार के मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था.

 

यह गंभीर चिंता का विषय है कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली भ्रष्टाचार और संगठित अपराधों से निपटने में पूरी तरह नाकाम रही है और खासतौर वैसी स्थिति में जब इनमें ऊंची पहुंच रखनेवाले लोग शामिल हों. भ्रष्टाचार के मामलों में इसीलिए आरोपियों को सजा से डर नहीं लगता, क्योंकि वे जानते हैं कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया कितनी सुस्त है. बहुत पहले न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ ने अपनी सेवानिवृत्ति के अवसर पर कहा था कि न्यायपालिका के समक्ष जो कार्य है, उन्हें वह बखूबी नहीं कर पा रही है और उन्होंने न्यायिक व्यवस्था की तुलना ’बैलगाड़ी’ से की थी. हमारी न्याय-प्रणाली, भारत के संविधान में निहित प्रावधानों पर आधारित है. संविधान एक श्रेणीबद्ध न्यायिक व्यवस्था देता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च है, उसके नीचे हाईकोर्ट है और हाईकोर्टों के नीचे अधीनस्थ अदालतें हैं. पुलिस और सीबीआई का हाल तो जगजाहिर है. महत्वपूर्ण मामलों की जांच में सीबीआई को शीर्ष राजनैतिक सत्ताधीशों से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता है.

 

ऐसे मामले बहुत कम हैं जिसमें किसी मंत्री या उच्चपदासीन व्यक्ति को भ्रष्टाचार के लिए अदालत द्वारा दंडित किया गया हो, हालांकि भ्रष्ट मंत्रियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. सार्वजनिक जीवन में बढ़ते भ्रष्टाचार से बचने का रास्ता यही है कि आपराधिक न्याय-प्रणाली को मजबूत बनाया जाए. अगर भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए समय की सीमा बंध जाए तो भ्रष्टाचार 50 फीसदी घट जाएगा. अब तक इस दिशा में जो प्रयास हुए हैं वे काफी आधे-अधूरे हैं. भारत में न्यायिक निर्णयों में अंतहीन विलम्ब एक ज्वलन्त समस्या है- न्यायिक प्रक्रिया की गति और गुणवत्ता में सुधार की जरूरत है. राजनीतिक भ्रष्टाचार की बात का अब कोई मतलब नहीं रह गया है. जनता यह मानकर चलती है की राजनीति करनेवाले लोग भ्रष्ट होंगे ही. न्यायपालिका पर अब भी भरोसा कायम है. न्यायपालिका में जबावदेही और पारदर्शिता की प्रणाली लागू की जानी चाहिए ताकि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सके-

भारतीय समाज काले धन, भ्रष्टाचार] अपराध, घोटाले आदि बड़े स्तर के भ्रष्ट आचरण की चुनौतियों से जूझ रहा है- यदि हम चाहते हैं कि नागरिकों को शीघ्र और सस्ता न्याय मिले तो सरकार और न्यायपालिका] दोनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि न्याय प्रणाली की वर्तमान खामियों को दूर किया जाए- न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने के व्यावहारिक उपाय सोचे जाएं- तेज सुनवाई और समय से फैसले आने से भ्रष्टाचार को खारिज करने में सहायता मिलेगी.

1 COMMENT

  1. अब हमरा सरकारी पक्ष नेता वर्ग ८० के आस पास है . और सबका उपर जाना भी निष् चित है सो अब संसद में कुछ अछे कानून बना कर जाये की आने वाली पीडी को स्वच्छ वाता वरन मिले . अब इनलोगों ने बहुत धन कमाया अब कुछ अछे कर्म कर ले और कृष्ण जी के उपदेशो पर अमल करले.

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