
कितने ही दर्द सर्द मिले, सुरमयी दुनियाँ;
उर में थीं कितनी व्याधि रखी, विरहिन बुधिया !
सुधियों की बरातों में बही, ध्यान कब रही;
ज्ञानों की गरिमा उलझे-सुलझे, गूढ़ मति गही !
सामान्य सरोजों की भाँति, खिल कभी सकी;
किलकारी बालपन की पुन:, पक के वो तकी !
तत्काल काल गति में बही, अकाली बनी;
कलि-काल कथा कर्ण सुने, सगुण गुण गुणी!
दारूण बिपद भी सत्पथों की ओर ले चली;
दुविधा दिई थी सुविधा ‘मधु’, शाश्वत सुधिया !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा