कृष्ण राधा तो बन गए, पर राधा कृष्ण न बन सकी

                    आत्‍माराम यादव पीव

 मैं सूरदास को बचपन से पढ़ता आ रहा हूँ । प्रारम्भिक शिक्षा के दौर में उनके बालचरित्र के पदों को रटने ओर उनका अर्थ लिखकर परीक्षा में अब्बल आने का शौक रहा लेकिन जैसे-जैसे में उम्र के साथ उनके काव्य सागर में डूबता गया तो पाया की एक ओर उन्होने कृष्ण के बचपन की लीलाओं का ऐसा चित्रण किया है जिसमें बालक कृष्ण द्वारा चंद्रमा को खिलौना समझकर माँ यशोदा से मांगने कि जिद है तो वही माखन दधि की चोरी ओर लूट, गाय दुहने- चराने, गेंद खेलने ओर कालिया नाग को नाथने आदि अभिप्रायों का वर्णन किया है दो दूसरी ओर गोपियों-यशोदा माता के बीच, अक्रूर ओर गोपियों के बीच शिकवा शिकायत के भाव को व्यक्त किया है तो तीसरे लौकिक-अलौकिक चरित्र की आँखमिचोनी में वे राधा का स्वांग रचकर उनके वस्त्र पहनकर राधा बने है ओर राधा कृष्ण के वस्त्र पहनकर कृष्ण बनी है जिसका सार अन्तर्मन के बंद सभी द्वारों को खोलकर कृष्ण के निगूढ़ रस का चाहक बने नही रह सकता है। सुर के कृष्ण प्रियतम रूप में अव्यक्त है जो माखन छिपाकर रखा जाता है, उसे छिपकर ही तो लेने में आनद है। कृष्ण छिपना चाहते है, पर छिपाए नही छिपते है ओर उनका छिपाए न छिपना ही तो गोपियों के लिए उन्मद प्रेम है जिसे वे प्रियतम में देखती है । असल में दही माखन जो है वह कृष्ण का माधुर्य भाव है। माखन का माधुर्य पहले दूध को मंदी आंच में तपाना, जामुन के रूप में खट्टे रस को मिलाकर औटना ओर ठंडा करना फिर जमने के बाद बिलोई से बिलोना है, बिलौने से जो माखन का गौला बने वही तो माधुर्य है, वही कृष्ण है। अगर कृष्ण माखन चोरी करते है तो अपने ही स्वरूप से परिचय करना चाहते है कि कैसे मथना होता है, कैसे तपना होता है, कैसे औटना –जमना होता है फिर कैसे बिलोई से माखन बनकर उसके माधुर्य को पूर्णता के साथ पाना होता है। माखन चोरी ओर माखन लूट में राधा जी से दही का दान मांगने का प्रसंग सूरदास जी अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करते है –

मेरे दधि को हरि स्वाद न पायो

जानत इन गुज़रिन को सौ हे ल्यौ छिड़ाई मिली ग्वालिन खायो।

धौरी धेनु दुहाईछानि पयमधुर आंच में औंटी सिरायों

नयी दोहनी पौंछिपखारी धरी,निरधूम खिरनि पै तायों ।

तामि मिलति मिसरि करि,दे कपूरपुट जावन नायों ।

सुभग ढकनिया ढाकि,बांधिपट,जतन राखि छीकों समदायों

हो तुम कारण लै आई गृह मारग में न कहु दरसाओ।

सूरदास प्रभु रसिक सिरोमणि,कियो कान्ह ग्वालिनी मनभायों ॥

राधा जी कहती है कि कान्हा ने मेरे घर का दही नही चखा है अब तक वे दूसरी गोपियों के घरों का दही माखन खाया करते थे। मेरे घर में धोरी गाय है जिसका दूध छानकर आंच में तपाया जाता है,जिस दोहनी में गाय को दुहा है वह नई है ओर उसे निर्धूम आग पर सोंधाया गया है जिसमें मिश्री ओर कपूर मिलाकर जावन बनाया ओर बर्तन से ढक दिया है। इसके लिए बड़े यत्न यत्न करने पड़े। इसे न घर में किसी ने देखा है ओर न ही रास्ते में देखा है। सिर्फ कान्हा के कारण ही इसे अपूर्व दही के रूप में परिवर्तित किया गया है, कान्हा ने मेरे इस दही का स्वाद नही लिया है। कृष्ण गोपियों के साथ मनमानी करते है लेकिन राधा के साथ उनकी भूमिका दूसरी हो जाती है जिसमें राधा ही मन कि करती है ओर राधा का दिया दही अगर श्रीकृष्ण खाते है तो वह दही स्वय कृष्ण है ओर दही खाने या चखने वाला कृष्ण नही है, श्रीकृष्ण का मुख है, पर वह देह राधा की हो जाती है।

       जब कृष्ण गाय का दोहन करते है तो यह एक सामान्य बात नहीं बल्कि महत्वपूर्ण घटना है। महत्वपूर्ण इसलिए है की गोदोहन के समय ही राधा जी को श्रीकृष्ण से भेंट की अनुमति मिलती है। गायें बाहर खरिक में होती है ओर वे किसी अन्य व्यक्ति से नहीं दुहाती बल्कि उन्हे दोहने के लिए कृष्ण ही चाहिए। सूरदास जी का बड़ा ही सुंदर भाव उनके काव्य में देखने को मिलता है जब गाये दोहवाने को राजी है, पर वे कृष्ण से दोहवाते समय दुही नही जाती है। दुही जाती है वे आंखे जो कृष्ण के सुंदर स्वरूप का रसपान करती है। कृष्ण की आंखे राधा की आंखो से प्रेम का दोहन करती है ओर राधा की आंखे इस अपलक दृष्टि का सामना करने में असमर्थ होकर खीज उठती है ओर वे कृष्ण से उलाहना करके कहती है –

तुम पै कौन दुहवे गैया

लिए रहत हो कनक दोहनी बैठत ही अधपैया।

कृष्ण इस उलाहना से गाय को दुहना भूल जाते है –

हाथ धेनुथन बदन तियातन छीर छींटि छल छोर

आनन रही ललित पय छींटे छाजती छवितृन तोरे।

मनौ निकसे निष्कलंक कलानिधि दुग्धसिंधु मथि बोरे।

इहि विधि हरसत बिलसत दंपति हेत हिये नही थोरे ।

सुर उमगी आनंद सुधानिधि मनु बेला मन फोरे ॥

गाय दुहना भूलकर कृष्ण गाय के थनों से दूध की धार राधा जी की मुखारबिंद पर छोडने लगते है। कृष्ण द्वारा दुहा दूध की धारा जब राधा जी के मुख पर पड़ती है तब लगता है कि दूध के सागर में नहाकर उनका मुख निष्कलंक चाँद हो गया है। गोदोहन कि लीला ऐसी मानो राधा के आनंद का अमृत अपनी सीमाए तोड़ने को है, इसमें जिस पात्र में दूध दुहा जा रहा है वह तो भर ही जाता है साथ ही राधा ओर कृष्ण का हृदय भरने के साथ वे एक हो जाते है। राधा दुग्धसिंधु में स्नान करके लौटती है तो, दोहनी से भरा पात्र वही रह जाता है, ओर यह दुग्धअमृतसिंधु उनके लिए विष का ज्वर बन जाता है। राधा से जब गोपिया पूंछती है कि तुम दुग्ध स्नान करके आ रही हो तो वे कहती है तुम्हें दूध की पड़ी है मुझे तो काले भुजंग ने डस लिया है ओर उसका जहर मेरे शरीर को दग्ध किए हुये है। कहा गया है कि कृष्ण ने ऐसे ही एक ग्वालिन को सर्प के डसे जाने पर विष उतारने बुलाया था ओर वह ठीक हो गई थी, राधा जी का अभिप्राय समझ कर गोपिया कृष्ण को बुलाती है। कृष्ण बुलाये जाते है, जिसने डसा है,वही अपना जहर उतारने की कला जानता है। कृष्ण को बुलाना प्रेम कि विवशता है ओर प्रेम समाज कि वर्जनाए तोड़ता है। कृष्ण कही भी मर्यादित नहीं है, वे राधा की पीड़ा को समझते थे इसलिए आ गए, ओर आने का दूसरा कारण कृष्ण ओर राधा का एक हृदय होना भी है, इसलिए वे राधा के या यूं कहिए अपने हृदय से दूर नही हो सकते थे। श्रीकृष्ण अमृत भी है ओर विष भी है । वे अमृतसिंधु होते है तो किनारों को तोड़ देते है पर सिंधु के किनारों का छोर नही है इसलिए वे प्रवाह बन जाते है। वे विष होते है तो उद्वेलन हो जाते, लहर बन जाते है। राधा कृष्ण की वह सच्चाई है जिसके लिए कृष्ण जीवन भी है ओर प्यार भी है तभी तो राधा जी गोरे रंग की होते हुये भी खुद को गौरी कहलाने में शर्म महसूस करती है इसलिए वह खुद को श्यामा बनाकर ही कृष्ण प्रेम के समतुल्य बना पाती है। कृष्ण भी जब तक राधा से सम्पूर्ण समर्पण नहीं पा जाते तक उनकी अद्भुत नाटकीय लीलाओं का विन्यास नहीं होता है।

सूरदास ने बिम्ब-प्रतिबिंब भाव को तीन प्रथक रूपों में काव्य में व्यक्त किया है। बालरूप में माँ यशोदा से चंद्र खिलौना का प्रसंग है दूसरा राधा का प्रतिबिंब कृष्ण की कौस्तुभमणि में व्यक्त है ओर तीसरा माखनचोरी करते हुये कृष्ण स्वंम को मणिमय गृह में प्रतिबिम्बित देखते है जहा उस प्रतिबिम्बित दृश्य देखने के दरम्यान एक गोपी उन्हे देख कर निहाल हो जाती है। राधा जब कौस्तुभमणि में नारी में खुद कि छवि के स्थान पर दूसरी गोपी का रूप देखती है तो कृष्ण से नाराज हो जाती है। बृजबालाओ ओर बृज नारियों के साथ वस्त्र हरण चरित्र हो या रास विलास, कृष्ण के लिए वह लीला वैसी ही है जैसे एक बच्चा प्रतिबिंब के साथ खेलता है। कृष्ण की हर लीला के प्रतिबिंब के साथी-संगी ओर साझेदार है। जब राधा को अपने ही प्रतिबिंब को देखकर परायेपन का आभास होता है तो वह ईर्ष्या से जल भुन जाती है लेकिन जैसे ही राधा अपने को कृष्ण के हृदय में प्रतिच्छादित देखती है तब वे कृष्ण से समागम को उत्सुक हो जाती है। जैसे बिम्ब स्थायी नही होता हिलता जुलता अपनी चंचलता कि छवि अंकित करता है,जबकि प्रतिबिंब थिर हो जाता है, ठहर जाता है। राधा कृष्ण के लिए नया प्रयोग करती है, जो पुरुष ओर नारी का भेद करता है। राधा कृष्ण से समागम से पूर्व पहली बार वस्त्र परिवर्तन का रसरंग विखेरती है ओर अपनी सुंदर ओढ़नी ओर वस्त्र कृष्ण को पहनाकर खुद पीताम्बर धारण कर लेती है। राधा कृष्ण का शृंगार धारण कर कृष्ण बन जाती है ओर कृष्ण राधा के शृंगार में सजते है। कृष्ण को राधा के रूप में ओर राधा का कृष्ण के रूप में तल्लीनता से सजना प्रेम की उन्मुक्तता ही नहीं उन्माद भी है जिसका अभिप्राय अपनी पहचान भूलकर दूसरी पहचान पाना है, राधा ने कृष्ण का रूप तो रख लिया लेकिन कृष्ण नही बन पायी। राधा ने मुरली बजाने का अभियन कर कृष्ण से कहा कि तुम मेरी लाड़ी बनकर मुझसे रूठो ओर में तुम्हें मनाऊँगी। कृष्ण लाड़ी तो बन जाते है पर पुरुष का भाव नही त्याग पाते ओर वे निष्ठुर ही रहते है, राधा मनाती है पर वे मानते नहीं। राधा कृष्ण को मना पाने में असफल रहती है ओर भूल जाती है कि वह कृष्ण बनी है ओर राधा को मना रही है,लेकिन राधा के स्वभाव में डर जाती है कि कही कृष्ण नाराज न हो जाये, कृष्ण इस लीला का मन ही मन आनंद लेते है फिर राधा के हार मानने के बाद कहते है कि मैं जैसे राधा बनकर राधा की तरह हठीला बनकर तुम्हारे रिझाने से नहीं रीझा तो समझो में राधा के रूप में सफल रहा ओर तुम अगर कृष्ण बनी तो कृष्ण का स्वभाव रूठने का होता है ओर राधा का मनाने का, तुम्हें रूठना था ओर मैं राधा के रूप में तुम्हें रिझाता तो तुम्हारा कृष्ण बनना सफल होता-

निरखि पिय रूप तिय चकित भई भारी

किधों वे पुरुष मैं नारी,

की वै नारी मैं ही हौं पुरुष तनसुधि बिसारी।

आपुतन चिते सिर मुकुट,

कुंडल स्त्रवन,अधर मुरली माल बन बिराजे ।

उतहिं पिय रूप सिंधु मांग बेनी सुभगभाल बेंदी बिनु महा छाजे ।

नागरी हठ तजो कृपा करी

मोहि भजो परि कह चूक सो कहो प्यारी।

सुर नागरी प्रभुबिरहरसमगन भई,

देखि छवि हसत गिरिराजधारी॥

राधा कृष्ण के वस्त्र बदलकर उलझन में पड़ गयी, जबकि राधा प्रकृति है ओर प्रकृति का स्वभाव कोमलता- विकलता है। कृष्ण ने बड़ा सुख पाया कि राधा कृष्ण बनकर उसके पैरो पड़ रही है,मना रही है, उसे कृष्ण बनकर कृष्ण कि सुध नही राधा न रहकर राधा की सुध याद रही है। कृष्ण बनने पर राधा का जिस तरह कृष्ण बनी राधा के प्रति विश्वास डिगा, धैर्य छूटा, मान-मनोब्ब्ल में आंखो से आँसू बहे, शब्दों में कंपन आया ओर बोली में निशक्तता नजर आई, यही तो प्रकृति का स्वभाव है जबकि कृष्ण वस्त्रबदलकर राधा तो बन गए, राधा बनकर वे कृष्णरुपा राधा के समक्ष एक कौतूहल ही तो दिखा सके, कौतूहल जिसमें प्रियारूप में होते हुये कृष्ण परमहंस के स्वभाव से डिग नही सके। सुर के बालकृष्ण माटी भक्षण करते है तो माँ यशोदा के हाथो में सांटी आ जाती है ओर वे कहते है मैंने माटी नहीं खाई, माँ यशोदा नाराज होकर कहती है कि “”काहे न उगलो माटी” कृष्ण ने आँख मूंदकर मुह खोलकर अजीव नाटक किया ओर माँ यशोदा को मुह में सारा ब्रम्हाड दिखा दिया। सूरदास भ्रम में पड़ जाते है कि बच्चे को डपटे या स्तुति करे, बच्चा नर है या नारायण। कृष्ण के लिए न कोई लौकिक है ओर न ही अलौकिक। वे पूरे नटवर है ओर नटवर रहते हुए वे हर अभिनय के उत्कृष्ट कलाकार भी है। श्रीकृष्ण सभी में विश्वास भरते हुये अपने माधुर्य से प्रिया प्रियतम के विहार से अधिक महत्व देते है कि प्रिया ओर प्रियतम के बीच एकाकार स्थापित हो ताकि किसी को दुखद बिछुड़न की तड़फ से न गुजरना पड़े। वे लोक में रहकर कुछ भी अलौकिक नही चाहते हुये, अलौकिक प्रेम ही उनकी देशना रही है। यही सूरदास के काव्य में झलकता है तभी सूरदास का काव्य श्रीकृष्ण के शाश्वत प्रतीक्षा का काव्य है जिसमें एक पक्ष में राधा के लिए कृष्ण अमृत भी है ओर विष भी है जो अमृत होने से पाठकों को जीवन का संदेश देते रहेगा वही राधा के देह में प्रवाहित प्रतीक्षा के विष से उतप्त करते रहेगा।

आत्‍माराम यादव पीव

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