राजनीति समाज

राजनीति का ‘कुरूपतम’ काल

निर्मल रानी

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को हुए क्रूरतम निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड में पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने दोषियों को दी गई फांसी की सज़ा को बरक़रार रखते हुए एक बार फिर यह संदेश देने की कोशिश की है कि जघन्य अपराध में शामिल दोषियों को बख़्शा नहीं जाना चाहिए। निर्भया कांड से पूरे विश्व में भारत की बहुत बदनामी हुई थी। दुनिया के मीडिया ने इस बलात्कार की भयावहता को प्रसारित किया था। निश्चित रूप से सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले के बाद देश ने राहत की सांस ली है। परंतु न्याय व न्यायालय की भावनाओं के विपरीत पिछले कुछ समय से ऐसा देखा जा रहा है कि किसी जुर्म के आरोपी को उसके अपराध नहीं बल्कि धर्म के आधार पर देखा जाने लगा है। उसका विरोध या समर्थन अपराध आधारित न होकर धर्म आधारित होता जा रहा है। और इस ख़तरनाक वातावरण को परवान चढ़ाने में बहुसंख्यवादी वोट की राजनीति की सबसे अहम भूमिका है। यह हमारा ही देश है जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे के कुछ भक्त उसका मंदिर बनाए बैठे हैं व उसकी मूर्तियां भी अपने कार्यालय में स्थापित किए हुए हैं।
पिछले दिनों ऐसे कई समाचार प्रकाशित हुए जिनसे यह पता चला कि सत्तापक्ष के कुछ जि़म्मेदार नेता तथा भारत सरकार के जि़म्मेदार मंत्री अपराधियों की न केवल संगत में देखे गए बल्कि  दंगाईयों व हत्यारों की हौसला अफ़ज़ाई करते हुए भी दिखाई दिए। गत् वर्ष झारखंड में कथित गौरक्षकों की एक भीड़ द्वारा अलीमुद्दीन अंसारी नामक एक पचपन वर्षीय व्यक्ति की सरे बाज़ार पीट-पीट कर हत्या कर दी गई थी तथा उसके वाहन में आग लगा दी गई थी। हत्यारी भीड़ का आरोप था कि अलीमुद्दीन गौमांस का व्यापार करता था। झारखंड की एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने इस बर्बर हत्याकांड में 11 दोषियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी। पिछले दिनों इन अपराधियों को उच्च न्यायालय से ज़मानत मिलने के बाद एक ऐसे केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा द्वारा इन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर इन्हें सम्मानित किया गया व इनके गले में फूल मालाएं डालकर इनकी हौसला अफज़ाई की गई जिनके बारे में यह बताया जाता है कि वे न केवल आईआईटी दिल्ली से शिक्षित हैं बल्कि पेंनसिलवानिया विश्वविद्यालय तथा हार्वर्ड से भी उच्च शिक्षा प्राप्त की है। इनके पिता पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने अपने बेटे के इस कारनामे की आलोचना इन शब्दों में की है कि-वह एक लायक़ बाप का नालायक़ बेटा है। क्या जयंत सिन्हा का एक सांप्रदायिकतावादी, अपराधी भीड़ के साथ खड़ा होना तथा ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करना देश की एकता-अखंडता,सद्भाव तथा सामाजिक एकता के लिए अच्छा लक्षण माना जा सकता है?
  एक और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह जो कभी राष्ट्रीय जनता दल में रहकर लालू प्रसाद यादव के साथ अल्पसंख्यकों के हितों की लड़ाई लड़ा करते थे वे अब अपना नकली आवरण उतारकर अपने असली चेहरे के साथ मैदान में उतर आए हैं। यह वही गिरिराज सिंह हैं जिन्होंने मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने जैसा ‘आईडिया’ देकर मोदी के शुभचिंतकों में अपनी विशेष जगह बनाई है तथा भाजपा के भडक़ाऊ नेताओं में अपना स्थान बना लिया है। गत् दिनों गिरिराज सिंह बिहार के नवादा जेल में उन दंगा आरोपियों से मिले जो सांप्रदायिक हिंसा फैलाने व दंगा भडक़ाने के आरोप में जेल में बंद हैं। इनमें कई कार्यकर्ता विश्व हिंदू परिषद् तथा बजरंग दल के भी हैं। गिरिराज सिंह न केवल इनसे मिलने गए बल्कि मिलने के बाद इनकी जेल में स्थिति पर आंसू भी बहाए और नितीश कुमार की सरकार पर यह आरोप भी लगाया कि वह हिंदुओं को दबाने की कोशिश कर रही है। क्या एक स्वच्छ,निष्पक्ष व मानवतावादी राजनीति का तक़ाज़ा यह नहीं है कि यदि जयंत सिन्हा अलीमुद्दीन के सज़ायाफ़्ता हत्यारों को सीमा पर लडऩे वाले किसी सैनिक जैसा सम्मान अपने घर बुलाकर दे सकते हैं तो क्या उन्हें अलीमुद्दीन के आश्रितों से मिलने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई? गिरीराज सिंह दंगाईयों से मिलने तो जेल जा सकते हैं परंतु दंगा प्रभावित लोगों की ख़ैरियत पूछना क्या उनकी राजनैतिक रणनीति का हिस्सा नहीं?
     याद कीजिए दिल्ली में जब प्रेम प्रसंग के एक मामले में अंकित सक्सेना नामक एक होनहार नवयुवक का क़त्ल अंकित की प्रेमिका के रिश्तेदार कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा कर दिया गया था उस समय भी इस पूरे मामले को सांप्रदायिक रंग देने के लिए इन्हीं दक्षिणपंथी संगठनों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था। दिल्ली की फ़िज़ा ख़राब करने के लिए इसे सांप्रदायिक रंग देने की भरपूर कोशिश की गई। परंतु अंकित के पिता ने अपने बेटे की हत्या के बावजूद इस मामले को केवल अपराधिक मामले तक ही सीमित रखने पर ज़ोर दिया न कि इसे सांप्रदायिक रूप देने की कोशिश की। ठीक इसके विपरीत उन्होंने गत् दिनों अपने ही घर पर रोज़ा-इफ्तार की दावत दी। इस इफ्तार पार्टी में सभी ने मिलकर हत्यारों को सज़ा दिलाए जाने में उनको समर्थन व सहयोग का आश्वासन दिया तथा सज़ा के लिए दुआएं मांगी। दूसरी ओर जघन्य अपराधियों को धर्म के आधार पर महिमामंडित करने का एक भयावह दृश्य देश और दुनिया ने राजस्थान के राजसमंद में गत् वर्ष उस समय देखा जबकि अफ़राज़ुल नामक एक श्रमिक के हत्यारे शंभू लाल रैगर के पक्ष में भारी भीड़ सडक़ों पर उतर आई तथा बाज़ार से लेकर अदालत तक हंगामा बरपा कर दिया। गोया जैसी स्थिति निर्भया मामले में हत्यारों के विरुद्ध दिखाई दे रही थी वैसी ही स्थिति राजस्थान में हत्यारों के पक्ष में नज़र आई। ऐसा ही दृश्य जम्मू में कठुआ में हुए आसिफा नामक आठ वर्षीय बच्ची के सामूहिक बलात्कार व हत्या से जुड़ा था। इसमें भी धर्म के आधार पर अपराध व अपराधी को देखने की कोशिश की गई। आसिफ़ा प्रकरण में भी जम्मू-कश्मीर सरकार के कुछ भाजपाई मंत्री आरोपियों को बचाने के प्रयास में सडक़ों पर प्रदर्शन करते व जुलूस निकालते दिखाई दिए।
         कहने को तो इस समय देश के अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी,पाकिस्तानपरस्त बताने की कोशिशें की जा रही हैं। दूसरी ओर स्वयं को देश प्रेमी व राष्ट्रभक्त वे शक्तियां बता रही हैं जो कई जगहों पर अपराध व अपराधियों के समर्थन में खड़ी नज़र आ रही हैं। इस संदर्भ में मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति तथा राष्ट्रविरोधी व अपराधी शक्तियों के विरुद्ध उनके खड़े होने के दो ही उदाहरण पर्याप्त हैं। याद कीजिए जिस समय दिल्ली के संसद भवन में पाक प्रेषित आतंकियों ने हमला किया था तथा हमारे देश के जांबाज़ सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें मार गिराया था उस समय तथा उसके बाद मुंबई में 26/11 को हुए पाक प्रायोजित आतंकी हमले में मारे गए आतंकियों व फांसी पर लटकाए गए आतंकी क़साब की लाशों को मुस्लिम समुदाय ने कब्रिस्तान में दफन करने से इंकार कर दिया था। मुस्लिम समुदाय का स्पष्ट संदेश था कि बेगुनाहों की जान लेने वाला व्यक्ति मुसलमान नहीं कहा जा सकता। ठीक इसी तजऱ् पर पिछले दिनों मध्यप्रदेश के मंदसौर जि़ले में बलात्कार के एक आरोपी मुस्लिम युवक के विरुद्ध जहां सांप्रदायिक शक्तियां इस बलात्कार कांड को सांप्रदायिक रूप देने की कोशिशों में लगी थीं तथा सडक़ों पर धरने-प्रदर्शन व हिंसा का खेल खेल रही थीं वहीं दूसरी ओर मंदसौर के मुस्लिम समाज ने एकजुट होकर दुष्कर्म के आरोपी इरफान को सज़ा-ए-मौत दिलाने की मांग की,उसे कोई मुस्लिम वकील उपलब्ध न कराने की घोषणा की तथा सज़ा-ए-मौत के बाद किसी मुस्लिम क़ब्रिस्तान में दफन न करने का ऐलान किया। लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि अपराध व अपराधी को धर्म व जाति के चश्मेे से क़तई न देखा जाए अन्यथा यह दौर देश की राजनीति का कुरूपतम काल कहा जाएगा।
निर्मल रानी